आदिल सिद्दीकी
उर्दू से अनुवाद, न्यू एज इस्लाम
१७८९ में फ्रांस की क्रान्ति के बाद कई देशों ने आज़ाद होने की संघर्ष शुरू की लेकिन भारत में आज़ादी की संघर्ष मुसलमानों की मरहूने मिन्नत है उलेमा ए इस्लाम ने भारत में आज़ादी के संघर्ष की दाग बेल डाली, १८०३ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपने कदम जमा लिए और शहंशाह शाह आलम को अपने काबू में कर लिया। शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी वह पहले मुसलमान थे जिन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ आवाज़ बुलंद की आपने देहली की जामा मस्जिद से एलान किया कि मुसलमानों का यह धार्मिक फरीज़ा है कि वह ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत का आलम बुलंद करें धीरे धीरे आपकी आवाज़ पुरे देश में फैल गई। १८२६ में मौलाना इसमाइल देहली और सैयद अहमद शहीद बरेलवी ने सादिक पुर से ले कर दिल्ली तक मुसलमानों की कयादत संभाली। आप की तहरीके आज़ादी बंगाल से ले कर सूबे के सरहद तक जगह जगह फ़ैल गई और १८३१ तक यह सिलसिला जारी रहा। लेकिन आपकी तहरीक आज़ादी असफल हो गई इसलिए ब्रिटिश फ़ौज ने इस तहरीक से जुड़े हुए अधिकतर लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद १८५७ में भारत की तहरीके आज़ादी दुबारा से जोर पकड़ गई उसमें हज़ारों हिन्दुओं और मुसलमानों ने काँधे से कान्धा मिला कर हिस्सा लिया। इस तहरीक में हाजी इम्दादुल्लाह मुहाजिर मक्की मौलाना रशीद अहमद गंगोही, मौलाना कासिम नानौतवी और हाफ़िज़ जामिन शहीद आदि पेश पेश रहे। यह तहरीक अहिंसा के सिद्धांतों को अपना कर आगे बढ़ी मगर यह भी ब्रिटिश को भारत पर कब्ज़ा जमाने से ना रोक सकी। ब्रिटिश फौजों नें हज़ारों उलेमा को मौत के घाट उतार दिया इसके बाद तहरीक आज़ादी से हज़रत शेख-उल-हिंद मौलाना महमूद हसन की कयादत में शुरू हुई। इस तहरीके आज़ादी का विस्तृत उल्लेख भारत के सभी प्रसिद्ध और प्रमाणिक इतिहासकारों ने किया है जैसे डॉक्टर तारा चंद, ईश्वरी प्रसाद और डॉक्टर के एम् पाटेकर आदि।
इसमें सरहदी अफगानों की सहायता हासिल की गई। मजीद सुलतान तुर्की नीज तहरीके खिलाफत से इसे मजबूत करने की कोशिश की गई। शेख-उल-हिंद ने १९१५ में काबुल में भारत की जिलावतान हुकुमत कायम करने और भारत की आज़ादी का एलान किया और और बरकत भोपाली को विदेशमंत्री बनाया कि भारत आज़ादी चाहता है इसके साथ साथ आपने यह पैगाम दिया कि भारत की आज़ादी हिन्दू और मुस्लिम एकता से ही हासिल हो सकती है। इसलिए इस जिलावतन हुकूमत का पहला राजा महेंद्र प्रताप को बनाया, उन्हीं के नक़्शे कदम पर चल कर सुभाष चन्द्र बोस ने टोकियो में इन्डियन नेशनल आर्मी कायम की थी। स्वतंत्र भारत में इस राष्ट्रीय सेना के सदस्य शाहनवाज साहिब को भारत का पहला कृषि मंत्री बनाया गया था।इस काम में, शेख-उल-हिंद ने मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी की मदद ली थी। इस दौरान मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अल-हिलाल नाम से अखबार शुरू किया और इसके के जरिए भारतीय लोगों को जगाया। हकीम अजमल खान, खान अब्दुल गफ्फार खान, डॉ मुख्तार अहमद अंसारी और कई अन्य देशभक्त शेख-उल-हिंद के स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करने वालों में से थे। शेख-उल-हिंद ने देवबंद से मदीना की यात्रा की और वहां बैठकर तुर्क खलीफा की मदद और समर्थन मांगा और रेशमी रूमाल के माध्यम से संदेश देने की प्रक्रिया शुरू की। सभी ऐतिहासिक पुस्तकों में इस आंदोलन का विस्तार से उल्लेख किया गया है। पत्र-व्यवहार ब्रिटेन पहुंचा, इसलिए 1917 में शेख-उल-हिंद को गिरफ्तार कर माल्टा भेज दिया गया। इस आंदोलन से जुड़े कुछ अन्य लोगों को भी गिरफ्तार किया गया, हालांकि यह आंदोलन भी विफल रहा। वास्तव में, इस आंदोलन को सुरक्षित रखना बहुत कठिन था क्योंकि इसे विदेशों में किया गया था, लेकिन इस आंदोलन के गुप्त प्रभाव भारतीय लोगों के दिलों को स्वतंत्रता की ओर आकर्षित करने में सफल रहे। अब यह भारतीय लोगों की भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ने की मानसिकता बन गई और अब देश की स्वतंत्रता के नारे ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित करना शुरू कर दिया।
1919 में, दिल्ली में खिलाफत आंदोलन पर एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस मौके पर मौलाना अब्दुल बारी फरंगी महली और हजरत शेख-उल-हिंद के साथियों ने मिलकर एक योजना बनाई कि उलेमा का एक अलग मंच बनाया जाए ताकि देश को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजाद कराने के लिए एक आंदोलन चलाया जा सके। साथ ही, मंच ने देश को मुक्त करने के कांग्रेस के प्रयासों को समृद्ध करने की मांग की। इसलिए जमीयत उलेमा-ए-हिंद की पहली उद्घाटन बैठक शेख-उल-हिंद मौलाना महमूद हसन की अध्यक्षता में दिल्ली में हुई। इसमें हर विचारधारा के उलेमा ने भाग लिया। बैठक असहयोग आंदोलन के प्रभावी उपयोग पर केंद्रित थी। बैठक में एक प्रस्ताव पारित कर देश भर के लोगों से असहयोग आंदोलन को सफल बनाने की अपील की गई। शेख-उल-हिंद ने देश की स्वतंत्रता के संबंध में चार बुनियादी बातों पर जोर दिया। सबसे पहले, भारत के सभी अकवाम को स्वतंत्रता के संघर्ष में मिलकर काम करना चाहिए। दूसरी यह कि मानवाधिकार की जो अवहेलना हो रही हैं उनके खिलाफ विरोधी आवाज़ बुलंद की जाए। तीसरा, अहिंसा के सिद्धांतों के तहत संघर्ष किया जाना चाहिए। चौथा, देश में सभी धर्मों को सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए और किसी भी धर्म को दूसरे धर्मों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। स्वतंत्रता की मांग की 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन भी इन्हीं सिद्धांतों को ध्यान में रखकर चलाया गया था। इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप 1947 में देश आजाद हुआ। उल्लेखनीय है कि भारत का संविधान आजादी के बाद धर्मनिरपेक्ष आधार पर बना था क्योंकि कांग्रेस और जमीयत के सदस्यों ने देश को आजाद कराने के लिए अथक प्रयास किया और नतीजा यह हुआ कि देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष आधार पर बन सका। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का जश्न मनाया जाता है। हालांकि, इसका पसेमंजर नज़रों से गायब हो जाता है और भारत के स्वतंत्रता के इतिहास के मूल तथ्य आज हमारी पाठ्यपुस्तकों से गायब हैं, जिससे देश में सांप्रदायिक सौहार्द की कमी है। काश कि हमारा मीडिया इन बुनियादी तथ्यों को स्पष्ट करे ताकि देश में सांप्रदायिक एकता को मजबूत किया जा सके। देवबंदी आलिमों की सेवाएं इस संबंध में एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। यही कारण है कि स्वतन्त्रता के प्रप्ति के बाद देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद देश की पहली महिला प्रधानमन्त्री श्रीमती इंद्रागांधी और सभी दुसरे नेता देवबंद आए और यहाँ की सेवाओं को खिराजे तहसीन पेश करने को आवश्यक समझा। समय की मांग यही है कि हम इन सहीह घटनाओं से नई पीढ़ी को अवगत कराएं और इन एतेहासिक तथ्यों को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं ताकि देश में हिन्दू मुस्लिम एकता को बढ़ावा मिल सके। यह समय की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
Urdu Article: Role of Islamic Scholars in India’s independence
movement ہندوستان
کی آزادی میں علمائے کرام کا حصہ
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