ऐमन रियाज़, न्यु एज इस्लाम
7 जून, 2012
(अंग्रेज़ी से तर्जुमा- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
2003 में आला सतह के सऊदी अरब के एक क़ानूनदां, शेख़ सालेह इमाम अलफ़ौज़ान ने एक फतवा जारी किया जिसमें उन्होंने दावा किया कि "गु़लामी इस्लाम का एक हिस्सा है। गु़लामी जिहाद का हिस्सा है, और जिहाद तब तक बाक़ी रहेगा जब तक कि इस्लाम है।" उन्होंने अलग राय रखने वाले मुस्लिम उल्मा की तन्क़ीद की और अपनी बात पर क़ायम रहे कि," वो जाहिल हैं, उल्मा नहीं हैं... वो महेज़ लिखने वालों में से हैं। लिहाज़ा जो भी इस तरह की बातें कहता है वो काफ़िर है।"
क्या ये इस "इस्लामी" माहौल में कोई ताज्जुब की बात है तब जबकि एक हिंदूस्तानी तमिल पेरियासामी जैसे की कहानी अक्सर सामने आती है। आईए हम चंद सेकेण्ड पेरियासामी की कहानी सुनने के लिए सर्फ करें और सऊदी अरब के जानवर सिफ़त इंसान के ज़रिए उसकी ज़िंदगी तबाह करने पर मातम करें, सऊदी अरब के ये लोग ख़ुद को सबसे ज़्यादा ख़ालिस मुसलमान कहते हैं। हम इस बात को भी अपने ज़हनों में रखें कि पेरियासामी उन बहुत से लोगों में से एक है जिनकी ज़िंदगियों को इस तरह से इस्लामी ममालिक के मुक़ाबले इस मुक़द्दस मुल्क में ज़्यादा तबाह किया जा रहा है। पेरियासामी तब सिर्फ 28 साल का था जब इसने तमिलनाडू में अपनी बेहतरीन ज़िंदगी और अपनी बीवी को सऊदी अरब के एक अमीर ज़मींदार की बकरी और ऊंटों की देख भाल करने की पुरकशिश तनख़्वाह वाली नौकरी के वादे पर छोड़ दिया था। लेकिन एक बेहतर ज़िंदगी के वादे ने इससे इसकी ज़िंदगी के 20 साल और इसकी बीवी छीन ली, और अब वो जिस्मानी, इक़्तेसादी, नफ़्सियाती और समाजी तौर पर पहले से और भी ज़्यादा बदतर हालत में है।
ये अलमनाक कहानी कई हिंदुस्तानी तारकीने वतन मज़दूरों के हालात पर रौशनी डालती है जो मज़दूरों के सौदागरों के अच्छी उजरत के झूठे वादा पर ख़लीजी ममालिक में जाते हैं। उन्हें ग़ुलाम तो नहीं कहा जाता है लेकिन असल में उनके साथ वैसा ही बरताव किया जाता है।
ज़्यादा तर मुहाजिर मज़दूर नाख़्वान्दा होते हैं, लिहाज़ा उनको बेवक़ूफ़ बनाना आसान होता है और मज़दूरों के सौदागरों के ये आसान शिकार हो जाते हैं। पेरियासामी का मुआमला भी ऐसा ही था, वो पढ़ा लिखा नहीं था और धोके से उससे 20 साल के लिए मज़दूरी के बांड पर दस्तखत करा लिया गया। अगले 17 साल के लिए उसका पासपोर्ट क़ब्ज़े में कर लिया गया, उसे कोई तनख़्वाह नहीं दी गई और उससे अलस्सुबह से आधी रात तक काम लिया जाता था और दिन भर में सिर्फ एक वक़्त खाना दिया जाता था।
पेरियासामी को मुलाज़िम रखने वाले शख़्स के एक पड़ोसी ने उसकी गिरती सेहत को देख कर मुक़ामी हुक्काम को मतला किया, जिन्होंने हिंदूस्तानी कौंसिल ख़ाने को बताया। उसकी हिंदूस्तान वापसी में ताख़ीर हुई क्योंकि उसे अपने गांव की तफ़सीलात याद नहीं रह गईं थीं। पेरियासामी, जो सोचा करता था कि वो क़ज़्ज़ाक़ अरबों के चंगुल से बाहर नहीं निकल पाएगा। उसकी ख़ुशी के ऑंसूं कड़वाहट में तब्दील हो गए जब उसे पता चला कि इतने सालों तक इंतेज़ार के बाद उसकी बीवी ने अपने ख़ानदान वालों के दबाव में गुज़श्ता साल शादी कर ली।
सऊदी अरबः गु़लामी का एक मर्कज़
सऊदी अरब में जबकि गु़लामी बाज़ाब्ता तौर पर गै़रक़ानूनी है, मुनज़्ज़म मुजरिमों के गिरोह बच्चों, जाहिल मर्दों और ख़ूबसूरत औरतों की सऊदी अरब में स्मगलिंग करते हैं जहां उन्हें ग़ुलाम बना कर रखा जाता है और उनका इस्तेमाल जिस्मानी लुत्फ़ के लिए किया जाता है और उन्हें भिखारियों के तौर पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। जब उनकी हालते ज़ार दरियाफ़्त हो जाती है तो उन्हें गै़रक़ानूनी ग़ैर मुल्की के तौर पर जिलावतन कर दिया जाता है।
अमेरीका के महकमए ख़ारजा के मुताबिक़, "सऊदी अरब, जुनूबी और मशरिक़ी एशिया और मशरिक़ी अफ़्रीक़ा से मर्दों और ख़वातीन का बतौर मज़दूर इस्तेहसाल करने का मर्कज़ है और यमन, अफ़ग़निस्तान, और अफ़्रीक़ा के बच्चों को जबरी भीख मांगने के लिए यहां स्मगल किया जाता है।"
पूरी दुनिया से कम हुनरमंद मज़दूर खासतौर से हिंदुस्तान, इंडोनेशिया, फ़िलपाइन, श्रीलंका, बंग्लादेश, इथोपीया, अरीट्रिया, सोमालिया और कीनिया से रज़ाकाराना तौर पर सऊदी अरब हिज्रत करते हैं, कुछ ग़ैर इरादी तौर पर गु़लामी की हालत से दो चार हो जाते हैं और जिस्मानी व जिन्सी इस्तेहसाल का शिकार होते हैं, उजरत की अदमे अदाइगी या ताख़ीर से अदायगी, सफ़री दस्तावेज़ात को मुलाज़िम रखने वाला शख्स अपने पास रोक कर रखता है, उनके कहीं भी आने जाने पर पाबंदी होती है और बगै़र रजामंदी के मुआहिदा में तब्दीली हो जाती है।
असल में क़ुरान क्या कहता है?
ये ताज्जुब की बात नहीं है कि एक ऐसे मुल्क में जहां नाम निहाद इस्लामी उल्मा किराम, गु़लामी को मज़हब का अहम हिस्सा मानते हैं, और जिहाद के जैसा ज़रूरी मानते हैं, जिसे वो इस्लाम का छटा सुतून कहते हैं। ताहम, जो कुछ भी सऊदी इस्लाम या वहाबी इस्लाम की तालीमात हो, जिस पर वो लोग अमल करते हैं, लेकिन मर्कज़ी धारे के मुसलमानों को ये मालूम होना चाहीए कि इस्लाम इस तरह के अमल से मुसलमानों को बाज़ रखने की हर मुम्किन कोशिश करता है और गुलामों को आज़ाद करने और ख़ुदा की रज़ा हासिल करने की हौसला अफ़्ज़ाई करता है। क़ुरान कई मक़ामात पर गु़लामी के ख़िलाफ़ बोलता है, सातवीं सदी के अरब के रेगिस्तान में मौजूदा रिवाज के मुताबिक़ ऐसे ग़ुलाम जो जंग में माले ग़नीमत के तौर पर पकड़े गए हों.. इनको आज़ाद करने, उनके साथ हुस्ने सुलूक करने की ताकीद करता है, मुतअद्दिद मवाक़े पर हमारे नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने गुलामों को ख़रीदा और उन्हें आज़ाद किया है। मालिकों के ज़रिए गुलामों को आज़ाद करने को क़ुरान और हदीस ने काबिले तारीफ़ अमल बताया है। गुलामों को आज़ाद करने के लिए उन्हें ख़रीदना सुन्नते रसूलल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम है।
मरे गोर्डन, जिन्होंने इस मौज़ू पर वसी पैमाने पर तहक़ीक़ किया है, उनका कहना है कि: " एक मुत्तक़ी और परहेज़गार मुसलमान और साथ ही ग़ुलाम के मालिक के दरमियान कोई तज़ाद नहीं था"। वो दुरुस्त फ़रमाती हैं, लेकिन आज की दुनिया में उनका नतीजा क़ाबिले इतलाक़ नहीं है। हलाल गु़लामी, दो मिसालों तक महदूद है: जंग में पकड़ा गया (शर्त है कि क़ैदी मुसलमान ना हो), या गु़लामी में पैदा हुआ हो।
मौजूदा मंज़र नामे में किसी भी इंसान को ग़ुलाम बनाना ना सिर्फ गै़रक़ानूनी है बल्कि ग़ैर इस्लामी भी है।
इस्लाम में सबसे बेहतरीन नेकी जो एक शख़्स को दूसरे से मुम्ताज़ बनाती है, वो तक़्वा या परहेज़गारी है। क़ुराने करीम तक़्वे की वज़ाहत इस तरह करता है। बाब 2, आयत 177 में अल्लाह ताला पुरज़ोर तरीक़े से फ़रमाता है:
" नेकी सिर्फ यही नहीं कि तुम अपने मुंह मशरिक़ और मग़रिब की तरफ़ फेर लो बल्कि असल नेकी तो ये है कि कोई शख़्स अल्लाह पर और क़यामत के दिन पर और फ़रिश्तों पर और (अल्लाह की) किताब पर और पैग़म्बरों पर ईमान लाए, और अल्लाह की मोहब्बत में (अपना) माल क़राबत दारों पर और यतीमों पर और मोहताजों पर और मुसाफ़िरों पर और मांगने वालों पर और (गुलामों की) गर्दनों (को आज़ाद कराने) में ख़र्च करे, और नमाज़ क़ायम करे और ज़कात दे और जब कोई वादा करें तो अपना वादा पूरा करने वाले हों, और सख़्ती (तंगदस्ती) में और मुसीबत (बीमारी) में और जंग की शिद्दत (जिहाद) के वक़्त सब्र करने वाले हों, यही लोग सच्चे हैं और यही परहेज़गार हैं"।
और बाब 90 में अल्लाह ताला का कहना है कि:
"और आप क्या समझे हैं कि वो (दीने हक़ के मुजाहिदा की) घाटी क्या है।"
वो (गु़लामी व मह्कूमी की ज़िंदगी से) किसी गर्दन का आज़ाद कराना है।"
या भूख वाले दिन (यानी क़हत व इफ़्लास के दौर में ग़रीबों और महरूम अलमईशत लोगों को) खाना खिलाना है"।
हज़रत अब्बू हुरैरा रज़ियल्लाहू ताला अन्हा से रिवायत है कि नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि, " जो शख़्स किसी ग़ुलाम को आज़ाद करता है, अल्लाह उसके जिस्म के तमाम हिस्से को आग से बचाएगा, जैसा उसने ग़ुलाम के जिस्म के हिस्सों को आज़ाद किया है।" (बुख़ारी, जिल्द 3, हदीस नम्बर 693)
अगर ये इस्लाम है जिस पर कि आला सतह के सऊदी अरब के क़ानूनदां शेख़ सालेह इमाम अलफ़ौज़ान यक़ीन रखते हैं तो उन्हें इस फतवे को जारी नहीं करना था जो गु़लामी को इस्लाम का हिस्सा कहता है, जिहाद का एक हिस्सा कहता है और ये तब तक रहेगा जब तक कि इस्लाम रहेगा। और ना वहाबी इस्लाम के मर्कज़ सऊदी अरब को अपने मुल्क में गु़लामी पर अमल को फ़रोग़ देने की इजाज़त देनी थी।
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