आबिद अनवर (उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
हिंदुस्तान में मुसलमानों को इंसाफ दिलाने के लिए जितनी भी कोशिश की जाती है, इंसाफ उनसे उतना ही दूर भागता नज़र आता है, क्योंकि सरकार की पूरी मशीनरी की मंशा होती है कि मुसलमानों को इंसाफ से दूर रखा जाये। कम से कम गुजरात और बिहार में तो यही फार्मूला अपनाया जा रहा है। दोनों जगह की सरकारों ने ये तय कर लिया है कि वो किसी भी हालत में मुसलमानों के साथ इंसाफ होने नहीं देंगे। गुजरात में मुसलमानों के लिए उस वक्त तक इंसाफ नामुमकिन होगा जब तक सरकार न बदल जाये, दागी मंत्रियों, पुलिस और प्रशासन के अफसरों को बर्खास्त या तबादला करके उस इलाके से कहीं दूर न भेज दिया जाय, जहाँ से वो किसी तरह प्रभाव न डाल सकें। गुजरात में जब तक मोदी सत्ता में हैं तब तक मुसलमानों के लिए इंसाफ नामुमकिन सा है।
गुजरात सरकार शुरु से ही इंसाफ के रास्ते में लगातार रुकावट डालती रही है। इसलिए कई मुकदमों को गुजरात से बाहर ट्रांस्फर किया गया, लेकिन इसके बावजूद गुजरात सरकार के रवैय्ये में कोई बदलाव नहीं आया। अब एक नया मामला सामने आया है, जिससे न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के ज़रिए स्थापित की गयी एसआईटी के रोल को उजागर कर दिया है, बल्कि इस शक को भी ताकत दी है कि एसआईटी गुजरात सरकार और मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दे रही है। एक निजी न्यूज़ चैनल ने दावा किया है कि उसके पास वो दस्तावेज़ात हैं जिससे ज़ाहिर होता है कि एसआईटी अपनी खुफिया रिपोर्ट्स मोदी सरकार को भेजती रही है, और मोदी सरकार और खासतौर से मुख्यमंत्री के बारे में अपनी तैयार की गयी रिपोर्ट मोदी सरकार को भेजती रही है, ताकि वो इसका जवाब तैयार कर सकें और अपने बचाव का तरीका आसानी से तलाश कर सकें। एसआईटी ने गुजरात के एडीशनल एडवोकेट जनरल तुषार मेहता, मोदी के सेक्रेटरी जी.सी. मुर्मू और संघ परिवार के नज़दीकी एस. गुरुमूर्ति को ये दस्तावेज़ भेजती रही।
इस खुलासे के बाद हालांकि मीडिया में कोई हलचल नहीं हुई है और न ही इस पर कोई बहस जारी है और न ही उन अखबारों की नींद टूटी है जिसने मौलाना गुलाम वस्तानवी के मामले पर खास लेख से लेकर विशेष सम्पादकीय तक प्रकाशित किये हैं। क्योंकि यहाँ दारुउलूम देवबंद को बदनाम करना था, इसलिए उन लोगों ने जम कर इस मामले को मीडिया मे कवरेज दिया, लेकिन जैसे ही मुसलमानों के इंसाफ हासिल करने की राह में पहाड़ खड़ा करने वालों के नाम सामने आए मीडिया को साँप सूँघ गया।
मुसलमानों की आम तौर पर स्थिति ये है कि उन्हें हिंदुस्तान की किसी मशीनरी से उम्मीद नहीं रहती है कि उनके साथ इंसाफ का मामला करेगी। सवाल ये है कि मुसलमान किस पर भरोसा करें, या अपने कौन कौन से मामले लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाएं? सुप्रीर्म कोर्ट ने गुजरात दंगों के अहम मामलों समेत नरेन्द्र मोदी की भूमिका की जाँच के लिए एसआईटी बनाने का आदेश दिया था, और उसे अपना निगरानी में रखा था, लेकिन एसआईटी के जो कारनामे सामने आये हैं, वो न सिर्फ शर्मसार करने वाले हैं बल्कि विश्वास को भी डगमगा देने वाले हैं, जो किसी भी सभ्य समाज के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।
इससे पहले गुजरात खुफिया के प्रमुख संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल करके एसआईटी के चरित्र पर सवाल उठाया था। उन्होंने अपने हलफनामे में कहा था कि गुजरात में 2002 में हुए दंगों की जाँच के लिए बनाई गयी एसआईटी पर उन्हें भरोसा नहीं हैं। 47 साल के संजीव राजेन्द्र भट्ट आईआईटी मुम्बई से पोस्ट ग्रेजुएट हैं, और 1988 में वो इण्डियन पुलिस सर्विस में आये और उन्हें गुजरात कैडर मिला। पिछले 23 बरसों से वो राज्य के कई ज़िलों में पुलिस कमिश्नर और अन्य पुलिस इकाईयों में काम कर चुके हैं। दिसम्बर 1999 से सितम्बर 2002 तक राज्य के खुफिया विभाग में बतौर कमिश्नर काम करने वाले संजीव भट्ट के पास आन्तरिक सुरक्षा से जुड़े मामले भी थे। उनके अधिकार क्षेत्र में तटीय सुरक्षा के अलावा विशेष लोगों की सुरक्षा का काम भी शामिल था, और इसमें मुख्यमंत्री की भी सुरक्षा आती थी। संजीव भट्ट नोडल अफसर भी थे जो कई केन्द्रीय एजेन्सियों और सेना के साथ खुफिया मामलों में आदान प्रदान किया करते थे। जब 2002 में गुजरात में संप्रदायिक दंगे हुए थे तब भी संजीव भट्ट इसी पद पर थे।
इससे पहले 2005 में आईपीएस अफसर आर.बी. श्रीकुमार भी नरेन्द्र मोदी की पोल खोल चुके हैं। उस वक्त के गुजरात के एडिश्नल जनरल आफ पुलिस आर.बी.श्रीकुमार ने सेन्ट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्युनल (कैट) से शिकायत की थी कि जब वो राज़्य में पुलिस के खुफिया विभाग के प्रमुख थे, उस दौरान मुख्यमंत्री मोदी के आला अफसरों की ओर से ऐसे संदेश मिले थे कि जो मुसलमान गड़बड़ी फैलाने की कोशिश करे उसे खत्म कर दिया जाये। साथ ही नरेन्द्र मोदी का ये भी निर्देश था कि अपने विरोधियों के फोन टेप किये जायें। एक रिपोर्ट के मुताबिक श्रीकुमार ने इसके सुबूत के तौर पर अपने दफ्तरी रजिस्टर का हवाला दिया है, जिसमे उनकी मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकातों के बारे में विस्तार से लिखा है। इस डायरी में तारीख के साथ बहुत सी घटनाएं लिखी हैं। मिसाल के तौर 28 जून, 2000 की तारीख में मोदी की रथयात्रा की तैयारियों का जिक्र है, जिसमें उस वक्त के चीफ सेक्रेटरी जी सुब्बाराव ने श्रीकुमार से कहा था कि ’अगर कोई रथ यात्रा में रुकावट डालने की कोशिश करे तो उसे खत्म कर दिया जाये।’ श्रीकुमार ने ये भी लिखा है कि उन्होंने सेक्रेटरी से कहा कि जब तक हालात खराब न हो तब किसी को जान से मारना गैरकानूनी है। तब चीफ सेक्रेटरी ने कहा कि उसके बारे में मुख्यमंत्री ने बहुत सोच समझ कर फैसला किया है।
उसमें एक और वाकेआ दर्ज है जिसमें मोदी ने श्रीकुमार से मुस्लिम मिलिटेन्ट पर विशेष ध्यान देने और संघ परिवार पर नहीं देने को कहा क्योंकि वो कुछ गलत नहीं कर रहे हैं। इस रजिस्टर के मुताबिक जब मोदी के आदेश के बावजूद भी श्रीकुमार ने संघ को लोगों को नहीं बख्शा, तो मोदी ने कहा कि वो संघ के मामले में उनकी मदद कर सकते हैं। श्रीकुमार का कहना है कि मोदी ने अपने विरोधियों के फोन टेप करने को कहा और इस सिलसिले में कांग्रेस के लीडर शंकर सिंह वाघेला और अपनी ही कैबिनेट के मंत्री हरेन पण्डया और कुछ मुस्लिम लीडरों, और कुछ पुलिस अफसरों के फोन टेप किये गये थे। आर.बी. श्रीकुमार एक सीनियर अफसर हैं और उन्हें गुजरात प्रशासन ने तरक्की नहीं दी थी जबकि दूसरे अफसरों को बड़े पदों पर बिठा दिया था। श्रीकुमार का कहना है कि उन्होंने मोदी के कुछ आदेशों को मानने से इंकार कर दिया था, इसलिए उन्हें ये सज़ा मिली। नरेन्द्र मोदी का ये कहना सही था कि संघ परिवार कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहा है, क्योंकि उसका कोई भी गैरइंसानी काम, वहशियाना हरकत और भीड़ को साथ लेकर कत्ल करना गैरकानूनी दायरे में नहीं आता है, और मुसलमानों के साथ अत्याचार, हत्या और समाजी बायकाट उनकी देशभक्ति का अंदाज़ जो ठहरा।
गुजरात दंगों को तकरीबन 10 साल हो गये हैं लेकिन हालात जैसे के तैसे बने हुए हैं। किसी पार्टी, राजनीतिज्ञ, अदालत औऱ किसी दूसरे माध्यम से इंसाफ न मिलने की वजह से गुजरात के मुसलमान मजबूरन बीजेपी के सदस्य बन रहे हैं, ताकि किसी तरह उनको सुरक्षा मिल सके। इससे मुसलमानों की हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वो कातिलों की पनाह लेने के लिए किस तरह मजबूर हैं। गुजरात में कुछ नहीं बदला है और न वहाँ प्रशासन की सोच बदली है और न ही समाज में किसी के साथ अच्छे व्यवहार करने का जज़्बा पैदा हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात के मुसलमान शहरों, कस्बों और गाँवों हर जगह खौफ में रहते हैं। धीरे धीरे उनकी बस्तियाँ और गरीब होती जा रही हैं। राज्य में हिंदू अक्सर जगहों पर मुसलमानों को अपनी आबादियों में रहने नहीं देते हैं। समाजिक कार्यकर्ता हनीफ लकड़ावाला के मुताबिक बहुत ही सोच समझ कर मुसलमानों को आर्थिक रूप से बर्बाद कर दिया गया है। विश्व हिंदू परिषद पम्फ्लेट जारी करती है, जिन में उन चीजों के नाम और ब्राण्ड के नाम लिखे जाते हैं जिनके मालिक मुसलमान हैं, और हिंदुओं से कहा जाता है कि वो इन चीज़ो को न खरीदें।
नानावती कमीशन में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता मुकुल सिंहा कहते हैं कि समाज पूरी तरह संघ परिवार के रंग में रंग चुका है। यहाँ कानून का राज नहीं है। इतने भयानक दंगों और हत्याओं के बावजूद एक हज़ार से ज़्यादा मुसलमानों को कत्ल करने वाले आज़ाद घूम रहे हैं। मुकुल सिंहा कहते हैं कि ये सोच समझ कर किया गया है। ये कोशिश की जा रही है कि मुसलमानों को दूसरे दर्जे का शहरी बना दिया जाय। ‘एक्शन एड’ की ज़किया जौहर भी मुकुल सिंहा से सहमत हैं। वो कहती हैं कि गुजरात में खौफ का आलम ये है कि मोदी की फासिस्ट पालिसियों के खिलाफ विरोध के रास्ते बंद होते जा रहे हैं। अफसोस की बात ये है कि दंगों को हुए इतना अर्सा बीत जाने के बाद भी समाज में आपसी भाईचारा की भावना पैदा करने के लिए कोई कोशिश नहीं की गयी है और न ही इंसाफ के लिए रास्ता बनाया गया, जिससे महसूस होता है कि गुजरात मुसलमानों के लिए तंग गली या बंद गली नहीं है बल्कि खैरमकदम करने वाली गली है, लेकिन ऐसा होना उस वक्त तक मुमकिन नज़र नहीं आता है जब तक मोदी एण्ड कम्पनी गुजरात पर काबिज़ है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ मुसलमानों को गुजरात सरकार पर भरोसा नहीं है बल्कि देश के सुप्रीम कोर्ट की भी यही राय है, और यही वजह है कि उसने कई मुकदमों की सुनवाई राज्य से बाहर करने का आदेश दिया। इस सिलसिले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्ज़ी दाखिल की थी। इसकी सुनवाई तीन सदस्यी बेंच ने जस्टिस वी.एन. खरे की अध्यक्षता में की। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को लताड़ते हुए कहा था कि राज्य सरकार का फर्ज़ था कि वो लोगों की हिफाज़त करती, और मुजरिमों को सज़ा दिलवाती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। अदालत ने कहा कि “अगर आप मुजरिमों को सज़ा नहीं दिलवा सकते, तो बेहतर ये होगा कि आप हट जाएं।” अदालत ने कहा राज्य सरकार ने स्थानीय अदालत के फैसले के खिलाफ जो अपील की वो भी सिर्फ दिखावे के तौर पर की। अदालत ने गुजरात सरकार के सरकारी वकील से कहा कि राज्य सरकार इस अपील को संजीदगी से नहीं ले रही है, क्योंकि अब तक इस मामले की नये सिरे से जाँच अभी तक शुरु नहीं की गयी है। अदालत ने सरकारी वकील से ये भी कहा कि अगर आप लोगों ने इस सिलसिले में कुछ नहीं किया तो फिर हमारा हस्तक्षेप ज़रूरी हो जायेगा। हम सिर्फ तमाशा देखने वाले बन कर नहीं बैठे रहेंगे। सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी के बाद भी मोदी सरकार का रवैय्या नहीं बदला, वहाँ गवाहों पर अपने बयान से मुकरने के लिए सख्त दबाव है।
जो भी सच्चाई का साथ देने की कोशिश करता है, उसे सज़ा दी जाती है, ऐसे में कौन अफसर सामने आयेगा? केन्द्र सरकार इस सिलिसले में पूरी तरह अपनी लाचारी का ही प्रदर्शन कर रही है, और इसके लिए कोई कारवाई नहीं कर रही है। सुप्रीम कोर्ट पर जब गुजरात सरकार ध्यान नहीं देती ,तो उसके ज़रिए बनाई गयी एसआईटी के अफसरों को खरीद लेती है, तो ऐसे में केन्द्र सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो इंसाफ दिलाने के लिए मोदी एण्ड कम्पनी को सलाखों के पीछे डाले।
बीजेपी की हुकूमत वाले एक और राज्य बिहार का भी यही हाल है। बिहार की मिली जुली संस्कृति को तबाह करने के लिए संघ परिवार बिहार को दूसरा गुजरात बनाने के लिए तैयारी कर चुका है। फारबिसगंज के भजनपुर में फायरिंग की घटना इसी सिलसिले की एक कड़ी है, और इस घटना में बीजेपी के एमएलसी अशोक अग्रवाल शामिल हैं। उन्होंने गाँव वालों की सड़क को बंद करवा दिया था और गैरकानूनी तौर पर सड़क को खोद भी दिया था। ये सड़क गाँव वालों की अपनी ज़मीन पर थी। हालांकि फारबिसगंज का दौरा मानवाधिकार की टीम, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और दूसरी संस्थाएं कर चुकी हैं, लेकिन इंसाफ वहां भी मिलता नज़र नहीं आता। नितीश कुमार ने जनता और राजनीतिक पार्टियों के दबाव में अदालती जाँच कमीशन का ऐलान तो दे दिया है, और कमीशन के चेयरमैन व सेक्रेटरी की नियुक्ति भी कर दी है, लेकिन ये कदम उस वक्त तक काफी नहीं होगा जब तक इस घटना के कुसूरवारों और दोषी अफसरों को बर्खास्त न कर दिया जाये। इस घटना के लिए प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार एसपी गरिमा मलिक और एसडीओ एस. दयाल को अभी तक बर्खास्त नहीं किया गया है। इन अफसरों की मौजूदगी में कोई गाँव वाला, जो ज़्यादातर अनपढ़ है, उनके खिलाफ बयान देने की हिम्मत कर सकेंगे? आज तक जहाँ अदालती जाँच बैठी है, वहाँ सम्बंधित अफसर का या तो तबादला किया गया, या बर्खास्त, लेकिन फारबिसगंज के मामले में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया। इससे अंदाज़ा होता है कि नितीश कुमार सरकार, प्रशासन को क्लीन चिट देने का फैसला कर चुकी है, जिस तरह गुजरात में एसआईटी ने मोदी को क्लीन चिट दी है और अपने दस्तावेज़ों को उनको उपलब्ध कराया है, ताकि वो कानूनी तौर पर इसका तोड़ निकाल सकें, उसी तरह का खेल बिहार में दुहराने की तैयारी कर ली गयी है।
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