अरशद आलम,न्यू एज इस्लाम
17 अक्टूबर, 2017
हादिया जिसे अब इस्लाम कुबूल कर लेने के बाद अथीरा के नाम से जाना जाता है, इसके मामले से विभिन्न समस्याएं उत्पन्न होते हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि किसी दोसरे धर्म को स्वीकार करने जैसा एक निजी कार्य भी आम तमाशा क्यों बन गया? सबसे पहली बात यह है कि यह एक समस्या बन गया क्योंकि इसे एक समस्या बनाया गया। रिपोर्ट से यह अंदाजा होता है कि सबसे पहले केरल में हिन्दू अतिवादियों ने इसे एक समस्या बनाया और फिर उत्तर प्रदेश में।
अन्तर्जातीय विवाहों का रुझान कभी ना कभी लगभग सभी समाजों के लिए परेशानी का कारण रहा है। असल में, केरल में ईसाईयों ने सबसे पहले लव जिहाद का मामला उठाया था। उन्होंने कहा कि मुस्लिम मर्दों ने इसाई लड़कियों को फ़साने के लिए यह जाल बिछाया है। उन्होंने यह भी दावा किया कि प्यार के नाम पर मुस्लिम मर्दों को दोसरी कम्युनिटी की लड़कियों को लालच देने के लिए पैसे दिए गए हैं, वह जज्बाती तौर पर लड़कियों को शादी की तरफ लुभाते हैंऔर इसके बाद उनसे शादी कर लेते हैं और जब उनका मिशन पूरा हो जाता है तो इसके बाद वह उन्हें तलाक दे देते हैं और दोसरी लड़की की तलाश शुरू कर देते हैं।
यह धोखा दही और दगाबाज़ी के जरिये धर्म परिवर्तन करने के अलावा और कुछ नहीं है, जिसे अवश्य रोका जाना चाहिए। उनके इस दावे ने भी लोगों की तवज्जोह हासिल की कि ऐसे मुसलमान मर्द एक बड़े नेटवर्क का हिस्सा हैं जो ईसाई लड़कियों को इस्लाम की और आकर्षित करने में सक्रीय हैं और उन का उद्देश्य उन लड़कियों को आइएस आइएस में भेजना या उन्हें इस तरह की दोसरी आतंकवादी संगठनों का सदस्य बनाना है। हिन्दुओं ने उत्तरप्रदेश में इसे एक सफल चुनावी मसला बयाना। बीजेपी के सत्ता में आने और एनआईए के इस मसले को उठाने के बाद यह मामला राष्ट्रीय बहस का एक विषय बन गया है जिसमें लोग किसी एक का पक्ष लेने पर मजबूर हैं।
अब तक अदालतों का हादिया केस में जो रुख रहा है इससे और भी बहुत कुछ आशा की जा सकती है। अदालतें अगर हादिया जैसी आकिल और बालिग़ के साथ नाबालिगों जैसा मामला करना शुरू कर दें और यह कहने लगें कि बालिग़ होने के बावजूद उसकी गवाही को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता, तो इसमें कोई समस्या अवश्य है। अदालत बालिगों के लिए भी अभिभाकों को ही एकमात्र रक्षक बनाए गी और इसके बाद नौजवान बालिगों की आज़ादी जैसे समस्याओं पर कार्यवाही करेगी। एक आकिल व बालिग़ नौजवान अपनी मर्ज़ी से जो फैसला करे अदालतों को उसका सम्मान करना चाहिए और उसे सुरक्षा प्रदान करना चाहिए जैसा कि अनगिनत मौकों पर होता रहा है। लेकिन किसी वजह से, जो वही बेहतर जानते हैं इस मामले में अदालतों ने व्यक्तिगत अधिकारों को कानूनी तौर पर सुरक्षा प्रदान करने के बजाए मौजूदा रुढ़िवादी राय को वरीयता दी है। अगर अदालत को लव जिहाद के मामलों में वास्तव में सेक्युरिटी कारणों का खतरा होता तो फिर अदालत पुर्णतः इस मामले को जांच का आदेश देती। लेकिन किसी भी हाल में अदालत को हादिया को उसके पीटीआई के घर से हिरासत में नहीं लेना चाहिए था, जो कि उसका कानूनी अधिकार है।
हादिया जैसे घटनाएं बार बार पेश आते रहेंगे। और कोई भी कम्युनिटी लड़कियों की नकल व हरकत पर पाबंदी लगाने, उनकी लैंगिकता को रोकने और उन्हें अपनी पसंद से प्यार और शादी करने के हक़ से वंचित करने के आरोप से आज़ाद नहीं है। महिलाओं के अपमान के लिए ज़ात पात और धार्मिक बिरादरी जिम्मेदार है क्योंकि उन्हें यह लगता है कि महिलाएं ‘गुमराह’ हो जाएंगी और समाज और खानदान को शर्मशार कर देंगी। इस देश से बहुत से भागों में सम्मान के नाम पर कत्ल की जो वारदातें अंजाम दी जाती हैं जिनमें से बहुत से मामले ऐसे हैं जिनकी रिपोर्ट भी नहीं की जाती, इन सारे मामलों की बुनियाद यही है: महिलाओं को चीजों की वकअत और शर्मिंदगी और ज़िल्लत का मजमुआ व मुरक्का मानना। इसलिए, इज्ज़त व सरबुलंदी मर्दों के अंदर है जबकि शर्मिंदगी और ज़िल्लत औरतों के अंदर है। महिलाओं के अंदर खानदान और बिरादरी को ज़िल्लत व रुसवा करने की सलाहियत मौजूद है इसी लिए उन्हें एक मजबूत गिरफ्त के अंदर रखा जाना चाहिए। किसी भी ज्यादती के सज़ा फ़ौरन दी जाएगी। अगर उसकी ज्यादतियां बढ़ जाएं तो उन्हें कत्ल भी किया जा सकता है।
मुस्लिम समाज में भी महिलाओं के लिए यही रवय्या है। लेकिन हादिया का मामला भिन्न है। इस मामले में उस खातून ने इस्लाम स्वीकार कर लिया है इसलिए, उर्दू प्रेस और दोसरे लोग हादिया के स का हवाला देते हुए पोलराइज़ेशन के हिंदुत्वा एजेंडे की तरफ इशारा कर रहे हैं। लेकिन अगर वह खातून मुसलमान होती और शादी के बाद हिन्दू मज़हब को स्वीकार करने का निर्णय कर लेती तो क्या मुस्लिम समाज की प्रतिक्रिया यही होती? मुसलमान यह रिवायत बयान करते हुए परवान चढ़ते हैं कि एक हिन्दू को मुसलमान बनाने का सवाब उतना ही है जितना एक हज का और उन्हें दोसरे सभी दीन पर इस्लाम की बरतरी की शिक्षा भी दी जाती है।
अगर मुसलमान बच्चों को दोसरे धर्मों के बारे में ऐसी नाकारात्मक शिक्षा दी जाए गी तो उनके बारे में उन पर क्या प्रभाव पड़े गा? क्या इस सूरत में एक मुसलमान के लिए यह यकीन करना एक फितरी बात नहीं है कि उनका मज़हब सबसे अच्छा और वह लोगों को उनका धर्म कुबूल करने की दावत दे कर कोई नेक काम कर रहे हैं? लेकिन यह एक ऐसा मसला है जिस पर कम्युनिटी के अंदर मुबाहेसा करना होगा। कौन सी बात हमारे मज़हब को बेहतर बनाती है? और हम इसके बारे में इतना यकीनी क्यों हैं? और क्यों हम अब तक इन अहमकाना बातों पर यकीन कर रहे हैं जब कि तमाम इशारे इस बात के हैं कि शायद रुए ज़मीन पर सबसे बदतर समाज हम हैं? चूँकि हम इस तरह की अहमकाना बातों पर विश्वास रखते हैं, इसलिए हम ने अपने नियम भी ऐसे ही बना रखे हैं।
इसलिए, अगर किसी गैर मुस्लिम को मुस्लिम से शादी करना हो तो उसे अपना धर्म बदलना होगा। इसका इस्तिसना केवल ईसाई और यहूदी औरतों का मुस्लिम मर्दों से शादी करने की सूरत में है लेकिन इसका बरअक्स दुरुस्त नहीं है। इसलिए, इसके बावजूद दोसरी कम्युनिटीज़ की लड़कियां हमारे धर्म में शादी कर रही है तो यह दुरुस्त है।
यह इस तरह है कि जब आला ज़ात के हिन्दू मर्द किसी छोटी ज़ात की लड़की से शादी करना चाहें तो उन्हें शादी के कवाइद व जवाबित में छुट दी जाए लेकिन आला ज़ात की लड़कियां छोटी ज़ात के लड़कों के साथ शादी नहीं कर सकती। लेकिन अगर एक मुसलमान मर्द किसी हिन्दू लड़की से शादी करना चाहता है तो उस लड़की को इस्लाम कुबूल करना होगा।
बज़ाहिर अंतर्जातीय शादियाँ इसलिए होती हैं क्योंकि फरीकैन एक दोसरे से प्यार करते हैं। इसका इन्तिज़ाम खानदान के अफराद नहीं करते। लेकिन प्यार की शादियों में भी धर्म इतना बड़ा मसला क्यों बन जाता है? क्या प्यार को ज़ात पात और मज़हब की सीमाओं से बाहर नहीं होना चाहिए? शादी से पहले लड़कियों का धर्म परिवर्तित करने के अपने इसरार के जरिये क्या मुसलमान मर्द दुनिया को यह पैगाम नहीं दे रहे हैं कि अगर मज़हबी मुआमलात में प्यार को भी पीछे डाला जा सकता है? जब तक मुसलमान शादी से पहले दोसरों का मज़हब परिवर्तित करने पर जोर देते रहेंगे तब तक इस तरह की शादियों के पीछे इरादे के बारे में दोसरे कम्युनिटीज़ के लोग सवाल उठाते रहेंगे।
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