अरशद आलम, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
25 जनवरी 2022
अधिकतर मुसलमान इस उलझन में हैं कि क्या वह किसी ऐसी चीज को
बदल सकते हैं जिस पर खुद नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अमल किया था।
प्रमुख बिंदु:
एनसीपीसीआर ने देवबंद की गोद लेने पर उनके स्टैंड की आलोचना
की है।
देवबंद की लम्बे समय से यही दलील रही है कि गोद लिए हुए बच्चे
अपने हकीकी बच्चे जैसे नहीं होते।
इस्लाम के पैगम्बर ने अपने एक गोद लिए बेटे की बीवी से शादी
की।
अक्सर मुसलमान इसी उलझन का शिकार हैं कि क्या वह किसी ऐसी चीज
को बदल सकते हैं जिसका हुक्म खुद नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दिया था।
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हाल ही में नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड्स राइट्स
(NCPCR) ने दारुल उलूम देवबंद
को कुछ ‘गुमराह कुन फतवों’ के लिए आलोचना का निशाना बनाया था जो बच्चों के हित को हानि पहुंचाते हैं। ज़ेरे
बहस मसला गोद लेने का है जिसमें नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड्स का स्टैंड
देवबंद से अलग है। सदियों की कानूनी मश्क के बाद देवबंद ने यह स्टैंड इख्तियार किया
है कि मुसलमान जोड़े गोद ले सकते हैं लेकिन गोद लिए हुए बेटे या बेटी को हकीकी औलाद
नहीं समझा जाएगा। संक्षिप्त यह कि गोद लिए हुए बच्चे के पास जायदाद के कोई अधिआर नहीं
होंगे। और यह कि जब ऐसा गोद लिया हुआ बच्चा बालिग़ हो जाता है तो इस्लाम यह हुक्म देता
है कि गोद लिए हुए बेटे और उसकी मां के बीच या गोद ली हुई बेटी उसके बाप के बीच मुनासिब
पर्दा किया जाए।
हालांकि देश का कानून गोद लिए हुए बच्चों को हकीकी औलाद मानता है, इस्लाम इस मामले पर एक अलग दृष्टिकोण रखता है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने जुविनाइल जस्टिस एक्ट के तहत मुस्लिम जोड़ों को गोद लेने की इजाज़त दी थी। लेकिन बा अमल मुसलामानों के लिए यह एक मसला है क्योंकि उनके धर्म में इसका कोई बंदोबस्त नहीं है। कारण इस्लाम के पैगम्बर की ज़िन्दगी के इतिहास में छुपे हैं जिन्हें इस्लाम धर्म का कामिल मज़हर माना जाता है। मुसलामानों पर फर्ज़ है कि वह नबी के बताए हुए रास्ते पर चलें। तो, इस्लामी इतिहास हमें बताता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने गोद लिए बेटे ज़ैद की बीवी से शादी फरमाई। ऐसा मालुम होता है कि इस घटना से पहले अरब समाज ने पुरे मअनों में गोद लेने की इजाज़त दी थी। लेकिन चूँकि पैगम्बराना तरीका सुन्नत है, इसलिए जो कुछ भी नबी ने किया वह इस्लामी सिद्धांत बन गया। और सदियों बाद यह इस्लामी कानून की शक्ल इख्तियार कर गया। इसके बाद मुसलामानों को यतीमों की देख भाल करने की इजाज़त दी गई लेकिन वह उसके साथ अपने बेटे या बेटियों जैसा सुलूक नहीं कर सकते थे; जायदाद में उनके अधिकार नहीं थे।
एनसीपीसीआर इस बात को उजागर करने में हक़ बजानिब है कि देवबंद मदरसे के इस तरह के अहकाम बच्चों के अधिकार की खिलाफवर्जी करते हैं। जबकि इस देश में और भी बहुत सारी चीजें चल रही हैं जो ऐसा ही करती हैं। जैसे कि नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स, उस समय चुप था जब दिल्ली दंगों के दौरान स्कूलों को जलाया गया था, जिससे बच्चों के बुनियादी अधिकार प्रभावित हुए थे। गोद लेने के हवाले से देवबंद की रुढ़िवादी राय को चुन कर उजागर करने से खुद नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड्स राइट्स पर ही इस्लामो फोबिया को बढ़ावा देने का आरोप लगता है।
स्टूडेंट इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन (SIO) जो कि जमाते इस्लामी का छात्र विंग है, यही कहता हुआ नज़र आता है। उसने नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स के बयान को कुछ फतवों को चुन कर और उसे सनसनी खेज़ बना कर, मदरसों और उनके शिक्षा को निशाना बनाने की एक और कोशिश करार दिया। इसमें यह भी कहा गया कि फतवा उलमा की जाती राय है और उनमें से किसी की भी कोई कानूनी हैसियत नहीं होती। एस आई ओ की यह दलील भी सहीह है कि भारतीय संविधान अल्पसंख्यकों को धार्मिक आज़ादी की जमानत देता है। लेकिन इसकी बिना पर हमें यह हकीकत नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए कि इस तरह की आजादियों से अफराद और ख़ास तौर पर बच्चों और औरतों के हुकूक पामाल नहीं हों।
एनसीपीसीआर को उनके चुनाव में दोषी ठहराना एक बात है लेकिन इस बात को स्वीकार न करना कि गोद लेने का मसला मुस्लिम समाज में एक अजीब मसला है। एस आई ओ बिलकुल वही कर रहा है: वह इस मामले पर पर्दा डाल रहा है ताकि इस मसले पर खुल कर बात न हो सके। मदरसों को पहले भी निशाना बनाया जाता रहा है लेकिन इसे कुबूल करने का मतलब यह नहीं कि इन संस्थाओं की हर बात आलोचना से परे है। और यह कि अगर फतवा देवबंद का है तो इसकी कुछ अहमियत भी होती है। बेशक कानूनी तौर पर नाफिज़ुल अमल नहीं है लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लाखों मुसलमान इसे इस्लाम की सच्ची तालीम मान कर इस पर अमल करते हैं। और देवबंद अपनी तरक्की पसंदी के लिए नहीं जाना जाता, बल्कि अपने फतवे के जरिये इसने हमें बार बार अपनी रुढ़िवादी मानसिकता याद दिलाई है।
दुनिया भर में, रिवायती इदारे समय के साथ खुद को बदल लेते हैं। ईसाई चर्च अपने
उरूज के जमाने में बहुत कट्टर था लेकिन आज उसने समलैंगिक शादियों को भी अधिक स्वीकार
कर लिया है। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इस्लामी इदारे नई समाजी और मेयारी बदलाव के खिलाफ
प्रतिरोध करने में विशेष गर्व अनुभव करते हैं।
जैसे कि गोद लेने के बारे में मुसलामानों का स्टैंड कई सदियों से नहीं बदला है। एक मुसलमान जोड़े की हालते ज़ार का तसव्वुर करें जो एक बच्चा गोद लेना चाहता है लेकिन उसे राय दिया जाता है कि वह केवल सीमित समय के लिए उसके अभिभावक बन सकते हैं। कल्पना करें कि एक मुसलमान मां या बाप को क्या सदमा होगा जब उनसे कहा जाएगा कि वह उस इंसान से पर्दा करें जिसे उन्होंने बचपन से ही परवरिश की है। मानो धर्म खुद इंसानी जज़्बात की कद्र करने से कासिर है। गोया दीने इस्लाम बे औलाद जोड़े को अपने बच्चों के बारे में इंसानी जज़्बात रखने से मना करता है।
इस्लामी निजामे कानून जिस तरह से तैयार किया गया है उसमें बुनियादी तौर पर कुछ कमियाँ हैं। कौन सा धर्म इंसानों को अपने गोद लिए हुए बच्चे पर प्यार व मोहब्बत की बरसात करने से रोकता है? कौन सा धर्म यह मान सकता है कि एक मां या बेटे के अंदर केवल इस वजह से हवस का एहसास पैदा हो सकता है क्योंकि बच्चा गोद लिया गया है?
कोई यह कह सकता है कि ‘दुसरे लोग’ इस्लाम में गैर सेहत बख्श दिलचस्पी लेते नज़र आ रहे हैं। लेकिन मुसलमान की हैसियत से हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि हमारे धार्मिक कानून में वाकई कुछ कमियाँ हैं। और ऐसी सोच और अमल को केवल हम मुसलमान ही रोक सकते हैं। हम में से अक्सर लोग किसी ऐसी चीज को बदलने के बारे में दुविधा में हैं जिसका आदेश खुद नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दिया था। तो फिर हमें यह पूछने की आवश्यकता है कि क्या इस्लाम केवल नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पैरवी का नाम है या अल्लाह पाक से संबंध पैदा करने का नाम है? मुसलमान की हैसियत से, क्या हमें सातवीं शताब्दी के अरब के सियाक व सबाक और अख्लाकी नमूनों पर अमल करना चाहिए या हमें अपना असरी निसाब खुद तरतीब देना चाहिए?
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English Article: Adoption in Islam: Should Muslims Keep Following a
7th Century Law
Malayalam Article: Adoption in Islam: Should Muslims Keep Following a
7th Century Law ഇസ്ലാമിലെ ദത്തെടുക്കൽ: മുസ്ലിംകൾ ഏഴാം നൂറ്റാണ്ടിലെ നിയമം പിന്തുടരുന്നത് തുടരണമോ
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