अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
13 अगस्त 2018
ऐसा लगता है कि बोरिस जॉन्सन के एक रिमार्क ने चारों ओर अफरातफरी का माहौल पैदा कर दिया है जिसमें उसने कहा था कि बुर्का पोश महिलाएं लेटर बाक्स लगती हैंl उसने यह भी कहा कि उनकी ज़ाहिरी शकल और सूरत देख कर मुझे बैंक लुटेरों की याद आती हैl बुर्के का इतना मज़ाक बना कर भी उसे तसल्ली नहीं मिली और उसने यह भी कहा कि बुर्का मुस्लिम महिलाओं के लिए ज़ुल्म व जबर का एक प्रतीक हैl यह कोई पहली बार नहीं है कि जब किसी यूरोपियन लीडर की ओर से ऐसा कोई बयान आया हैl ख़ास तौर पर रुढ़िवादियों और क़दामत परस्तों ने बुर्के के बारे में इससे भी बुरी बातें की हैंl स्पष्ट है कि बोरिस जॉन्सन के इस बयान को इस्लामोफोबिक ठहरा दिया गया है और उसे रुढ़िवादी पार्टी से निकाल बाहर किए जाने की मांग की जा रही हैl
ब्रिटेन में रुढ़िवादियों का चेहरा माने जाने वाले ब्रूनी वारसी ने इस मौके पर टोरेस को अपने अन्दर सहज तौर पर मौजूद इस्लामोफोबिया और मुस्लिम विरोधी तास्सुब पर नज़र करने को कहाl अब तक अपनी पार्टी की ओर से दबाव के बावजूद बोरिस जॉन्सन ने माफी मांगने से इनकार कर दिया हैl उसके इस स्पष्ट इनकार के पीछे कई कारण हो सकते हैं और हो सकता है कि इन्हीं कारणों में से एक ऐसा करके अतिवादी वर्ग का वोट प्राप्त करने का रुढ़िवादी पार्टी का गुमान भी होl तथापि इस बयान पर बरपा होने वाले शोर शराबे की समीक्षा करने और स्वयं से यह सवाल करने की भी जरूरत है कि आखिर इस्लामोफोबिया है क्याl
क्या ऐसा है कि मुसलामानों के मज़हब के बारे में कोई ऐसी बात स्वतः इस्लामोफोबिया बन जाती है जो मुसलामानों के लिए नागवार हो? और आखिर इस्लामोफोबिया की परिभाषा है क्या? बहुत सारे लोग साकारात्मक अंदाज़ में ईसाइयत को नापसंद करते हैं और यह बात भी यकीनी है कि यहूदियों के बारे में मुसलामानों की राय अच्छी नहीं हैl लेकिन इसके बावजूद क्रिस्टोफोबिया Christophobia या ज्युडोफोबिया Judophobia जैसे शब्द प्रयोग नहीं किए जातेl इसलिए इस्लामोफोबिया जैसा शब्द प्रयोग क्यों किया जाए और इस शब्द का आविष्कारक कौन है? और हमें स्वयं से यह भी सवाल करना चहिये कि अगर इस शब्द का अपने आप में कोई अर्थ नहीं है तो इसके प्रयोग का क्या उद्देश्य? इस शब्द के प्रयोग से किसे लाभ होता है और इसका लक्ष कौन लोग हैं? इस इस्तेलाह का आविष्कार करने वाले कौन लोग हैं, अवश्य अतिवादी और इस्लाम परस्त इस शब्द के प्रयोग करने के आदी हैंl
समस्या यह है कि असल में यूरोप में और दुसरे देशों में अतिवादी राजनीतिक पार्टियां इस प्रकार के बहस का बाज़ार गर्म करती हैं और वही इस्लामोफोबिया जैसे शब्द का प्रयोग करने की आदी हैंl आज हम एक अजीब दुनिया में रहते हैं जहां अतिवादी और इस्लाम परस्त अपने लिए एक साझा जमीन तैयार कर रहे हैंl आज से कुछ दशकों पहले यह गुमान भी नहीं किया जा सकता था कि कंजर्वेटिव लोग खुल कर इस्लामी रिवायात और दुसरे मज़हबी रिवायात के बचाव में आ जाएंगेl मुसलमानों का सवाल विस्थापन और हिजरत से जुड़ा हुआ है इसलिए इसमें कोई शक नहीं की मुसलामानों के साथ होने के संयुक्त हित मौजूद हैंl लेकिन बुर्के के बचाव की हद तक निकल जाना और कुछ मुसलामानों की ओर से स्कूल और शैक्षणिक संस्थाओं में पुरुष व महिला के बीच अलगाव की मांग किया जाना शायद हद से गुज़र जाना हैl रुढ़िवादी अपने राजनीतिक सिद्धांतों के हवाले से इमानदारी का प्रदर्शन नहीं कर रहे हैंl एक कौम का बचाव करके वह एक सैद्धांतिक प्रणाली का बचाव करेंगे जिस पर दूसरी स्थिति में हर किसी को आलोचना करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिएl और यही इस समस्या की जड़ हैl हमें इस्लाम जो कि एक सैद्धांतिक प्रणाली है और मुसलामानों के बीच जिन की ताबीर गोश्त और खून के मूरत से की जाती हैl अंतर करने की आवश्यकता हैl और इस्लाम सहित किसी भी सैद्धांतिक प्रणाली पर आलोचना करने में किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए जबकि किसी एक पुरी कौम को रुसवा करने वाले की चौतरफा निंदा की जानी चाहिएl
दिमाग में इस अंतर को रखते हुए अब हम बोरिस जॉन्सन के उस घृणित रिमार्क की समीक्षा करते हैं जिसमें उसने यह कहा है कि नक़ाब पोश औरतें लेटर बॉक्स मालुम होती हैंl
पहली बात तो यह है कि उसका यह रिमार्क हेड इस्कार्फ़ प्रयोग करने वाली महिलाओं के लिए नहीं हैl इसलिए कि इस प्रकार के परदे में चेहरा दिखाई देता है और इंसानी नशिस्त व बर्खास्त और बात चीत संभव होती हैl खुलासा यह है कि यह एक inter-personal इंटर पर्सनल अर्थात पारस्परिक बात चीत हैl प्राकृतिक रूप से इस बात की उम्मीद की जाती है कि बात चीत करते समय लोग आँख से आँख भी मिलाएं ताकि पूर्ण रूप से बात और हालात की समझ हासिल हो सकेl जबकि पुरे चेहरे का पर्दा करने की स्थिति में बात चीत के बीच व्यधन उत्पन्न होता है इसलिए कि इस स्थिति में केवल आँखे ही दिखाई देती हैंl और जब ऐसा होता है तो बुर्का पोश खातून उसका चेहरा तो देख सकती है जिससे वह बात कर रही हैं लेकिन सामने वाले के साथ यह मामला नहीं होता हैl लेटर बॉक्स की तरह जिसमें एक बार अगर डाक डाल दिया जाए तो उसे निकाला नहीं जा सकता इसी तरह बुर्के में पुरी तरह ढकी हुई खातून के साथ बात करना वन वे ट्रैफिक की तरह हैl इसलिए इस तुलना में बुरी बात क्या है? यह तुलना बिलकुल सहीह हैl दूसरी बात यह है कि जॉनसन ने बुर्के को मुस्लिम महिलाओं के लिए ज़ुल्म व जबर का प्रतीक करार दिया हैl
जॉनसन की इस बात पर इस्लाम परस्तों और महिला अधिकारों के तथाकथित अलमबरदारों के अलावा और किसे कोई भी आपत्ति हो सकती हैl इस प्रकार के बुर्के को ज़ुल्म व जबर का प्रतीक करार देने की वजह यह है कि यह महिलाओं को दुसरे इंसानों की तरह बात चीत करने की आज़ादी से महरूम करता हैl
महिलाओं की आज़ादी की कई दहाइयां गुज़र जाने के बाद भी बुर्के के पीछे का सिद्धांत ज़िंदा है और वह यह कि महिलाएं एक “चीज” और एक व्यक्तिगत संपत्ति हैं जिन्हें दूसरों की नज़रों से छिपा कर रखने की जरूरत हैl महिलाओं से कभी यह सवाल नहीं किया जाता कि क्या वह भी खुद ऐसा चाहती हैं या नहींl मैं मानता हूँ कि कुछ महिलाएं धार्मिक आस्था के आधार पर ऐसा करना चाहेंगी: कि इस्लाम महिलाओं को एक ख़ास तरीके से वस्त्र धारण करने का आदेश देता हैl लेकिन इस स्थिति में वह बचाव नहीं हो सकताl ऐसी महिलाएं भी हैं जो कई तरीकों से पितृसत्तात्मकता को बरकरार रखती हैं और उसका अलमबरदार भी बनती हैंl इस स्थिति में क्या हम रुक जाएंगे और यह कहेंगे कि वह अपनी च्वाइस choice को काम में ला रही है और व्यक्तिगत च्वाइस choice का सम्मान किया जाना चाहिए? बिलकुल नहींl और सबसे पहले महिला अधिकारों के अलमबरदार मैस्क्युलिन masculine सिद्धांत के इंटरलाइज़ेशन internalisation के खिलाफ उठ खड़े होंगेl
इसलिए ऐसा क्यों है कि जब इस्लाम की बारी आती है तो यह महिला अधिकारों के अलमबरदार चुप हो जाते हैं? अगर इस्लाम बुर्का पहनने को जरुरी करार देता है जैसा कि इसके हिमायती कहते हैंl तो इस्लाम पर आलोचना सैद्धांतिक तरक्की होगीl आखिरकार कोई बुर्का पहनने के मज़हबी जवाज़ की समीक्षा किए बिना कैसे इस पर आलोचना कर सकता है?
जहां तक बोरिस जॉन्सन की बात है तो मैं ने कभी नहीं सूना कि उन्होंने कभी यह कहा हो कि मुसलमान जमीन पर गन्दगी की तरह हैं और उन्हें फेंक दिया जाना चाहिएl उन्होंने यह नहीं कहा कि सभी मुस्लिम महिलाएं लेटर बॉक्स की तरह दिखती हैंl उन्होंने जो कुछ भी कहा वह उन महिलाओं के लिए था जो बुर्का पहनती हैं और इस्लाम के नाम पर इसका बचाव करती हैंl उसने पुरी मुस्लिम उम्मत का मज़ाक नहीं बनाया बल्कि जिस चीज का उसने मज़ाक बनाया वह इस्लाम मज़हब का एक भाग हैl
अब अगर कोई यह कहता है कि वैसे भी इस्लाम पर आलोचना करना इस्लामोफोबिया है तो वह गलत हैl एक सिद्धांत के तौर पर इस्लाम या किसी और मज़हब की आलोचना करने की अनुमति होनी चाहिए अगर कोई ऐसा करना चाहेl इतिहास हमें यह बताती है कि हर जमाने में सिद्धांतों को आलोचना का निशाना बनाया गया है इसलिए कि आलोचना के माध्यम से ही सिद्धांतों की सुधार की जाती है और बुरे सिद्धांत को बाहर किया जाता हैl असल में आलोचना का यह रिवाज इस्लाम ने ही शुरू किया है: इस्लाम ने यहूदियत, ईसाइयत और बुत परस्ती के अन्दर मौजूद फसादों को आलोचना का निशाना बनाया हैl तो ऐसा क्यों है कि अब इस्लाम पर किसी भी आलोचना को नाकारत्मक संदर्भ में देखा जाता हैl क्यों लोगों को इस्लाम पर आलोचना का सिलसिला बंद कर दिया जाना चाहिए, इसकी हमें कोई ठोस वजह नहीं मिलतीl इस्लामोफोबिया के दानव का स्पष्ट उद्देश्य मज़हब को आलोचना के दायरे से बाहर लाना है जबकि इसका खुफिया उद्देश्य और शायद इसका सबसे महत्वपूर्ण सेवन आंतरिक आलोचना का दरवाज़ा बंद करना हैl अब हम इस्लाम के अन्दर सुधारों के लिए मांग उठते देख रहे हैं और मुसलामानों के बीच से ही इसके लिए एक मजबूत दावेदारी की जा रही हैl सऊदी अरब से ले कर बांग्लादेश तक मुस्लिम सुधारकों को या तो जेल में डाल दिया गया या उन्हें खत्म कर दिया गया हैl सबसे पहले सुधारवाद समाज के उपर बुनियाद परस्त इस्लाम पसंद और परंपरावादी conservatives की पकड़ को चैलेंज करने की कोशिश करती है, इसलिए आलोचना बुनियादी तौर पर एक राजनीतिक संघर्ष के अलावा कुछ भी नहीं हैl रुढ़िवादी आंतरिक और वाह्य दोनों स्तर पर अपने आलोचकों को ख़ामोश करने के लिए इस्लामोफोबिया का दानव काम में लाते हैंl अब समय आ चुका है कि लिबरल वर्ग इस्लामोफोबिया के इस पुरे रहस्य पर फिर से विचार करेl वह रुढ़िवादी इस्लाम का बचाव करके विकासवादियों को अकेला छोड़ रहे हैं और ऐसा करके वह इस मज़हब के कुछ बहुत गैर पसंदीदा और मकरूह प्रथाओं को रिवाज बख्श रहे हैंl
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