अरमान नियाज़ी, न्यु एज इस्लाम
23 जनवरी, 2013
आज इस्लामी जीवन के हर क्षेत्र में विश्वासघात और वादों के तोड़ने को देखना निराशाजनक है। आज के मुसलमानों के द्वारा अपने साथी मुसलमानों के साथ विश्वसघात करते और खुदा के साथ किए गए वादों को तोड़ते हर कदम पर देखा जा सकता है। मुसलमान अब ऐसी क़ौम नहीं रही जो अपने वादों पर कायम रहें जैसा कि उनका धर्म उन्हें वादों और ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की शिक्षा देता है। निम्नलिखित कुरान की आयत और हदीस इस्लाम में वादों को पूरा करने और ज़िम्मेदारियों को निभाने के महत्व पर ज़ोर देते हैं:
• ऐ ईमानवालों! ज़िम्मेदारियों को पूरा करो (5: 1)
• पैग़म्बर मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का फरमान है: “जो शख्स वादे का आदर नहीं करता उसका कोई मज़हब नहीं है।“
ज़िम्मेदारियों को पूरा करने का मतलब 'लिखित' या 'अलिखित' समझौतों के अनुसार अमल करना है। अक्सर हम ऐसे लोगों के साथ समझौते और वादे करते हैं जिनके साथ हमारा मामला व्यक्तिगत, भावनात्मक, कानूनी या आर्थिक स्तर पर होता है। हमारे वादे खुदा के साथ हैं जिन्हें हमें पूरा करना है।
हमारे और हमारे परिवार के सदस्यों के बीच के धार्मिक समझौतों भी पूरे नहीं किए जा रहे हैं। हम अपने बुज़ुर्गों के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल गए हैं अन्यथा दान पर चलने वाले वृद्धा आश्रम नहीं होते। यहां तक कि हम में से कई लोग नवजात बच्चों का भा खयाल नहीं रखते हैं और उन्हें विभिन्न कारणों से अनाथ आश्रमों के रहमो करम पर छोड़ देते हैं। जो लोग ऐसा करते हैं वो इनके प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं।
आधुनिक दौर के उलमा बंदों के अधिकार के बारे में भाषण देते हैं और क़ुरान और हदीस का हवाला देकर ये साबित करने की कोशिश करते हैं कि ये अल्लाह के हक़ से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। बंदों के अधिकार एक 'समझौता' और 'अनुबंध' है जिसे खुदा से डरने वाले लोगों के द्वारा पूरा किया जाना चाहिए।
अल्लाह ने इंसानों को कई बार उनकी ज़िम्मेदारियों की याद दिलाई है जिन्हें पूरा करना उनकी ज़िम्मेदारी है, जैसा कि निम्नलिखित आयत 4: 58 में दर्ज है:
• "अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके हक़दारों तक पहुँचा दिया करो। और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो, तो न्यायपूर्वक फ़ैसला करो। अल्लाह तुम्हें कितनी अच्छी नसीहत करता है। निस्सदेह, अल्लाह सब कुछ सुनता, देखता है"
हम अपने विवेक का इस्तेमाल करें और ये तय करें कि हम ख़ुदा और ज़मीन पर अपने भाइयों के साथ किए गए समझौते के तहत अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं या नहीं।
इस्लाम हमें खुदा, परिवार, समाज, देश, दोस्तों और यहां तक कि दुश्मनों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए एक संतुलित तरीके से एक खुशगवार जिंदगी जीने की शिक्षा देता है। दूसरों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए हम किसी को उसके अधिकारों से वंचित नहीं रख सकते। हमने अपने रोज़ाना के मामलों में खुदा के बंदो प्रति अपने कर्तव्यों के लिए नमाज़, 'रमज़ान के दौरान रोज़ा रखने' और 'शबे कदर' में इबादत करने आदि को बहाना बना लिया है।
ये एक बहस का विषय है कि सरकार या इस्लामी या अर्द्ध इस्लामी संगठनों में नौकरी करने वाले तबलीग़ी जमात के सदस्य तबलीग़ के लिए समय कैसे निकाल पाते हैं। तबलीग़ी जमात के ये 'माननीय सदस्य’ अपनी ज़िम्मेदारियों को नज़रअंदाज करते हुए तबलीग के लिए जाते हैं। किसी को किए गए वादे को तोड़कर या विश्वासघात करके कोई धार्मिक दायित्व पूरा नहीं किया जा सकता। पैग़म्बर मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने कहा है कि "जो अपना वादा पूरा नहीं करते उसका कोई धर्म नहीं है।" इस हदीस की रौशनी में हमें सभी परिस्थितियों में अपने धार्मिक और सामाजिक 'कर्तव्यों' को पूरा करना चाहिए।
दफ्तर के समय में मुसलमानों के एक वर्ग में नमाज़ अदा करने की प्रवृत्ति है। ऐसी कुछ मिसालें हैं कि ऐसे लोगों को अपने धार्मिक कर्तव्यों को अदा करने से रोक दिया गया है या उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया है।
धर्म की आड़ में लोग अपनी इबादत में समय को ज़्यादा लगाते हैं जिसके लिए उन्हें तनख्वाह दी जाती है। ये पूरी तरह इस्लामी मूल्यों के खिलाफ है और इस्लाम में इसे 'धोखाधड़ी' का अमल माना जाता है। इससे धर्म की बदनामी होती और न तो ये उनके अपने लिए अच्छा है।
अल्लाह के रास्ते में खिदमत करने का मतलब अपने कर्तव्यों को छोड़ना नहीं है और न ही अपने और नियोक्ता के बीच लिखित या अलिखित समझौते का उल्लंघन करना है।
हज़रत अली करमल्लाहू वज्हू के द्वारा लिखे गए एक खत का अंश यहाँ पेश है। मलिक अश्तर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के चाचा ज़ाद भाई अली बिन अबी तालिब करमल्लाहू वज्हू के बहुत ही वफादार साथियों में से एक थे। अश्तर नबी अकरम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के ज़माने में मुसलमान हो गए थे और उस्मान ग़नी रज़ियल्लाहू अन्हू के दौरे खिलाफत में मशहूर हुए:
"खुदा के आदेशों में से वादे को पूरा करने जैसा कुछ भी नहीं और दूसरे मतभेदों के बावजूद इस पर आमतौर पर सहमति है। दौरे जाहिलियत के दिनों के मूर्ति पूजा करने वाले भी अपनों के बीच ली गई शपथ का सम्मान करते थे क्योंकि वो शपथ तोड़ने का नुकसान जान चुके थे।"
हज़रत अली करमल्लाहू वज्हू से जुड़ा एक और कथन पेश है:
"अल्लाह अपने गुलामों से अच्छे काम के अलावा और कुछ भी स्वीकार नहीं करता, शपथ पूरी करने के अलावा उसकी अदालत में और कुछ भी स्वीकार्य नहीं है।"
मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ, अल्लाह हमें 'समझ' अता करे कि हम अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने और हम समझौतों पर खरा उतरने में सक्षम हो सकें, और जो भरोसा हमारे और हमारे साथी इंसानों पर किया जाना चाहिए हम उन पर खरे उतरने में सक्षम हों।
वल्लाहो आलमो बिस्सवाब (जो सच है खुदा उसे बेहतर जानता है)
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