गुमनाम
23 जून, 2012
(अंग्रेज़ी से तर्जुमा- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
पसमांदगी के तोक़ से आज़ाद कराने के लिए, मुस्लिम तब्क़े के रहनुमाओं को हाईकोर्ट के फ़ैसले पर सवाल करना चाहीए जो 15 साला लड़की की शादी को जायज़ ठहराता है।
9 मई को जब दिल्ली हाईकोर्ट ने अजीबो ग़रीब और रुजअत पसंदाना फ़ैसले दिया था जिसमें कहा था कि 15 साला मुस्लिम लड़की की शादी क़ानूनी थी, उस वक़्त ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड (AIMPLB) इस फ़ैसले का इस्तक़बाल करने वालों में पहला था। अगर एक लड़की जिसे स्कूल जाना चाहिए और ज़िंदगी के लिए ज़रूरी हुनरमंदी सीखना चाहिए, इसके बजाय अगर उसे पहले ही हैज़ के वक़्त शादी के बंधन में बांध दिया जाय ताकि वो बच्चा पैदा करने की अपनी सलाहियत के लिए इसका इस्तेमाल कर सके और ये AIMPLB में जोश पैदा करता है, तो क्या उन्हें मुसलमानों की पसमांदगी की शिकायत करने का हक़ है?
ये क़ाबिले बहस है कि 15 साल और 10 माह की उम्र बहुत कम नहीं होती है, इसे मद्दे नज़र रखते हुए कि कई लड़कियाँ इस उम्र तक पहुंचते ही जिन्सी तौर पर फ़आल हो जाती हैं। लेकिन फ़ैसले का बग़ौर मुताला करने पर पता चलता है कि, एक मुसलमान लड़की कब क़ानूनी तौर पर शादी कर सकती है, अदालत ने उम्र को बेंच मार्क नहीं बनाया, बल्कि जब किसी लड़की को हैज़ के अय्याम शुरू होते हैं और दीगर जिस्मानी तब्दीलियाँ वाक़े होती हैं, इन्हें शादी की उम्र का ताय्युन करने का अंसर माना है। जैसे एक पालतू जानवर जिसे हम बाख़ुशी इजमा के लिए उसकी ज़रूरत के मौक़ पर भेजते हैं। ये बुरा लगता है? और ये है।
ये बिल्कुल वैसा ही है जिस तरफ़ हाईकोर्ट का फ़ैसला ले जा सकता है, जो तहज़ीबी नसबतियत के नाम पर तज्वीज़ करता है कि मोहम्मडन ला के मुताबिक़, अगर एक लड़की सने बलोग़त को पहुंच चुकी है तो वो अपने वालदैन की मर्ज़ी के बगै़र शादी कर सकती है और यहां तक कि अगर उस की उम्र 18 साल से कम है तो भी उसे अपने शौहर के साथ रहने का हक़ है।
अब इसके मुज़म्मिरात पर ग़ौर करें। ये इम्कान है कि, एक और अदालत मुस्तक़बिल में इस तरह एक मुसलमान औरत को बदकारी के लिए रज्म या चोरी के इल्ज़ाम में एक मुसलमान के हाथ काटने की ग़ैर इंसानी सज़ा देने के लिए मोहम्मडन ला का इस्तेमाल करने का फ़ैसला कर सकती है।
सने बलोग़त की उम्र मुसलसल कम होती जा रही है, इस तरह ये फ़ैसला बहुत जल्द नौ साल की उम्र में नौजवान लड़कियों की शादी के लिए राह हमवार कर सकता है। अगर मज़हबी हस्सासियत को एक तरफ़ रख दिया जाय, तो सने बलोग़त को पहुंचे वाली लड़कियों की शादी को क़ानूनी कहना इस्मतदरी को जायज़ कहने के बराबर है।
ये फ़ैसला दो बुनियादी सवालात पैदा करता है और जिसे पूछा जाना चाहिए कि अगर हिंदुस्तान अपने तमाम शहरियों को मसावात और उनके साथ मसावी सुलूक करने के हक़ को यक़ीनी बनाना चाहता है तो, क्या मुसलमान लड़कियां इंसान नहीं हैं? या हिंदुस्तान में मुसलमान हिंदुस्तानी नहीं हैं? ये अलमिया है जिस वक़्त हिंदुस्तान बच्चों के जिन्सी इस्तेहसाल को ख़त्म करने और जिन्सी ताल्लुक़ात के लिए रजामंदी की उम्र को 16 से 18 साल बढ़ाने की कोशिश कर रहा है उस वक़्त हाईकोर्ट के फ़ैसले ने ये तय किया है कि मुसलमान लड़कियों को ऐसे किसी भी क़ानूनी तहफ़्फ़ुज़ की ज़रूरत नहीं है।
ये इस तरह की नौजवान लड़कियों की हालते ज़ार थी कि चाइल्ड मैरेज रिस्ट्रेंट ऐक्ट, 1929, को लागू किया गया जो लड़कियों और लड़कों की शादी की कम से कम उम्र मोक़र्रर करता था, लेकिन खासतौर पर इसकी क़ानूनी शिक़ों से मुतास्सिर शादी की क़ानूनी हैसियत पर असर डाले बगै़र ये सिर्फ़ जुर्माना ही आयद करता था। ये वही बचने का रास्ता है जिसका फ़ायदा हाईकोर्ट के हालिया फ़ैसले ने उठाया है और जो नौजवान लड़कियों को जिन्सी इस्तेहसाल के ख़तरे में डालता है। जिसे भी नौ उम्र लोगों की जिन्सी सेहत के बारे में माक़ूल तफ़्हीम होगी, वो जानते हैं कि बहुत कम उम्र में जिस लड़की की शादी हो जाती है तो उसके हमल रोकने वाली दवाईयों के इस्तेमाल के इम्कान बहुत कम होते हैं और उसके हामिला होने के इम्कान ज़्यादा होते हैं और ऐसे में बच्चे को जन्म देने के लिए ना तो उसका जिस्म और ना ही ज़हन तैय्यार होता है। इसके इलावा, ये उस की तालीम, सेहत, और बहबूद के हक़ से भी उसे महरूम करता है।
हाईकोर्ट का रुजअत पसंदाना फ़ैसला नौजवान मुस्लिम लड़कियों को जिन्सी इस्तेहसाल के ख़तरे में डालता है।
जायज़ों से से पता चलता है कि तालीमी इदारों में मुसलमान तालिबे इल्मों की शिराकत की सतह जितनी होनी चाहिए उसकी एक चौथाई है। सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी मुसलमानों की शदीद पसमांदगी पर रौशनी डालती है। रिज़र्वेशन समेत ये हुकूमतों को पूरा करने के लिए कई सिफारिशें करती है, लेकिन ये ख़ुद मुसलमान तब्क़े और ख़ुदसाख़्ता इसके तर्जुमानों के लिए कोई सिफ़ारिश क्यों नहीं करती है? मुस्लिम तबक़े में राइज समाजी व सक़ाफ़्ती रस्मो रिवाज जो उनकी तरक़्क़ी की राह में रुकावट हैं, क्या इन में बाहर से तब्दीली की जा सकती है जब तक कि तब्क़े में ही ख़ुद इसके लिए ख़्वाहिश और समझ ना हो? सक़ाफ़ती तहफ़्फ़ुज़ के नाम पर एक नौजवान लड़की को शादी की इजाज़त दे दी जाती है और जब उसे ख़ुद स्कूल में होना चाहिए तब वो बच्चे पैदा करना शुरू कर देती है, तो वो ख़ुद किस तरह की तालीम अपने बच्चों को दे सकती है? जब इसके अपने जिस्म में तब्दीली हो रही हो और उसे ग़िज़ा की ज़रूरत हो तो उन बच्चों की सेहत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, जिन्हें वो जन्म देगी? कमसिन लड़कियों की शादी को जायज़ ठहरा कर ऐसा लगता है कि हाईकोर्ट ने खु़फ़िया तौर पर ऐलान किया है कि मुस्लिम लड़कियाँ कमतर मख़लूक़ हैं, जिनके हुक़ूक़ से उनके मज़हबी तशख़्ख़ुस के नाम पर समझौता किया जा सकता है।
क्यों मैं अपना नाम ज़ाहिर करने से डर रहा हूँ, अब इसके बारे में एक मुख़्तसर वज़ाहत पेश है। हिंदुस्तान में या तो आप सेकुलर हैं (पढ़ें: हिंदूओं को बुरा भला कहने वाला) या आरएसएस के कारकुन (पढ़ें: मुसलमानों के ख़ून का प्यासा)। मुस्लिम या दूसरी अक़ल्लियतों की बात ही मत कीजिए, यहां सोच बिचार करने वाले हिन्दू के लिए भी कोई जगह नहीं है जो मिसाल के तौर पर नौजवान मुसलमान लड़कियों पर लागू दोहरे मेयार की वजह जानना चाहता हो जबकि इन लड़कियों की जिस्मानी साख़्त दीगर हिंदुस्तानी लड़कियों और औरतों के जैसी ही है? मुसलमानों को गुजरात के फ़सादाद से बाहर निकलने के लिए कहने वाली आख़िरी ऐसी आवाज़ की हालते ज़ार को लोग अच्छी तरह से जानते हैं। मेरे खयालात का ताय्युन, मैं कौन हूँ, से किया जाएगा। अगर मैं एक हिन्दू हूँ, तो मुसलमानों से नफ़रत करने वाले के तौर पर मेरे ख़्यालात को फ़ौरी तौर पर मुस्तरद कर दिया जाएगा। अगर में एक मुसलमान हूँ, और अगर मेरे ख़्यालात में मज़ीद क़ानूनी जवाज़ भी हों तब भी इसकी तज़हीक मुम्किन हो सकती है। मेरे लिए ये अहम है कि मेरी शनाख़्त का साया, मेरे ख़्यालात की दुरूस्तगी को तबाह नहीं करता है। लिहाज़ा मैंने गुमनाम रहने का फ़ैसला किया।
इस कालम में ज़ाहिर किए गए ख़यालात मुसन्निफ़ के अपने हैं।
गुमनाम मुसन्निफ़ बच्चे के हुक़ूक़ के अलमबरदार हैं।
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