आरिफ अनीस मलिक
24 जून, 2013
जब कई महीने पहले रेड क्रॉस के कार्यकर्ता खलील डेले की लाश क्वेटा के एक चारागाह से बरामद हुई तो उनके पुराने साथी खुद बखुद पुकार उठे, ''खलील अपनी मंजिल पर पहुंच गए।''
लंदन में नौ मुस्लिम अब्दुल हकीम (पुराना नाम टिम विंटर) ने पुराने दिनों और खलील मरहूम के जोश को याद किया। उन्होंने उस दिन का ज़िक्र किया जब अफगानिस्तान में उनका ड्राइवर गोली का निशाना बन गया। सोमालिया में रहने के दौरान झेली गई मुसीबतों को बयान किया, फिर वो पाकिस्तान के सबसे हिला देने वाले राज्य बलूचिस्तान में जा पहुंचे, जहां आजकल जाते हुए पाकिस्तानियों का पता भी पानी हो जाता है। अंततः वो तालिबान के हाथों अपनी जान हार गए, इस्लाम क़बूल करने वाला एक नया मुसलमान, मुसलमानों की खिदमत के जोश में हज़ारों मील सफर करने के बाद मुसलमानों का ही निशाना बन गया।
हालांकि ब्रिटेन सहित यूरोप के कई देशों में बहुत से विश्लेषक इस बात पर हैरान हैं, ''आखिर वो कौन सी चीज़ है जो इस्लाम के अंतर्राष्ट्रीय मीडिया पर नकारात्मक प्रचार (इस्लामोफ़ोबिया), चरमपंथी मुस्लिमों की पकड़े जाने लायक परंपरा और मुसलमानों के खिलाफ मामूली माहौल के बावजूद यूरोपियन क्यों बड़ी संख्या में इस्लाम की ओर आकर्षित हो रहे हैं?
पिछले हफ्ते टोटिंग के इस्लामी सेंटर में लॉरेन बूथ का भाषण सुनने के लिए गया, तो टोनी ब्लेयर के नई मुसलमान हुई साली को सुनने के लिए विशाल हॉल भी छोटा पड़ गया। उनकी ये बात काफी खुलासा करने वाली थी कि ब्रिटेन में नौ मुस्लिमों की संख्या एक लाख को पार कर चुकी है। सबसे बढ़कर ये कि नौ मुस्लिमों की बड़ी संख्या (70 प्रतिशत) गोरी महिलाओं की थी जिनमें सामान्य उम्र 27 साल के लगभग पाई गई थी।
मैंने उनकी ज़बान से ये बात सुन्ने के बाद उनको सुनने वालों के चेहरों पर खुशी देखी और कई लोगों ने तो नारए तकबीर की सदा बुलंद कर दी थी।
''यही चीज़ तो मुझे रुलाती है। इमरान खान की पूर्व दोस्त, एमटीवी की मशहूर मेहमान और 'एमटीवी टू मक्का' की मशहूर लेखिका क्रिस्टियन बेकर ने अपना माथा मसलते हुए मुझे बताया था, ''एक गोरी औरत खास तौर पर वो पढ़ी लिखी और कामयाब हो तो वो सभी मुसलमानों के लिए एक 'ट्रॉफी' का रूप ले लेती है। क्रिस्टल की ट्राफी जिसको हर कोई हाथ में उठाए, उसके साथ तस्वीर बनाना चाहता है, लेकिन इससे ज़्यादा वो किसी काम की नहीं। इसमें तो पानी भी नहीं पिया जा सकता।''
''काम की? ..... मैंने सवालिया नज़रों से क्रिस्टीन की तरफ देखा।
हां ....... काम की। क्रिस्टीन ने लड़ाकों के अंदाज़ में जवाब दिया। सबसे पहले तो ये कि स्पैनिश, जर्मन, फ्रेंच और अंग्रेज़ी बोलने वाली पढ़ी लिखी लड़कियां जब मुसलमान होती हैं तब उनको पता चलता है कि अब उन्हें किसी मसलक (पंथ) में भी दाखिल होना होगा। जब वो इस्लाम की प्रैक्टिस के लिए मार्गदर्शन चाहती हैं तो मालूम होता है कि मौलवी साहब को तो उर्दू, बांग्लादेशी या हिन्दी आती है। अच्छा रिश्ता इसलिए नहीं मिलता कि पढ़ी लिखी और ऊंची नाक की मालिक गोरी को कंट्रोल करने के डर से अक्सर लोग बिदक जाते हैं। बहुत कम घर की खूँटी से बंधने को प्राथमिकता देंगीं। उन्हें दबाना भी थोड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि वो अपने अधिकारों से अच्छी तरह अवगत होती हैं।''
''तो फिर उनके साथ क्या होता है?'' मैंने परेशान होकर पूछा।
''अच्छा, इस्लाम क़ुबूल करने के हनीमून पीरियड के बाद वास्तविकता की कड़वाहट गले से नीचे उतरने लग जाती हैं। अक्सर नयी मुसलमान हुई लड़कियां फ्रस्टेशन और डिप्रेशन का शिकार हो जाती हैं। सोशल लाइफ न होने के बराबर होती है। मैं काफी लड़कियों को जानती हूँ जो इस दबाव के आगे हार गईं और वापस अपने पिछली ज़िंदगी की तरफ पलट गईं। लेकिन ये संख्या पर्सेन्टेज के हिसाब से बहुत कम है।''
नये मुसलमानों के हवाले से बचपन से सजी उँचाई पर पड़ी हुई मूर्ति छन से नीचे गिरी और टुकड़ों में बंट गई।
बाद में कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी में नये मुसलमानों पर की गई एक शोध में शामिल हुआ तो पता चला कि समस्याएं इससे कहीं अधिक जटिल हैं। इस्लाम स्वाभाविक रूप से यूरोपियों को अपनी ओर खींचता है। वो इंटरनेट और अन्य स्रोतों से अपने अंदर की आवाज़ का पीछा करने में सच्चाई को ढूंढते इस्लाम तक आ पहुंचते हैं। लेकिन इस्लाम क़ुबूल करने के बाद असली चुनौती से सामना होता है। उन्हें पता होता है कि धर्म के अलावा सांस्कृतिक प्रभाव सामान्यतः समाज को भरपूर तरीके से प्रभावित करते हैं। उन्हें वो मुसलमान मिलते हैं जो झूठ बोलते, व्यभिचार करते, मुनाफिक़त (पाखंड) को बढ़ावा देते नज़र आते हैं। फिर सांप्रदायिकता की भूल भुलैय्या उन्हें उलझाती हैं। आमतौर पर देखा गया कि नस्ली मुसलमान इनके लिए तालियां तो बजाते हैं, लेकिन उन्हें अपनी ज़िंदगी में शामिल नहीं करते, इसलिए बहुत सी नई मुस्लिम महिलाएं अकेली और मुश्किल ज़िंदगी का सामना कर रहीं थीं।
कुछ ऐसा ही माजरा तब पेश आया जब ऑक्सफोर्ड की पढ़ी लिखी और लंदन की मेयर बोरिस जॉनसन से शादी के बाद तलाक़ लेने वाली अलेग्रा ने खुद से आधी उम्र के लाहौरी नौजवान से शादी की, क्योंकि उसके विचार में यही सम्भव था।
बहुत सी स्वीडिश, फ्रेंच और गोरी नई मुस्लिम महिलाओं से इंटरव्यु करते हुए बहुत सी नई चीज़े सामने आईं। एक तो उभरता हुआ ट्रेंड, जिसमें अधिकांश नये मुस्लिम अपना पुराना नाम बदलते नहीं थे। इसका सामान्य कारण 9/11 के बाद पश्चिम में मुसलमानों के खिलाफ बढ़ता हुआ पूर्वाग्रह है। एक और बात खुसफुसाहट में कही गई और वो ये कि प्रभावी स्थानों पार्लियमेंट, मीडिया, एकेडमिक, इकानमी, राजनीति और दूसरे अग्रणी लोग मुसलमान हो चुके हैं, लेकिन सामने आने से परहेज़ कर रहे हैं। ये भी मालूम हुआ है कि ईरान और सऊदी अरब नौ मुसलमानों पर 'इन्वेस्टमेंट (निवेश)' करने वाले दो बड़े देश थे और वजह ज़्यादा से ज़्यादा ''ट्राफियों'' को हासिल करना था।
एक काफी आश्चर्यजनक ख़बर चरमपंथी संगठनों में मुसलमान औरतों या मर्दों के समर्थन के लिए बहुत ''कम्पटीशन'' था जिसकी वजह ये बयान की गयी कि एक गोरा नया मुसलमान जब जिहाद के लिए बंदूक उठाता है तो उसके पीछे एक हज़ार मुसलमान मरने के लिए तैयार हो जाते हैं।''
मुझे बहुत सालों पहले अशफ़ाक़ मुनीर के ड्राइंग रूम में सुनी वो बात याद आई जब मैंने उनकी बीमारी के बावजूद उनका चार घंटे लंबा इंटरव्यु किया था और बानो आपा धमकी भरे अंदाज़ में बार बार ड्राइंग रूम के चक्कर काटती थीं।
अशफ़ाक़ मुनीर ने कहा था, ''इस्लाम का पुनुरुद्धार अगर होगा तो यूरोपीय और अमेरिकी गोरों से होगा जो मुसलमान होंगे, जो मेरी और आपकी तरह मुनाफिक़ (कपटी) नहीं होंगे, झूठ न बोलेंगे, धोखा न देंगे, यूं मुसलमान तो होंगे पर ज़रा ''दूसरे टाइप'' के मुसलमान होंगे। यही लोग इस उम्मत को आगे लेकर जाएंगे।''
आजकल जब मैं लंदन में इस्लाम क़ुबूल करने के हवाले से कोई बड़ी खबर सुनता हूँ तो दिल ही दिल में बड़बड़ाता हूँ, ''तेरा क्या बनेगा कालिया? ''
24 जून, 2013 स्रोत: रोज़नामा एक्सप्रेस, मुल्तान
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