संपादकीय
5 नवम्बर, 2013
संपादकीय हम लिख चुके थे लेकिन पेशावर चर्च की दिल दहला देने वाली घटना सामने आई जिसकी वजह से इसे बदलना पड़ा। आज कल क़ौम का मिज़ाज कुछ इस तरह का हो गया है कि इंसान की लिखाई तो क्या, अल्लाह की लिखाई को भी ध्यान देने योग्य नहीं समझा जाता है। खुदा का इरशाद है,- मन क़त्ला नफ़्सन बेग़ैरे नफ़्सिन अव फसादिन फिल अर्दे फकाअन्नमा क़त्लन्नासा जमीआ वमन अहयाहा फकाअन्नमा अहयन्नासा जमीआ (5- 32) जिस किसी ने खून के बदले खून और ज़मीन पर फसाद फैलाने वालों के अलावा किसी और का क़त्ल किया, उसने मानो पूरी इंसानियत को क़त्ल किया और अगर किसी की जान बचाई तो उसने मानो पूरी इंसानियत को ज़िंदगी बख़्शी। ये तो हुई अल्लाह के यहां इंसानी जान की अहमियत। कृप्या अल्लाह के यहां इबादतगाहों की अहमियत पर ध्यान दें-
वलौला दफउल्लाहिन्नासा बोदोहुम बेबादिल लहुद्देमत सवामेओ वबेयओ वसलावातो वमसाजेदो योज़क्केरो फीहस्मुल्लाहे कसीरन वलायंसोरन्नल्लाहो मन यंसोरोहो इन्नल्लाहा लक़वीयुन अज़ीज़ (22- 40) अगर अल्लाह लोगों को एक दूसरे के ज़रिए से न हटाता रहता तो ये खानकाहें, चर्च, सिनागॉग और मस्जिदें जिनमें अल्लाह का नाम लिया जाता है, ढहा दी जातीं। मस्जिदों के साथ चर्च, सिनागॉग की चर्चा और फिर ये कहना कि इनमें अल्लाह का नाम बार बार लिया जाता है ये इस बात की दलील है कि मुसलमानों को अहले किताब की इबादतगाहों को आदर और सम्मान से देखने की शिक्षा दी गई है।
मुसलमानों और अहले किताब यानी ईसाइयों और यहूदियों के बीच तो कभी विवाद होना ही नहीं चाहिए था। हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम नबियों की आकाशगंगा के एक चमकते हुए सितारे हैं। कुरान हमें इस बात की शिक्षा देता है कि अहले किताब के साथ संयुक्त मोर्चा बनाएं, उन्हें आमंत्रित करें (या अहलल किताब तआलू अला कल्मतः सवाअ) और वो बातें जो हमारे और उनमें साझा हैं उन पर चर्चा करें। कुरान ने हमें स्पष्ट रूप से बताया है कि- लयसू सवाअम मन अहलल किताबे उम्मतुन क़ायमतुन यतलूना आयातिल्लाहे अनाअल्लैले वहुम यसजोदून (3- 113) इनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सीधे रास्ते पर हैं, रातों को अल्लाह की आयतें पढ़ते हैं। मुसलमानों को अल्लाह ने स्पष्ट रूप से अहले किताब की औरतों से निकाह करने की इजाज़त दी है।
जब नजाशी की मौत की खबर मदीना पहुंची तो कहा जाता है कि आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को बड़ा दुख हुआ और आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने ग़ायबाना नमाज़े जनाज़ा पढ़ी। हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने सहाबा से फरमाया कि आज तुम्हारा एक भाई मर गया। इनके यहां का खाना अल्लाह ने मुसलमानों के लिए जायज़ ठहराया। हिजरत के वक्त मुसलमानों को हब्शा के शाह ने पनाह दी थी और इज़्ज़त से पेश आए थे।
मगर चर्च में धमाका करने वाले ये औचित्य पेश करते हैं कि ईसाई अमेरिका जो हमारे गांव के गांव तबाह कर रहा है, बच्चों, औरतों, बूढ़ों को नहीं छोड़ रहा है। उसे इंसानियत का पाठ क्यों नहीं पढ़ाते। आखिर हम अपने घर बार छोड़ कर कहां जाएं। बेहतर है कि ताक़त के नशे में चूर अमेरिका भी मुसलमानों को माफ कर दे ताकि लोग शांति से जीवन बिता सकें।
नवम्बर, 2013, स्रोत: मासिक सौतुल हक़, कराची
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