अभिजीत, न्यु एज इस्लाम
23 अप्रैल, 2014
इस्लाम के साथ जुड़े विषयों में कई ऐसे हैं जो निरंतर चर्चा और वाद-विवाद के केंद्र में बने रहतें हैं। इन्हीं शब्दों में एक शरीयत कानून भी है। इस शब्द की व्याख्या सुनने और जानने की बेताबी प्रायः सभी में रहती है। शरीयत कानून को लेकर पूरे विश्व के जनमानस (भले वो मुस्लिम हो या गैरमुस्लिम) में यही धारणा है कि यह मध्ययुगीन अरब का एक कालवह्य कानून है जो इस आधुनिक युग में भी मुसलमानों को पिछड़ा रखना चाहता है और उन्हें आगे बढ़ने से रोकता है। शरीयत कानून का नाम आते ही आँखों के सामने सर से लेकर पांव तक बुरके में ढ़की स्त्री, चोरों के हाथ काटे जाने के दृश्य, मध्ययुगीन बर्बरता, बलात्कारियों को पथ्थर से पीट-2 कर मारे जाने का दृश्य, गीत-संगीत, फोटोग्राफी और मनोरंजन के साधनों एवम् फोटोग्राफी पर पाबंदी और फतवेबाजी के दृश्य उभरने लगतें हैं।
शरीयत को लेकर जेहन में ऐसी मानसिकता पनपना कोई गलत भी नहीं है क्योंकि मौलवियों के द्वारा गढ़े इस शरीयत ने आज तक केवल मुसलमानों का और इस्लाम का मजाक ही बनाया है। महिलाओं को अपमानित करने वाले बेतुके आदेश, पिछड़ेपन की ओर धकेलने वाली व्याख्यायें और जिल्लत भरी जिंदगियां मौलवियों की मनमानी व्याख्याओं से उपजे इस कानून का ही प्रतिफल है। परिणामस्वरुप गैरमुस्लिमों के नजर में इस्लाम की छवि खराब होती है, मीडिया इनका मजाक बनाता है और लोगों को इस्लाम औरतों पर जुल्म करने वाला और विकास तथा तरक्की का दुश्मन नजर आता है ! वो इस्लाम का मूल्यांकन एक ऐसे मजहब के रुप में करने लगतें हैं जो रूढ़िवादी और दकियानूस है।
शरई अवधारणा की बुनियाद
शरीयत के बारे मे मुसलमानों की मान्यता है कि यह शाश्वत और ईश्वरीय आदेश है जिसे अल्लाह ने हमारे लिये तय किया है जिसके आधार पर हमें जिदंगी गुजारना है और जो हमारे तमाम मसलों पर हमारी रहनुमाई करेगा। एक तरह से कहें तो यह एक Divine Law है जिसके अनुरुप मुसलमानो को जिंदगी गुजर करनी है। शरीयत की जरुरत का एक जबाब मुस्लिम धर्मशास्त्री ये भी देतें हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को इस धरती पर अपना प्रतिहारी बनाया है। उसने मनुष्यों को तय अवधि के लिये ही भेजा है और ये समझा दिया है कि उसे इस धरती पर बस चंद समय के लिये ही भेजा जा रहा है जिसके बाद उसे वापस बुला लिया जायेगा। जहां आकर उसे अपने किये हुये कर्मों का हिसाब देना पड़ेगा। ईश्वर हर दौर में अपने नबियों, रसूलों और वलियों को भेजता है और उनके माध्यम से इंसानों का मार्गदर्शन करता है। नबी या वली के न होने की सूरत में रसूलों के ऊपर नाजिल की गई किताबें इंसानो के मार्गदर्शनार्थ उतारी जाती हैं।
शरीयत कानून की बुनियाद यही से शुरु होती है और वो इन माएनों में है कि आखिरी रसूल मुहम्मद (सल्ल0) के जाने के बाद इंसानों को ये न लगे कि कोई उनकी रहनुमाई करने वाला नहीं हैं। शरीयत को पुनीत और ईश्वरीय माना जाना इन्हीं अर्थों में है। इस व्याख्या को अगर माना जाये तो पवित्र कुरान मुसलमानों के लिये एक शरीयत ही है। कुरान की आलंकरिक शैली और उसके विभिन्न आयतों को समझने के लिये यह जरुरी था कि रसूलुल्लाह (सल्ल0) के द्वारा विभिन्न मौकों पर व्यक्त कथनों और उद्गारों को संकलित किया जाये ताकि कुरआन की आयतों के मतलब समझने में आसानी हो, हदीस का संकलन इसी प्रक्रिया में आरंभ हुये। बाद में कुरान शरीफ की आयतों और हदीसों के कथनों पर इख्तलाफ होने और किसी मसअले का उनसे हल निकालने में परेशानी की सूरत में फिक्ह प्रक्रिया ने जन्म लिया जिसने अहले-सुन्नत-वल-जमाअत को अबू हनीफा, इमाम शाफई, अहमद बिन हंबल और इमाम मालिक के रुप में फिक्ह के चार इमाम दिये। शरीयत कानून के आरंभिक चरण में कुरान और रसूल की हदीस शामिल थी पर इसके वर्तमान स्वरुप में चार चीजें हैं, कुरान, नबी-ए-करीम की सुन्नत, इज्मा और कयास पर वक्त गुजरने के साथ-2 शरीयत में मौलानाओं की मनमाफिक व्याख्या भी शामिल हो गई और ईश्वरीय अवधारणा धीरे-2 कट्टर शरीयत कानून में तब्दील हो गया। जिस दीन के विधानों को ईश्वर ने मानवमात्र की भलाई और बेहतरी के लिये बनाया था और जो कयामत तक के लिये रहने वाला था उसे मौलानाओं ने कट्टर और विकृत कर दिया जिसके कारण आज सबसे ज्यादा मुसलमान ही इससे पीडि़त हैं।
क्या शरीयत लागू किया जाना संभव है?
अक्सर ये दावा किया जाता है कि अगर इस्लामी शरीयत लागू कर दी जाये तो यह दुनिया की तमाम समस्याओं के लिये सबसे बेहतर समाधान हो सकती है। मगर ये दावा करना महज कोरी कल्पना है क्योंकि शरीयत अथवा फिक्ह के मसले पर पूरा इस्लामी विश्व बंटा हुआ है। फ्क्हि के मसले पर उनके बीच जर्बदस्त इख्तेलाफ है। इस्लाम 73 मुख्तलिफ फिरकों में बंटा है और कोई भी दो फिरका कई मसले पर एक सी राय नहीं रखता। इन 73 फिरकों में हम सिर्फ कुछ प्रमुखों फिरकों को ही लेतें हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि पूरे विश्व की तो बात छोड़ ही दे, इस्लाम के ही दो फिरकों के बीच इतना ज्यादा मतभेद हैं कि किसी मुस्लिम मुहल्ले में ही सर्वसम्मति से शरीयत लागू करना संभव नहीं और अगर ऐसा करने की कोशिश की गई तो यह मुसलमानों के दरम्यान इख्तलाफ पैदा करेगा। शिया लोग फिक्ह के मसले पर बाकी मुसलमानों से बिलकुल अलग ख्याल रखतें हैं, अहमदियों का भी अलग मसला है। इस्लामी कानूनों को लेकर शिया, सुन्नी, कादियानी, खोजापंथी के आपसी मतभेदों को छोड़ ही दीजिये यहां चंद उदाहरण इसे स्पष्ट कर देंगें कि शरई मसले को लेकर सुन्नियों में ही जर्बदस्त मतभिन्नता है।
शरई मसले पर इख्तेलाफ –
मुसलमानों में सबसे बड़ी तादाद सुन्नियों की है। मोटे तौर पर देखने पर तो सारे सुन्नी एक ही दिखतें हैं मगर बात जब फिक्ह (इस्लामी कानून) को मानने की आती है तो उनमे जर्बदस्त विभेद देखता है। सुन्नी लोगों में फिक्ह के मसले पर चार कानून मान्य है और पूरा सुन्नी विश्व इस मसले पर चार भागों में विभक्त है। इन चारों फिक्हों के प्रर्वतक इमाम हैं-
1. इमाम अबू हनीफा 2. इमाम मालिक 3. इमाम शाफई 4. इमाम अहमद बिन हम्बल
1. इमाम अबू हनीफा- इनका जन्म 80 हिजरी में कूफा में हुआ था और मृत्यु 150 हिजरी में बगदाद में । ये इमाम जफर अल सादिक (जो शिया के छठे इमाम थे) के शिष्य थे। इनके फिक्ह संकलन में इमाम अबू यूसूफ, इमाम मोहम्मद व इमाम जुफर की सहमति थी। इनके फिक्स के मानने वाले हनफी कहलातें हैं । इस फिक्ह को मानने वाले भारत, पाकिस्तान, तुर्की, अफगानिस्तान, ट्रांसजोर्डन, चीन, इंडोनेशिया व रुस में है।
2. इमाम मालिक- इनका जन्म 93 हिजरी में मदीना में हुआ था और देहांत 179 हिजरी में। ये भी इमाम जफर अल सादिक (जो शिया के छठे इमाम थे) के शिष्य थे। इनके फिक्ह को मानने वाले मालिकी कहलातें हैं। इस फिक्ह को मानने वाले अल्जीरिया, ट्यूनिश, सूडान, बहरीन व कुवैत में फैले हैं।
3. इमाम शाफई- इनका जन्म 150 हिजरी में गाजा में हुआ था और मृत्यु 204 हिजरी में मिश्र में हुई। इनके अनुयायी शाफई कहलातें हैं तथा ये लोग मिश्र, लेबनान, यमन, अरब, फिलीस्तीन, ईराक व इंडोनेशिया में फैले हैं।
4. इमाम अहमद बिन हंबल- इनका जन्म 164 हिजरी में बगदाद में हुआ था तथा देहांत 241 हिजरी में हुआ। इनके फिक्ह को फिक्हे-हंबली कहा जाता है तथा इसकी फ़िक्ह को मानने वाले सारिया, अरब व लेबनान में फैले हैं।
शरीयत की व्याख्या में न केवल शिया और सुन्नी बल्कि आधुनिक चिंतकों के विचारों में भी विरोधाभास है। शरीयत कानून को लागू करने वाले दो मुल्क मिश्र और सऊदी अरब में कई मसलें हैं जिनके ऊपर उन दोनों के विधानों में एकरुपता नहीं है। वर्तमान वक्त में इस्लाम के तमाम फिरकों के बीच के मतभेदों को देखते हुये शरीयत कानून को लागू करना इस्लाम के विभिन्न मसलकों के दरम्यान विभेद को ही बढ़ायेगा और कम से कम वर्तमान समय में इस विधान को सर्वसम्मति से लागू किया जाना संभव नही है।
वर्तमान परिपेक्ष्य में शरीयत कानून
परिवर्तन इस संसार का नियम:- परिवर्तन इस सृष्टि का नियम है, हर पल, हर क्षण हमारी सृष्टि एक नई बदलाव की साक्षी बनता है। पवित्र कुरान की कई आयतें हैं जो प्रतिक्षण हमारे आस-पास हो रहे परिवर्तनों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है, उस बदलाव को अल्लाह के निशानी के रुप में बतलाती है और हमें उससे सीख लेने को कहती है। परिवर्तन की ये प्रक्रिया इंसान के जन्म में भी दिखती है तो कायनात की तमाम दूसरी चीजों में भी। इस संदर्भ में कुरान शरीफ की कई आयतें हैं, यथा:-
“निस्संदेह आकाशों और धरती की बनाबट में, रात-दिन के बारी-2 एक दूसरे के बाद आने में, उन जहाजों में जो समुद्र में लोगों के लिये लाभदायक सामग्री लेकर चलतें हैं, और उस पानी में जिसे अल्लाह ने आकाश से उतारा, फिर उसके द्वारा भूमि को उसकी मृत्यु के पश्चात् जीवित किया, उन लोगों के लिये निशानियाँ है जो बुद्धि से काम लेतें हैं !” (कुरान, सूरह बकरह, आयत- 164)
“क्या उनलोगों ने जिन्होनें कुफ्र किया देखा नहीं कि ये आकाश और धरती पहले (सब के बस) परस्पर मिले हुये थे जिन्हें हमने जुदा-2 कर दिया।“ (कुरान, सूरह अल अंबिया, , 21:30)
“क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में पिरोता हुआ ले आता है, उसने सूर्य और चंद्रमा को काम में लगा रखा है, हर एक एक नियत समय में चल रहा है !” (कुरान, सूरह लुकमान, 31:29)
“क्या तुमने देखा नहीं कि अल्लाह ने आकाश से पानी बरसाया फिर धरती में उसकी धारायें चलाई, फिर उस पानी के द्वारा विभिन्न रंग की खेती निकालता है, और फिर वह खेती पक कर सूख जाती है। फिर तू उसे देखता है कि पीली पड़ गई, फिर उसे भुस बना देता है। निश्चय ही इसमें अनुस्मारक है बुद्धि वालों के लिये !” (कुरान, सूरह अज जुमर, 39:21)
“और उसकी निशानियों में से यह है कि वह तुम्हें बिजली की चमक दिखाता है, डर के साथ आशा के साथ भी और आकाश से जल बरसाता है, फिर उसके द्वारा धरती को उसकी मृत्यु के पश्चात् जीवन प्रदान करता है !” (कुरान, सूरह रुम, 30:24)
“क्या वह वीर्य की एक बूंद न था, फिर हुआ लोथड़ा, फिर उसे आकार दिया और नख-शिख से दुरुस्त किया !” (कुरान, 75:37-39)
“निश्चय ही मनुष्य को हमने मिट्टी के सत से बनाया, फिर उसे एक सुरक्षित जगह एक टपकी हुई बूंद के रुप में रखा, फिर एक मांस की बोटी का रुप दिया, फिर बोटी की हड्डियां बनाई, फिरा उन हड्डियों पर मांस चढ़ाया, फिर उसे एक दूसरा ही सृजन रुप देकर खड़ा किया, और इसके बाद तुम अवश्य ही मरने वाले हो, फिर कयामत के रोज तुम निश्चय ही उठाये जाओगे !” (कुरान, अल-मोमिनून, 23:14-16)
अगर किसी विधान में वक्त के साथ कोई परिवर्तन न हो तो वो चीज अनुपयोगी और कालवह्य हो जाती है और लोग उसे अस्वीकार कर देतें हैं। शरीयत विधान की प्रासांगिकता भी इन्हीं अर्थों में समझा जाना जरुरी है।
धर्म शाश्वत है धर्म विधान नहीं:-
इस्लाम धर्म की पाँच मुख्य बुनियादें हैं जिसे ईश्वर ने अपने बंदे हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के माध्यम से मानवजाति के लिये फर्ज ठहराया है। कुरान की आयत है, “उसने तुम्हारे लिये वही दीन निर्धारित किया है जिसकी ताकीद उसने नूह को की थी। और वह कि जिसकी वह्य तुम्हारी कोई की गई है, और वह कि जिसकी ताकीद हमने इब्राहीम और मूसा और इंसा को भी की थी !” (सूरह शूरा, आयतः 13)
इनमें परिवर्तन नहीं हो सकता पर धर्म विधान बदलतें हैं, इसका साक्ष्य ये है कि हजरत आदम के जमाने में निकट के रिश्ते मसलन बहन में शादी करना जायज था, अगर इसकी अनुमति न होती तो फिर मानवजाति आगे न बढ़ती पर मुहम्मद (सल्ल0) ने इसे हराम ठहरा दिया क्योंकि अब इस विधान को माने जाने की कोई ठोस वजह नहीं बची थी। इसी तरह पूर्ववर्ती नबियों की शरीयत में शादियों की संख्या पर कोई पाबंदी नहीं थी पर मुहम्मद (सल्ल0) ने इसे चार तक सीमित कर दिया। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकतें हैं जब जमाने के हिसाब ने नबी करीम(सल्ल0) ने धर्मविधान में बदलाव किये।
धर्म विधानों में युगानुकुल बदलाव की प्रक्रिया नबी करीम (सल्ल0) के जाने के बाद उनके खलीफाओं के द्वारा भी जारी रहा। जैसे,
* मुहम्मद (सल्ल0) और हजरत अबूबकर (रजी0) के जमाने में तीन तलाक को एक ही माना जाता था पर हजरत उमर(रजी0) ने अपने दौर में इसमें परिवर्तन कर ये कहा कि अगर कोई शख्स एक साथ तीन तलाके दे देता है तो तीन हो जाती है। (सहीह मुस्लिम)
* कुरान में चोर के हाथ काटे जाने का विधान है, खुद नबी करीम (सल्ल0) ने अपनी एक हदीस में फरमाया था कि खुदा कसम अगर उनकी बेटी फातिमा भी चोरी करे तो मैं उसके हाथ भी काट लूंगा। जब हजर उमर (रजी0) के दौर आया तो उनके जमाने में अरब में कहत (अकाल) पड़ा और उन्होंनें इस कानून को बदल दिया था।
इन खलीफाओं के बाद हुये इस्लामी विद्वानों ने भी बदलाव और परिवर्तन की अवधारणा को स्वीकार किया। आज से 800 साल पहले हुये विद्वान इमाम इब्ने खल्दून ने अपनी किताब मुकद्दमा में लिखा था, "दुनिया के हालात और मुख्तलिफ देशों की आदतें हमेशा एक जैसी नहीं रहती। दुनिया परिवर्तन और संक्रांतियों की कहानी का नाम है। जिस तरह ये परिवर्तन व्यक्तियों, शहरों और समय में होतें हैं उसी तरह दुनिया के तमामा हिस्सों, अलग-अलग दौर और हुकूमतों में होते रहतें हैं। खुदा की यही तरीका है जो उसके मख्लूकों में हमेशा से जारी है !” आज से करीब 400 साल पहले हुये इमाम इब्ने कय्यिम जौजी ने परिवर्तन के विधान को स्वीकारते हुये कहा था, "विधान की तब्दीली समय और काल के परिवर्तन, बदलते हुये हालात और इंसान के बदलते हुये व्यवहार के साथ जुड़ी है !”
शरई विधानों में वर्तमान परिपेक्ष्य में बदलाव किया जाना कुरान, नबी (सल्ल0) की सीरत, उनके सहाबियों के अमल और इस्लामी विद्वानों की राय की हिसाब से दुरुस्त है, अन्यथा ये अप्रासंगिक तो हो ही जायेंगें साथ ही साथ उसका लाभ भी मानव जाति को न मिल सकेगा। उदाहरणस्वरुप सूरह तौबा में जकात का वर्णन आया है जिसमें कहा गया है इसका एक उपयोग लोगों को गुलामी से छुड़ाने के लिये भी है। आज के दौर में जब गुलामी प्रथा नहीं है तो यकीनन हमें इसकी युगानुकुल व्याख्या करनी होगी तभी इसका लाभ किसी उपयुक्त या जरुरतमंद को मिल सकता है और इसकी युगानुकुल व्याख्या की भी गई है। इस्लाम की तब्लीग के लिये चलाये जा रहे कई चैनलों के बारे में उलेमाओ और मुफ्तियों का ये फतवा आया है कि इन चैनलों को पैसे देना भी जकात है। विधान शाश्वत है तो फिर ऐसा मानने वालों से ये जबाब भी अपेक्षित है कि हजरत मुहम्मद साहब के दौर में तो टी0वी0 चैनल नहीं थे तो फिर जकात लेने वालों की फेहरिस्त में इस्लामी टी0वी0 चैनल कैसे आ गये ?
शरीयत कानून की युगानुकूल व्याख्या जरुरी:-
शरीयत कानून का वर्तमान स्वरुप भी आज से तकरीबन छह सौ से सात सौ साल पहले का है, जिसकी कई बातें आज के परिपेक्ष्य में उतनी प्रासंगिक नहीं रह गई है। इसकी वजह ये है कि कोई भी नबी या रसूल जिस दौर में आतें हैं, वो उस दौर के मुतल्लिक बातें और प्रसंग अपने मानने वालों के समक्ष रखतें हैं ताकि उस जमाने के इल्म के हिसाब से वो बातें उनकी समझ में आसानी से आ जाये। ये इल्म का भी तकाजा है कि धर्म की शाश्वत और चिरंजीवी बातों को माना जाये और बाकी बातों की युगानुकुल व्याख्या की जाये। बाकी धर्मों के साथ ये बात इस्लाम के लिये उतनी ही सत्य है जो कुरआने-करीम और हदीस से साबित है। मुहम्मद (सल्ल0) की एक हदीस में आता है, बहुत जल्द ऐसा जमाना आयेगा कि मुसलमानों की बेहतरीन माल कुछ बकरियां होंगी जिन्हें लेकर पहाड़ की चोटियों और जंगलों में चला जाएगा। नबी (सल्ल0) ने अपने इस हदीस में बकरियों की मिसाल दी क्योंकि वो जिस जमाने में थे उसमें उनके मानने वालों को ये मिसाल आसानी से समझ में आने वाली थी। अगर कोई इस हदीस की युगानुकुल व्याख्या न करे और ये कहे कि आज के दौर के लिये भी इस हदीस का लब्जी माना पकड़ा जाये तो वो हंसी का पात्र बन जायेगा क्योंकि आज के दौर में दीन पर कायम रहने वाले कई मुसलमान ऐसे हैं जो बकरियां नहीं पालते। इसी तरह कुरान की एक आयत में आता है, और यह कि हमने आकाश को टटोला तो पाया कि उसे सख्त चैकीदार और अग्निशिखाओं से भर दिया है। (सूरह जिन्न, आयत:8) आज के साइंस के युग में अगर हम इस आयत की युगानुकुल व्याख्या न करें तो अहले-इल्म को कुरआन पर आपत्ति करने का मौका मिल जायेगा। इस आयत को हम आज के साइंस के इल्म की रौशनी में समझे तो पता चलता है कि इस आयत में प्रयुक्त शब्द चौकीदार से मुराद ओजोन परत है जो सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैगनी किरणों को सोखकर हमारी रक्षा एक चौकीदार की तरह करता है।
कुरान और हदीस की युगानुकुल व्याख्या की जाये तो यह अहले-इल्म को इस्लाम की तरफ आकर्षित करती है, और रसूल्लाह (सल्ल0) की शान उन अहले-इल्म की नजरों में और बढा़ती है।
शरीयत कानून के साथ भी यही बात है। सातवी, आठवीं या नौवी सदी में रचित ये विधान उस दौर के लिये यकीनन अक्षरशः पालन किये जाने लायक रही होंगी पर आज के दौर में उनकी काल, परिस्थिति और मुल्क के विधानों के अधीन व्याख्या किया जाना आवश्यक है और यही वो तरीका है जो इसे शाश्वत बनाये रख सकता है। नबी-ए-करीम (सल्ल0) की एक हदीस है जिस में आता है कि एक इंसान नबी करीम(सल्ल0) के पास आया और पूछा हम हिदायत के लिये किसकी तरह देखें ? नबी करीम(सल्ल0) ने फर्माया, कुरआन की तरफ! उस इंसान ने पूछा उसके बाद ? आपने फरमाया मेरी सुन्नत की तरफ। उस व्यक्ति ने फिर पूछा, अगर वहां से भी समाधान न मिला तो? तो आपने फरमाया, अपने उम्मत के उलेमा की तरह रुजु होना। उस व्यक्ति ने फिर पूछा, अगर वहां से भी समाधान न मिला तो? आपने फर्माया, फिर खुदा ने तुम्हें अक्ल किस लिये दिया है?
जिन इस्लामिक मुल्कों में शरीयत कानून लागू हैं वहां भी कई मसलों पर शरीयत और इस्लामी विधानों को नहीं माना जाता है। इनमें सबसे प्रमुख है बैंकिंग व्यवस्था और ब्याज। शरीयत कानून को मानने वाले मुल्क भी ग्लोबल हो रहे विश्व में दूसरे देशों के साथ व्यापारिक लेन-देन करने को मजबूर हैं, जो बिना बैंकिग व्यवस्था और ब्याज में शामिल हुये बिना संभव नहीं है। मिश्र में कहने को यूं तो शरीयत व्यवस्था लागू है और वही उनके विधान निर्माण का स्त्रोत है पर वास्तविकता ये है कि वहां पर चल रहा फौजदारी और दीवानी कानून आयातित है जिसकी बुनियाद 19 वीं के फ्रेंच कानूनों पर आधारित है। कई अपराधों के लिये कुरान में जो सजायें बताई गई हैं, उनका वहां अनुपालन नहीं होता। कई मसलें ऐसे हैं जिसे शरीयत तो मान्यता देती है पर वर्तमान परिपेक्ष्य में लागू करना उन्हें कटधरे में खड़े कर देगा मसलन इंसानों को गुलाम बनाने का विधान शरीयत में है , 1960 तक सऊदी अरब में इसे मान्यता प्राप्त थी पर 1960 के बाद वहां इसे खत्म कर दिया गया और आज शरीयत विधान का पालन करने वाले किसी भी मुल्क में गुलामी प्रथा का ये कानून मान्य नहीं है। जो इस्लामी मुल्क शरीयत लागू करतें हैं तो वो ये जरुर देखतें हैं कि इसके प्रावधान वर्तमान दौर के अनुरुप हैं या नहीं क्योंकि आधुनिक विश्व ऐसी कोई चीज स्वीकार करने को तैयार नहीं जो अब महत्वहीन और कालवह्य हो चुका है।
शरीयत से मुसलमान सर्वाधिक पीडि़त:-
किसी न सच ही कहा था कि शरीयत कानून से आज मुसलमान ही सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। वास्तव में आधुनिक काल के निरपेक्ष कानून को लागू करने की जिद ने मुसलमानों को और बिशेषकर महिलाओं को इसका शिकार बनाया है। इस शरीयत कानून के आधार पर अफगानिस्तान में बच्चियों को स्कूल नहीं जाने दिया जाता, कट्टरपंथी तालिबान उनके स्कूल जला देतें हैं। मलाला के साथ हुई बर्बरता की धटना तो अधिक पुरानी नहीं है। इसी अफगानिस्तान में एक महिला द्वारा मोजे न पहनें जाने पर सरेआम उसकी पिटाई कर दी गई वहीं एक दूसरी महिला को बाजार में धूमने के कारण गोली मार दी गई। भारत की अगर बात करें तो भारत में इमराना नाम की महिला के साथ उसके ससुर ने बलात्कार किया जिसके बाद शरीयत कानून के आधार पर यह फैसला दिया गया कि इमराना अब अपने पति के लिये हराम हो गई है। गुड़िया नाम की एक अन्य मुस्लिम महिला के साथ भी कुछ ऐसा ही जुल्म किया गया। शरीयत के हवाले से ही राजीव गांधी के समय शाहबानो नामक एक बूढ़ी मुस्लिम महिला को तलाक के बाद माकूल हक नहीं दिया गया। हाल ही में एक फतवा आया था जिसके अनुसार लड़की की शादी की न्यूनतम सीमा नहीं तय की जा सकती। कभी शरीयत के हवाले से औरतों के नौकरी करने पर परबंदी लगाई जाती है तो कभी गाड़ी चलाने की सजा के रुप में उन्हें कोड़े मारे जाते हैं तो कभी उनकी पढ़ाई और गाना बंद करवा दिया जाता है। पाकिस्तान के एक गांव में मुख्तारन माई नामक एक मुस्लिम लड़की के भाई ने गांव की किसी लड़की के साथ बलात्कार किया जिसके एवज में पंचायत ने शरीयत के आधार पर यह फैसला सुनाया कि सारे पंच सजा के तौर पर मुख्तारन के साथ बलात्कार करे। (यह मसला अंतराष्ट्रीय सुर्खियों में छाया रहा था )
जिस इस्लाम ने औरतों को कई हुकूक दिये थे, वही इस्लाम आज मौलानाओं और कट्टरपंथियों की मनमाफिक व्याख्याओं की गिरफ्त में है और शरीयत कानून के आड़ में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बदतर बना कर रख दी गई है, जिससे वो निजात पाने की ख्वाहिश रखती हैं।
क्या इससे इस्लाम का मजाक नहीं बनता?:-
जिन देशों ने यथावत शरीयत कानूनों को लागू करने की कोशिश की उन्हें उसके कारण आज पूरी दुनिया में मजाक का पात्र बनना पड़ रहा है। सऊदी अरब में शरीयत कानून लागू है जिसके अंदर ये प्रावधान है कि पीड़ित व्यक्ति अपराधी के लिये भी उसी सजा की मांग कर सकता है जो उसके साथ घटित हुई है! वहां की एक धटना है, किसी ने एक आदमी को छुरे के वार से धायल कर दिया जिसके कारण वो व्यक्ति लकवा का शिकार हो गया, अब वो शरीयत कानून का हवाला देकर ये मांग कर रहा है कि उसे लकवाग्रस्त करने को भी लकवाग्रस्त किया जाये। अदालत उसकी इस मांग पर हाथ बांध कर खड़ी है, क्योंकि डॉक्टरों के अनुसार कृत्रिम तरीके से अगर उसे लवाग्रस्त किया गया तो उसके जान जाने का खतरा है। सारी दुनिया के माडिया इस मुद्दे पर लाचार सऊदी सरकार का मजाक बना रही है। इस्लाम का मजाक बनाने वाले शरई फरमानों की ऐसी दसियों मिसालें इतिहास में दफ़न हैं चाहे वो इमराना का मामला हो या पाकिस्तानी लड़की मुख्तारन माई का या फिर अफगानिस्तान की बहादुर बेटी मलाला की।
शरीयत इस्लामी जगत में ही अस्वीकार्य:-
अगर मध्ययुगीन शरई कानून स्वीकार्य होता तो इस्लामिक मुल्कों में इसको लागू करने को लेकर धमासान नहीं होता। आज तक के उदाहरण तो यही बतातें हैं कि मुस्लिम देशों ने इस कानून को कभी लागू करना नहीं चाहा, अगर कट्टरपंथियों के दबाब मे कभी इसे लागू भी करवाने की कोशिश की गई तब भी इसके कई प्रावधानों को छोड़ दिया गया। इस्लामिक जगत में ही कभी इस्लामी शरीयत पूर्णरुपेण स्वीकार्य नहीं रही। इसके कई उदा0 हैं-
* सूडान के शहर खारतून में एक इस्लामी बुद्धिजीवी को केवल इसलिये फांसी पर लटका दिया गया था क्योंकि कालवह्य हो चुके इस्लामी कानूनों को बदलने की मांग की थी।
* तुर्की में सन् 1920 में ग्रैण्ड नेशनल असेम्बली का प्रथम अधिवेशन मुस्तफा कमाल पाशा की अध्यक्षता में अंकारा में हुआ। इस असेंबली ने 3 मार्च 1924 को तुर्की का संविधान पारित किया। इस संविधान की धारा 2 में इस्लाम को राजकीय मजहब धोषित किया गया था। 1928 में संविधान से यह धारा निकाल दी गई। इसके बाद पान-इस्लामिज्म के स्थान पर पान-तुर्कीइज्म शब्द का प्रयोग होने लगा। सन् 1925 में शरीयत के अनुसार की जाने वाली शादी को अवैध धोषित किया गया व उसके जगह समयानूकूल कानून बनाये गये जिसमें स्विस सिविल कोड, जर्मन कौर्मशियल कोड तथा इटैलियन पिनल कोड को शामिल किया गया। सिविल मैरिज को अनिवार्य बनाया गया। सन् 1928 में अरबी लिपि को अवैध धोषित कर दिया गया और रोमन लिपि को स्वीकार कर लिया गया। 1934 में महिलाओं को मताधिकार का अधिकार दिया गया। ये सारी बातें इस्लामी शरीयत से मेल खाने वाली नहीं थी। इसी तरह सन् 1935 में शुक्रवार के स्थान पर रविवार की छुट्टी शुरु हो गई और श्री गोआकआल्प के नेतृत्व में तुर्कीकरण का अभियान चला जिसके द्वारा समयानुकुल कानून बनाए जाने लगे।
* तुर्की की तरह के क्रांतिकारी बदलावों का प्रयास ईरान में रजा शाह पहलवी के द्वारा चलाया गया। उसने भी अपनी भाषा का शुद्धीकरण किया और कमालपाशा की तर्ज पर वो सारे काम किये जो इस्लामी शरीयत की जगह नये विधान लाने के लिये थे।
* मलेशिया में महाथिर मोहम्मद की जब पंथनिरपेक्ष सरकार चल रही थी तब वहां की जनता ने सर्वइस्लामवाद का प्रचार करने वाली पार्टी ऑल मलाया मुस्लिम पार्टी का बहिष्कार किया। वित्त मंत्री अनवर इब्राहीम के नेतृत्व में चलाये जनजागरण अभियान का लोगों ने भरपूर स्वागत किया जिसमें यह कहा जाता था कि "इस्लाम शरीयत नहीं है, वह तात्कालिक अरब समाज का कानूनी विधान था जो आज कालवह्य हो चुकी है। भूख, गरीबी, रोजगार की बात न कर कर शरीयत में उलझाये रखना गरीब मुसलमानों को गुमराह करना है।‘"
* अल्जीरिया में इसी तरह शरीयत के स्थान पर काल सापेक्ष कानून लाने को लेकर अंतद्वंद चला। अल्बानिया विश्व का प्रथम मुस्लिम देश था जिसने खुद को नास्तिक धोषित किया और शरीयत को बिलकुल ठुकरा दिया। आज पाकिस्तान समेत दुनिया के कई इस्लामी देश परिवार नियोजन को कानूनी मान्यता दे रहें हैं जो शरीयत के खिलाफ है। इतना ही नहीं इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान में ही शरीयत कानून के लागू करने को लेकर द्वंद चल रहा है।
ये बिषय जरुर मुसलमानों के लिये विचार के दायरे में आने चाहिये कि आखिर क्यों शरीयत कानूनों को मुसलमान मुल्कों में ही स्वीकार्यता नहीं मिल रही है, अगर वहां उन्हें स्वीकार्यता नहीं मिल रही है तो फिर गैरइस्लामी मुल्कों में उसे लागू करवाने की मांग करना अनुचित नहीं है?
इस्लाम आसानी के लिये आया था सख्ती के लिये नहीं
हजरत मुहम्मद (सल्ल0) जिस दीन को लेकर आये थे वो मानवमात्र की भलाई के लिये था, लोगों की जिंदगियां आसान करने आया था पर शरीयत कानून की गलत व्याख्या और उसे गलत तरीके से लागू किये जाने के तरीके ने इसे सख्त बना दिया। आखिर कोई तो वजह होगी जिसने Divine माने जाने वाले इस कानून के खिलाफ धार्मिक मुसलमानों को आवाज उठाने पर मजबूर किया? इस्लामी तारीख गवाह है कि मौलानाओं के द्वारा गढ़े गये शरीयत कानून ने न जाने कितने मासूमों की जिंदगियां तबाह की। इस कानून की ज्यादातर शिकार महिलायें हुई हैं। पुरुष केंद्रित समाज ने शरीयत को महिलाओं का हक छीनने का हथियार बना दिया जबकि मोहम्मद (सल्ल0) जो दीन लेकर आये थे उसमें औरतों को बराबर के हुकूक दिये गये थे और कहीं भी मर्दों से कमतर नहीं आंका गया था।
क्या समान नागरिक संहिता इस्लाम विरुद्ध है?
हमारे भारत का संविधान धर्म का विचार किये बिना इस देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करता है, हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता की बात करता है। पर वास्तविकता में ऐसा है नहीं क्यूंकि भारत दुनिया का अकेला ऐसा मुल्क है जहां उसके एक अल्पसंख्यक समुदाय के निजी विधानों को मान्यता दी गई है। भारतीय मुसलमान मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937 के तहत शासित होतें हैं, जो मुसलमानों को उनके सामाजिक पहलुओं यथा विवाह, तलाक, मेहर, खुला, विरासत आदि बिषयों पर उन्हें निर्देर्शित करता है। अदालतें भी सुन्नी मुसलमानों के लिये हनफी शरई व्यवस्था के प्रावधानों को उनके लिये लागू करती है। शिया मुसलमानों का अलग मसला है। एक मुल्क जो समानता के अधिकारों की बात करता हो वहां महज पूजा-पद्धति के फर्क के चलते अलग विधानों को मंजूर करना देश के विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्यता को बढ़ावा देता है। हर मुल्क अपना विधान अपने देश की परिस्थिति के अनुरुप बनाता है, उदाहरणार्थ कोई मुल्क जहां साल भर कड़क सर्दी पड़ती हो लड़कियों के लिये छोटे वस्त्र पहनने का विधान नहीं बनाता क्योंकि ऐसा करना उस मुल्क की परिस्थति के विपरीत होगा। कई बार समयानुसार मुल्क के हित को ध्यान में सरकारें विधानों में तब्दीली करती है। अतः ऐसी तब्दीलियों को स्वीकार करना उसके तमाम देशवासियों का कर्तव्य होता है अगर कोई ऐसा न करे तो उसके विरुद्ध सजा का प्रावधान होता है। एक मुल्क, एक नस्ल, एक भाषा, समान जीवन-मूल्य और समान संस्कृति बस पूजा-पद्धति की भिन्नता है, तो किस आधार पर कुछ लोगों के लिये विधान अलग होने चाहिये? इस बात की इजाजत न तो अक्ल देता है और न ही कुरआन और नबी करीम (सल्ल0) की हदीसें देतीं हैं। नबी करीम(सल्ल0) की तालीमें मुसलमानों को इसी बात की ताकीद करती है कि वो जिस हुकुमत के ताबे हैं, उसके द्वारा तय किये गये विधानों को मानें और उसके ताबे रहें। नबी करीम (सल्ल0) की मुसलमानों से ये अपेक्षा है कि वो सरकार के द्वारा लागू किये गये विधानों को माने और उसका अनुपालन करने को तैयार रहे। इस उत्कृष्ट राज्यव्यवस्था का नाम बैअत है। (सूरह मुम्तहिना, आयत: 12)
नबी (सल्ल0) की तालीमें भी यही बताती है। इससे मुतल्ल्कि कई हदीसें हैं-
* नबी (करीम) ने फर्माया, जो मेरा आज्ञाकारी है वह अल्लाह का आज्ञाकारी है और जिसने मेरी अवज्ञा की, उसने अल्लाह की अवज्ञा की। जिसने अपने साहिबाने-हुकूमत की आज्ञा मानी, उसने मेरी आज्ञा मानी और जिसने अपने साहिबाने-हुकूमत की अवज्ञा की उसने मेरी अवज्ञा की। (सहीह मुस्लिम, किताबुल इमरा)
* हजरत अनस बिन मालिक से रिवायत है कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया, अमीर की बात सुनते और मानते रहो, अगरचे तुम पर हब्शी गुलाम ही अमीर क्यों न बनाया गया हा, जिसका सर गोया (छोटे होने में) किशमिश की तरह हो। (बुखारी शरीफ)
* हजरत वाइल हजरमी से रिवायत है, रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया, तुम अमीरों की बात सुनो और मानो क्योंकि उनकी जिम्मेदारियों (मसलन इंसाफ करना) के बारे में उनसे और तुम्हारी जिम्मेदारियों के बारे में तुमसे पूछा जाएगा (मसलन अमीर की बात मानना) (मुस्लिम शरीफ)
* हजरत अब्दुल्ला बिन उमर रिवायत करतें हैं कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया कि अमीर की बात मानना और सुनना मुसलमान पर बाजिब है। (मस्नदे अहमद)
* हजरत जैद बिन साबित से रिवायत है कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया तीन आदतें ऐसी हैं जिनकी वजह से मोमिनों का दिल कीना और खयानत (हर किस्म की बुराई) से पाक रहता है, उसमें से एक है हाकिमों की खैरख्वाही करना। (इब्ने हब्बान)
अगर हमारे मुल्क का संविधान समान नागरिक संहिता की बात करता है तो मुसलमानों को चाहिये कि वो इसके अनुरुप तय व्यवस्था को माने और उसकी मुखालफत न करें। नियम या विधान मुल्क और उसके निवासियों की प्रकृति और परंपरा के हिसाब से भी बनाये जातें हैं ! दारुल उलूम देबबंद ने कई मौकों पर इस बात को माना है और कई ऐसे फतवे जारी किये हैं जो इस्लामी अकीदे के एतबार से तो दुरुस्त थे पर भारतीय परंपरा के अनुसार दुरुस्त नहीं थे। इन्हीं फतवों में चार शादी और गोहत्या से जुड़ा मसला भी है जिसमें देबबंद ने मुसलमानों को इन मसलों को भारतीय परंपरा और इसके निवासियों की प्रकृति को जेहन में रखकर देखने का निर्देश दिया था।
आज पूरे विश्व में शरीयत के बिषय और इसे बार-2 उसी मूल रुप में लागू किये जाने की कट्टरपंथियों की मांग ने इस्लाम और मुसलमानों की छवि जड़वादी, रुढिवादी और दकियानूस की बना दी है जिसके बारे में ये समझा जाने लगा है कि दुनिया आगे की चलती है तो मुसलमान पीछे की ओर जातें हैं। बदलाव और सुधार वक्त की जरुरत होती है और मानव जीवन विधान नदी की तरह होतें हैं, जो इसको नहीं समझता वो ठहरे हुये पानी की तरह हो जाता है जिससे सिवाये सड़न और बदबू के कुछ हासिल नहीं हो सकता और लोग भी जिसके किनारे दम धुटता हुआ महसूस करतें हैं। मौलानाओं की जरुरत से ज्यादा दखलंदाजी, निजी जीवन के मसलों में उनके धुसपैठ, हर बात की अपनी मनमानी व्याख्या ने मुसलमानों की जिंदगी को तो धुटन बनाया ही है साथ ही साथ उन्हें उन्हें अपने जमाने के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने भी नहीं दे रहें और तो और अपने हमवतनों के बीच भी उनकी छवि हास्यापद बना रहें हैं तथा मीडिया को मौके दे रहें कि वो चटकारे ले लेकर इन खबरों को परोसे। मौलाना आजाद ने सही कहा था, “मुफ्ती की कलम हमेशा से मुस्लिम आतताईयो की साझीदार रही है और दोनों ही तमाम ऐसे विद्वान और स्वाभिमानी लोगों के कत्ल में बराबर के जिम्मेदार हैं जिन्होनें इसकी ताकत के आगे सर झुकाने से इंकार कर दिया।“
शरीयत कानूनों की युगानुकुल व्याख्या हो, इस्लामी धर्मविधानों का वर्तमान विधानों के साथ सामंजस्य बिठाया जाये और मुसलमान जिस मुल्क में रहतें हैं उसके विधानों के अधीन जिंदगी गुजारने की कोशिश आरंभ करें, यही मुसलमानों के हक में सबसे सार्थक बात होगी।
अभिजीत मुज़फ्फरपुर (बिहार) में जन्मे और परवरिश पाये और स्थानीय लंगट सिंह महाविद्यालय से गणित विषय में स्नातक हैं। ज्योतिष-शास्त्र, ग़ज़ल, समाज-सेवा और विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों का अध्ययन, उनकी तुलना तथा उनके विशलेषण में रूचि रखते हैं! कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में ज्योतिष विषयों पर इनके आलेख प्रकाशित और कई ज्योतिष संस्थाओं के द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिशों के लिए कटिबद्ध हैं तथा ऐसे विषयों पर आलेख 'कांति' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इस्लामी समाज के अंदर के तथा भारत में हिन्दू- मुस्लिम रिश्तों के ज्वलंत सवालों का समाधान क़ुरान और हदीस की रौशनी में तलाशने में रूचि रखते हैं।
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