असग़र अली इंजीनियर (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
नार्वे में एक दिन ऐसा हुआ जिसने न सिर्फ दुनिया को हैरान कर दिया बल्कि इसने कई अहम सवाल भी उठाये। क्या मज़हब अमन के लिए है या मारकाट के लिए? एक बात तो तय है कि 9/11 के बाद सिर्फ इस्लाम पर हिंसा, जंग और जिहाद का आरोप लगाया जाता रहा था, अब ये साफ हो गया कि मारकाट करने वाले ऐसे दीवाने सभी धर्मों और परम्पराओं में पाये जाते हैं, यहाँ तक कि अत्यधिक प्रगतिशील माने जाने वाले देशों में भी पाये जाते हैं। सिर्फ पिछड़े अरब या कट्टर इस्लामी उग्रवादी ही मासूमों का कत्ल नहीं करते हैं, बल्कि विकसित और लोकतांत्रिक देशों के ईसाई भी मासूमों का कत्ल करते हैं।
बहुत से लोग आसानी से इस तरह की मारकाट के लिए धर्म को ज़िम्मेदार ठहरायेंगे लेकिन वास्तविकता कुछ ज़्यादा ही पेचीदा है। मज़हब एक हथियार है जिसे शांति और जंग दोनों के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। ये उस खास विचार पर निर्भर है जिससे कुछ व्यक्ति या एक ग्रुप सम्बंधित है। साफ तौर पर सभी व्यक्ति लोगों को कत्ल नहीं करते हैं और न सभी ग्रुप दाक्षिणपंथी विचारधारा को स्वीकार करते हैं। शांति धर्म का अटूट हिस्सा है या नफरत? क्या जो दूसरों से नफरत करता है वो अपने लोगों से प्रेम करता है? मुझे नहीं लगती है कि इसका जवाब इतना आसान है जैसा कि हम समझते हैं।
धर्म वो हो सकता है जो हम उसे बनाना चाहें। ऐसी कई मिसालें है जब धर्म का प्रयोग शांति स्थापित करने के लिए और साथ ही नफरत फैलाने के लिए भी किया गया। ऐसे कई लोग है जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी शांति औऱ समरसता के लिए समर्पित कर दी। इन लोगों में सबसे ऊपर महात्मा गांधी और अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर हैं। गांधी ने अहिंसा की वकालत की औऱ इसलिए अपनी धार्मिक परम्परा के साथ ही साथ दूसरी परम्पराओं जैसे ईसाईयत औऱ इस्लाम को शांति का अलमबरदार बताया।
इसी तरह वियतनाम में एक बौद्ध भिक्षु थिक नॉट हान अमेरिका के द्वारा वियतनाम में की गयी हिंसा के खिलाफ शांति के लिए उठ खड़े हुए। हम लोग प्रायः ऐसे लोगों की निंदा करते हैं, जो धर्म का प्रयोग दूसरों को मारने के लिए करते हैं, और ऐसे लोगों को हम कट्टरपंथी कहते हैं, लेकिन ऐसे लोग जो धर्म का इस्तेमाल शांति स्थापित करने के लिए करते है, अक्सर धर्म का प्रयोग बड़ी सख्ती से करते हैं और इस अर्थ में वो कट्टरपंथियों से कम नहीं हैं।
रोचक बात ये है कि महात्मा गांधी ने भी ये कहते हुए पूरी तरह सार्वजिनक और निजी के विभाजन को खारिज कर दिया कि ‘मैं तब तक धर्म के मुताबिक ज़िंदगी गुज़ार नहीं सकता हूँ जब तक कि मैं खुद को पूरी इंसानियत से जोड़कर न देखूँ और मैं ऐसा कर सकता हूँ और मैं तब तक ये नहीं कर सकता हूँ मैं जब तक सियासत में हिस्सा न लूँ’। आप सामाजिक, आर्थिक और विशुद्ध रूप से धार्मिक काम को पूरी तरह अलग नहीं कर सकते हैं। किसी भी नज़रिये से संकुचित मानसिकता वाले न कहे जाने वाले इस्लामी विद्वान इक़बाल ने भी कहा है कि अगर धर्म को राजनीति से अलग किया जाता है तो जो कुछ बचेगा वो चंगेज़ी व्यवस्था होगी।
इसी तरह शांति स्थापित करने के लिए धार्मिक शांतिप्रिय भी कड़े धार्मिक व्यवहार (नरम धार्मिक व्यवहार की तुलना में) का प्रयोग करते हैं। इसकी एक औऱ अच्छी मिसाल फालतू की बात करने वालों की है। इन लोगों की सेकुलर संस्थानों जैसे सरकार से समझौते को खारिज करने की पुरानी परम्परा है। ये लोग शांति के लिए फौज में जबरन भर्ती को खारिज करते हैं। ये लोग गुलामी की निंदा करते हैं और गुलाम रखने से इंकार करते हैं लेकिन गुलामों के द्वारा तैय्यार उत्पादों का प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि भूमिगत रेलवे के निर्माण में गुलामों के इस्तेमाल को सक्रिय रूप से रोक दिया। इसलिए सार्वजनिक मामलों में धार्मिक विश्वास को सक्रिय रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए।
जो लोग धर्म का प्रयोग शांति स्थापित करने के लिए और जो लोग नफरत फैलाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, दोनो को अपने धर्मों की सच्चाई का यकीन है। इनका पक्का यकीन है कि उनका विश्वास सही रास्ते पर है। ये सच्चाई में इन लोगों का विश्वास है जो इन्हें इस पर चलने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करता है। फिर इन लोगों की सच्चाई की वास्विकता क्या है? सच्चाई क्या है ये एक सवाल बना रहता है। जो लोग शांतिप्रिय हैं वो जानते हैं कि धर्म की सच्चाई एक ही है। सच्चाई विभिन्न धार्मिक परम्पराओं में अलग अलग रूप में स्पष्ट होती है। एक धर्म की सच्चाई का दूसरे की सत्यता से कोई टकराव नहीं है। कुरान इसे वहदते दीन यानि धर्मों की एकता कहता है औऱ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने वहदते दीन पर पूरा एक वाल्यूम (भाग) समर्पित किया है। दाराशिकोह ने भी इस विषय पर अपनी प्रसिद्ध रचना मजमूउल बहरैन( दो समद्रों का मिलना- हिंदू मत और इस्लाम) में इसका वर्णन किया है और इस्लाम और हिंदू धर्म में हैरान कर देने वाली समानताओं को पेश किया है।
सत्य की प्रकृति बहुत पेचीदा है और उसे चिंता से अधिक अमल के ज़रिये समझा जाना चाहिए। सत्य अमली हक़ीक़त से भी ज़्यादा क़ीमत रखता है। ये हकीकत और मूल्यों का संयोजन हो सकता है या कभी सिर्फ मूल्यों और विशेष रूप से आध्यात्मिक मूल्य। इसे इंसानी भाषा में वर्णानात्मक रूप से या सांकेतिक रूप से स्पष्ट किया जा सकता है। जो फालतू लोगों की तरह पक्का विश्वास रखता है, वो इसका इज़हार अमली तौर पर करते हैं, और ये एक बार राय बना लेने से ज़्यादा, खोज की चीज़ है।
बौद्ध मत में किसी विचारधारा से अनभिज्ञता एक अहम किरदार निभाती है। इस तरह बौद्ध धर्म का एक सिद्धांत किसी विचारधारा की पूजा या उससे बंधा हुआ होना नहीं है। इस सिद्धांत के अनुसार सभी विचारधाराएं केवल मार्गदर्शन प्रदान करती हैं न कि पूर्ण सत्य। इंसानों ने किसी एक विचारधारा या सिद्धांत ये जुड़ कर बहुत नुक्सान उठाया है।
इस तरह मूर्ति पूजा सिर्फ मूर्ति की पूजा नहीं है बल्कि विचारधारा और सिद्धांतों की भी पूजा है। सच्चाई को एक अमल के रूप में लेना चाहिए और एक सच्चे धार्मिक इंसान की अपनी ज़िंदगी इस खोज में होनी चाहिए कि न कि इसके न बदलने वाली प्रकृति पर खर्च होनी चाहिए। विभिन्न संस्कृतियों और विभिन्न स्थितियों में अलग अलग तरह के सच पैदा कर सकती हैं या इसे विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में भिन्न भिन्न रूप में पेश किया जा सकता है, जैसा कि दाराशिकोह की ऊपर वर्णित रचना में किया गया है।
क़ुरान भी कहता है कि अल्लाह ने विविधता पैदा की है और उसे ईश्वरीय भेंट के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। नार्वे में आम लोगों का खून बहाने वाला बहुसंस्कृति पर गुस्से में था औऱ यूरोपी देशों के लोग बाहर से आकर बसने वालों और बहुसंस्कृति के बारे में सकारात्मक रूख नहीं रखते हैं। ये संकीर्णता और गुस्सा पैदा करता है और कुछ लोग या समूह के द्वारा ये हिंसक रूप में फट पड़ता है। इसका एक ही हल है कि बहुसंस्कृति को स्वीकार किया जाये और उसे ईश्वर की रचना और भेंट मानी जाये। साथ ही आइये हम आखरी सच्चाई की अपनी कल्पना को भी बदले।
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