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Hindi Section ( 28 March 2014, NewAgeIslam.Com)

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Islam, Other Religions and Non Muslims इस्लाम, अन्य मजहब और गैर-मुस्लिम

 

 

 

 

अभिजीत, न्यु एज इस्लाम

29 मार्च, 2014

आज सारी दुनिया में धर्म के नाम पर झगड़े चल रहें हैं, प्रायः हर मजहब का मानने वाला अपने मजहब को श्रेष्ठ और बाकियों को निम्न समझता है। ऐसी सोचों की परिणति वैचारिक मतभेद से भी कहीं आगे जाकर हिंसा, मारकाट और खून-खराबा तक पहुँच चुकी हैं। धर्म के नाम पर हो रही हिंसा की जड़ में वैसे मत के मानने वालों का योगदान अधिक है जो मतपरिवर्तन में विश्वास रखतें हैं। उनकी ये सोच होती है कि उनके मत के अलावा दुनिया के तमाम दूसरे मत और मतांबलंबी गुमाराही के रास्ते पर हैं। इतना ही वो इस बात को अपना पुनीत कर्तव्य समझतें हैं कि दुनिया के तमाम गुमराहों को सही रास्ते पर लाया जाये ! दूसरों को सही रास्ते पर लाने के लिये अपनाये गये हर तरीके को वो जायज समझतें हैं।

मतपरिवर्तन की अवधारणा या व्यवस्था बेशक इस्लाम में रही है पर यह मतपरिवर्तन से पूर्व दिल परिवर्तन करने का रहा है, पवित्र कुरआन और नबी करीम की कई हदीसे इस बारे में हैं जो बताती है कि कोई अपने मजहब के रुप में इस्लाम को तभी स्वीकार करे जब उसका दिल इसके लिये तैयार हो। "दीन में कोई जर्बदस्ती नहीं है" का मशहूर सिद्धांत कुरआन की अमूल्य देन है। इस्लाम कहीं भी ये नहीं सिखाता कि अपने से भिन्न अकीदे रखने वालों का कत्ल कर देना चाहिये या उनके साथ धृणा का व्यवहार करना चाहिये। अफसोस कि नबी करीम (सल्ल0) के जाने के बाद उनके उम्मती इस्लाम की इस खुबसूरत तालीम को भूला बैठे और गैर-मुस्लिमों का जबरन मतान्तरण, उनके साथ धृणा और भेदभाव का व्यवहार करने लगे। उनके इन कृत्यों ने न केवल इस्लाम की तालीम को गलत रुप में प्रस्तुत किया वरन् गैर-मुस्लिमों की नजर में इस्लाम की छवि भी खराब की। इस्लाम की तालीम एक मुसलमान को सभी इंसानों का (भले ही वो किसी भी मत या अकीदे का मानने वाला हो) सम्मान करने की शिक्षा देता है।

धार्मिक उदारता और बहुलवाद इस्लाम का महत्वपूर्ण सिद्धांत

जब कुरआन इस बात की उद्धोषणा करता है कि 'हर एक के लिये एक दिशा है' तो स्पष्ट हो जाता है कि कुरआन मानव विविधता और इस विविधता के आधार पर सृजित सिद्धांतों को अपनी स्वीकृति देता है। 'एकम् सद् विप्राः बहुधा वदन्ते' कहकर सृष्टि के आंरभ में पवित्र वेद ने इस अवधारणा को प्रलय काल तक के लिये तय कर दिया था कि 'सत्य एक है जिसका विद्वान लोग अलग-2 तरीके से व्याख्या करतें हैं।'

स्थितियों और परिस्थितियों के लिहाज से हर मनुष्य एक दूसरे से अलग है इसलिये जरुरी नहीं कि जो चीज किसी एक के लिये सही हो सभी उसी का अनुगमन करें। उदाहरणार्थ कोई शहर जो भारत के मध्य भाग में अवस्थित हैं वहां आने के लिये कश्मीर वाले को दक्षिण की तरफ , कोलकाता वाले को पश्चिम की तरफ, कच्छ वाले को पूर्व की तरफ और चेन्नई वाले को उत्तर की तरफ चलना पडे़गा। अगर कोई इन चारों को एक ही दिशा उदा0 उत्तर की तरफ बढ़ने को कहे तो केवल चेन्नई वाला ही अपने गंतव्य तक पहुँच सकेगा बाकी सब अपने लक्ष्य से काफी दूर चले जायेंगें। कुरआन ने भी इसी बात को कहा कि हर इंसान का गंतव्य एक है पर दिशा अलग-2 है जो कभी विभेद का कारण नहीं बनना चाहिये बल्कि अपने कर्मपथ पर अग्रसर रहते हुये भलाई में अग्रसरता प्राप्त करनी चाहिये। एक नहीं वरन् पवित्र कुरान में ऐसी कई आयतें हैं जो बहुलवाद सिद्धांत के मान्यताओं की पुष्टि करती है।

- "हमने तुममें से हर एक के लिये धर्मविधान और कर्मपथ निश्चित किया है। और यदि अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक गिरोह बना देता परंतु उसने ऐसा नहीं किया ताकि जो कुछ उसने तुम्हें दिया है उसमें तुम्हारी परीक्षा ले। तो भलाई के कामों में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश करो। तुम सबको अल्लाह की ओर लौटना है फिर वह तुमको बता देगा जिसमे तुम विभेद करते रहे हो।" (सूरह माइदह, आयत :48)

- "और उसकी निशानियों में से आकाशों और धरती का पैदा करना, और तुम्हारी भाषाओं और रंगों की भिन्नता है। निःसंदेह इसमें बहुत सी निशानियां है ज्ञान वालों के लिये।" (सूरह रुम, आयत: 22)

- "और सब मनुष्य एक ही गिरोह है, फिर उन्होंनें विभेद किया और यदि तेरे रब की ओर से एक बात पहले से न निश्चय पा गई होती तो जिस चीज में वो विभेद कर रहें हैं उसका उनके बीच फैसला कर दिया जाता।" (सूरह यूनुस ,आयत:19)

-"और यदि तेरा रब चाहता तो तो निश्चय ही सारे लोगों को एक गिरोह बना देता, परंतु अब तो वो सदैव विभेद करते रहेंगें।" (सूरह हूद, आयत: 118)

- "कह दो: बस तर्क तो पहुँचा हुआ अल्लाह का रहा तो यदि वह चाहता तो तुम सबको मार्ग पर लगा देता।" (सूरह अनआम, आयत:149)

- "ऐ लोगों ! हमने तुम्हें पैदा किया एक पुरुष और स्त्री से और तुम्हारी बहुत सी जातियां और वंश बनाये ताकि तुमलोग एक-दूसरे को पहचान सको। अल्लाह के यहां तो तुममें सबसे ज्यादा इज्जत वाला वो है जो तुममें सबसे अधिक डर रखता है।" (सूरह हुजूरात, 13)  (यहाँ यह सनद रहे कि इसमें मुसलमान होने की कोई शर्त नहीं है। )

पांथिक विविधता खुदा की व्यवस्था: वह सबको तस्लीम करता है:-

एक इंसान भले ही दूसरे इंसान को कोई आधार बनाकर खुद से कमतर समझे पर ईश्वर की नजर में उसकी कोई भी रचना कमतर नहीं है। हाँ, ईश्वर की इंसानों से इस बात की अपेक्षा जरुर रहती है कि वह उसकी अता की हुई नेअमतों का शुक्रगुजार बने। पवित्र कुरआन की कई आयतें हैं जो पांथिक विविधता की पुष्टि करता है और इस आधार पर खुदा ने इंसानों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव नहीं रखा है।

- "और हमने औलादे-आदम को इज्जत बख्शी।" (सूरह बनी इसरायल, आयत: 13) (इस आयत में कुरआन ने ये नहीं कहा कि उसने केवल मुसलमानों को इज्जत बख्शी।)

- "वही है जिसने तुम्हें पैदा किया, फिर कोई तुममें से काफिर है और कोई तुममें से ईमानवाला है, और जो कुछ तुम करते हो उसे अल्लाह देखता है।" (सूरह तगाबुन: आयत: 2)

- "और यदि अल्लाह लोगों को एक-दूसरे से हटाता न रहता तो (संतो, संन्यासियों आदि के) आश्रम और गिरिजा और (यहूदियों के) उपासना गृह और मस्जिदें , जिनमें अल्लाह का अधिक नाम लिया जाता है सब ढ़ा दी जाती।" (सूरह अल-हज्ज, आयत:40)

मनुष्यों के बीच विविधता का होना ईश्वर की तरफ से हमारे लिये एक इम्तहान है कि हम मतभेदों के बाबजूद एक दूसरे के साथ ठीक तरह से रह पाते हैं कि नहीं। अगर नहीं रह पाते तो हम इस इम्तहान में असफल समझे जायेंगे। कोई इंसान केवल इस कारण ही दूसरों से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकता वो किसी खास मत , मजहब या पंथ को मानने वाला है। हर मत का मानने वालों ने अलग नामों से उसी एक ईश्वर की इबादत के लिये मस्जिद , मंदिर , गिरिजा आदि बना रखें हैं,  उनका सम्मान करना भी हर एक की जिम्मेदारी है।

स्पष्ट है की पांथिक विविधता खुदा की देन है और वह हर इंसान को, उसके इबादत के तरीकों को और खुदा के राह में की गई उसकी जद्दोजहद को तस्लीम करता है।

ईश्वर की कृपा सबके लिये

ईश्वर ने सारी कायनात हम इंसानों के लिये बनाई है। वो अपनी किसी भी रचना को अपनी नेअतमों से महरुम नहीं करता। खुदा ने सूरज की रौशनी, चांद की शीतलता, नदियों का जल तथा वृक्षों के फल को किसी खास इंसान के लिये ही सीमित नहीं रखा वरन् उनकी नेअमतें सारे इंसानों के लिये समान रुप से उपलब्ध है। ईश्वर अपने रहमत के आगोश में हर उस इंसान को समेटने को तैयार रहता है जो उसकी बंदगी करने वाला हो, उसकी नेअमतों का शुक्र अदा करने वाला हो और उसके बंदों को तकलीफ न देने वाला हो। पवित्र कुरआन में इससे संबधित कई आयतें हैं।

- "हाँ, निस्संदेह जो कोई भी अपने आप को अल्लाह के आगे झुका दे और वह उत्तम रीति से कर्म करने वाला है तो उसके लिये उसके लिये उसके रब के पास उसका प्रतिदान है, ऐसे लोगों को न कोई भय होगा और न वो दुःखी होंगें।" (सूरह बकरह, आयत:112)

-"और दीन की दृष्टि से उस व्यक्ति से अच्छा कौन हो सकता है जिसने अपने आपको अल्लाह के सामने झुका दिया और वह उत्तम रीति से कर्म करने वाला भी हो।" (सूरह निसा, आयत: 125)

गैर-मुस्लिमों के साथ इंसाफ और भलाई: कुरआन का हुक्म

जब कुरआन मुसलमानो के बारे में ये कहता है कि तुम सबसे बेहतरीन उम्मत हो जो लोगो में पैदा हुआ तो ऐसा कहने के साथ वो मुसलमानों के लिये कुछ कर्तव्य भी निश्चित करता है, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण गैर-मुस्लिमों के साथ सद्व्यवहार करने का आदेश है। कुरआन एक मुसलमान को आदेश देता है कि वो हर हाल में वो गैर-मुस्लिमों के साथ बराबरी और इंसाफ का व्यवहार करें, उनका दिल न दुखाये, जबरन उनकी चीजों पर कब्जा न करें, उनकी औरतों, पूजा-पद्धति और इबादतगाहों का सम्मान करे। कुरान में आया है:-

-" निःसंदेह अल्लाह न्याय और भलाई करने और नातेदारों को उसका हक देने का हुक्म देता है।" (सूरह नहल, आयत: 90)

-" हे ईमान वालों ! अल्लाह के लिये इंसाफ पर मजबूती के साथ कायम रहने वाले बनो इंसाफ की गवाही देते हुये और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की दुश्मनी तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इंसाफ करना छोड़ दो। इंसाफ करो यही तकवा से लगती हुई बात है।" (सूरह माइदह, आयत: 8)

-" नेकी और वफादारी यह नहीं है कि बस तुम अपने चेहरे पूर्व या पश्चिम की तरफ कर लो, बल्कि उसकी वफादारी है जो अल्लाह पर, अंतिम दिन पर, फरिश्तों पर, किताब पर और नबियों पर ईमान लाये और माल का स्वाभाविक मोह होने पर भी नातेदारों, अनाथों, मुहताजों, मुसाफिरों और मांगने वालों को दें और गर्दनें छुड़ाने में खर्च करे।" (सूरह बकरह, आयत: 177)

-" और तुम सब अल्लाह की बंदगी करो, उसके साथ किसी को शरीक न करो, माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो, नातेदारों, यतीमों और मुहताजों के साथ अच्छा व्यवहार करो, और पड़ोसी नातेदार से, और अपरिचित पड़ोसी से, पहलू के साथी और मुसाफिर से और उन दास-दासियों से जो तुम्हारे अधिकार में हो, एहसान का मामला रखो।" (सूरह निसा, आयत: 36)

-"तो नातेदार को उसका हक दो और मुहताज और मुसाफिर को उसका हक। यह उत्तम है उसके लिये जो अल्लाह की ख़ुशी चाहते हैं। (सूरह रुम, आयत:38)

- “सदके तो वास्तव में गरीबों और मुहताजों के लिये हैं, और उन कर्मचारियों के लिये जो इस (सदके के काम) पर लगें हों और उनके लिये जिनके दिलों को परचाना हो, और अल्लाह के मार्ग में, और मुसाफिर की सहायता में लगाने के लिये है। यह अल्लाह का ठहराया हुआ हुक्म है।" (सूरह तौबा, आयत:60)

उपरोक्त आयतों में कुरआन ने मुहजाजों, नातेदारों, मुसाफिरों, गरीबों और अनाथों के साथ अच्छा व्यवहार करने और उनका हक तस्लीम करने की बात की है, जिसमें उनके मुसलमान होने की कोई शर्त नहीं है।

-"जिन लोगों ने तुमसें दीन के बारे में जंग नहीं कि,  न तुमको तुम्हारे धरों से निकाला,  उनके साथ इंसाफ का सुलूक करने से खुदा तुमको मना नहीं करता। खुदा तो इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है।" (सूरह मुम्तहना, आयत: 8)        

यह आयत तो स्पष्ट रुप से गैर-मुस्लिमो के बारे में है। कुरान किसी मुसलमान को केवल उन्हीं लोगों से जंग करने की अनुमति देता है जो उनके मजहबी अकीदों को पूरा करने देने में बाधक बनतें हैं, अन्यथा बाकी तमाम दूसरे लोगों से कुरान इंसाफ करने कर हुक्म देता है।

- और यदि अल्लाह लोगों को एक-दूसरे से न हटाता रहता तो (संतों, संन्यासियों आदि के) आश्रम और गिरिजा और (यहूदियों के) उपासना गृह तथा मस्जिदें, जिनमें अल्लाह का अधिक नाम लिया जाता है, सब ढ़ा दी जातीं। (सूरह हज्ज: आयत : 40)

इस आयत में कुरआन ने गैर-मुसलमानों के इबादतगाहों की सुरक्षा और सम्मान का हुक्म दिया है।

कुरान की परिभाषा में मुस्लिम कौन?

इस बात को समझना भी आवश्यक है कि मुस्लिम की परिभाषा क्या है या मुसलमान कौन हो सकता है। किसी मुस्लिम घर में जन्म लेना या मुस्लिम नाम रख लेना ही मुस्लिम होना नहीं है। कुरआन की परिभाषा के अनुसार मुस्लिम उसे कहतें हैं जो अपनी तमाम ख्वाहिशों और कामनाओं को ईश्वरेच्छा के अधीन कर दे। इसलिये इस परिभाषा के आधार पर एक गैर-मुसलमान भी जो अपनी इच्छाओं को ईश्वरेच्छा में विलीन कर ले, मुस्लिम कहला सकता है। कुरआन की आयतों में नबी करीम (सल्ल0) के पूर्ववर्ती नबियों के बारे में आता है कि वो भी ईश्वर के आज्ञापालक होने के कारण मुस्लिम थे। जिससे स्पष्ट है कि जो भी खुदा के आगे झुक जाये वो मुसलमान है।

- "क्या तुम उस समय मौजूद थे जब याकूब की मृत्यु का समय आया ? जब उसने अपने बेटों से पूछा,  मेरे बाद तुम किसकी बंदगी करोगे ? वे बोले, हम आपके इलाह और आपके पूर्वज इब्राहीम और इस्माईल और इसहाक के इलाह की इबादत करेंगें जो अकेला इलाह है, और हम सब उसी के मुस्लिम हैं।" (सूरह बकरह, आयत:133)

-" क्योंकि उससे (इब्राहीम) उसके रब ने कहा, मुस्लिम हो जा। वह पुकार उठा, मैं सारे संसार के रब का मुस्लिम हो गया।" (सूरह बकरह, 131)

-"इसी की वसीयत इब्राहीम ने अपने बेटे को की थी और याकूब ने भी अपनी संतान को कि मेरे बेटों! अल्लाह ने तुम्हारे लिये यही दीन निर्वाचित किया, तो तुम मुस्लिम ही रहकर मरना।" (सूरह बकरह, 2:132)

-"उस शख्स से बेहतर कौन हो सकता है जो लोगों को अपने रब की ओर बुलाये और नेक अमल करे और कहे कि मैं मुस्लिम हूँ।" (सूरह सज्दा, 33)

अपनी एक हदीस में नबी करीम (सल्ल0) ने खजूर के पेड़ को भी मुस्लिम कहा था। खजूर का पेड़ तो कलमा नहीं पढ़ सकता फिर उसको मुस्लिम कहने की वजह क्या थी ? वजह ये थी कि खजूर उन चंद वृक्षों में से है जिनकी जड़ें आड़ी-तिरछी न बढ़कर नीचे की ओर सीधी बढ़ती है और आसपास के किसी दूसरे पेड़ या मकान को नुकसान नहीं पहुंचाती। नबी करीम (सल्ल0) का खजूर को मुसलमान कहने के पीछे का तात्पर्य यही था कि वो इंसान जिसके कारण किसी दूसरे को तकलीफ नहीं पहुंचती मुस्लिम है। मुसलमानों में बहुत से ऐसे हैं जो मुस्लिम घरों में पैदा होने की वजह से मुस्लिम है अन्यथा उनके आमाल उनके मुस्लिम होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। ऐसे में किसी को भी मुस्लिम या गैर-मुस्लिम कहने से पहले कुरआन में दी गई मुस्लिम की परिभाषा को सामने रखना आवश्यक है।

 

इस्लाम के मानने वालों में भी विभेद हैं :-

ईश्वर ने मनुष्य को सोचने-समझने की क्षमता दी है तो जाहिर है कि चीजों को देखने का उनका नजरिया भी अलग होगा। किसी भी चीज को अपनी दृष्टि से देखने और अपनी समझ के अनुसार राय कायम करने का बुनियादी हक हर इंसान को है जो धार्मिक समूहों के बीच ही नहीं वरन् किसी धर्म के ही विभिन्न मसलकों के बीच भी हो सकता है। इसी इंसानी हुकूक की बुनियाद पर हिंदुओं में शैव, शाक्त, जैन, बैष्णव आदि पूजा पद्धतियां जन्मीं तो ईसाईयत में रोमन कैथोलिक, प्रोटैस्टैंट आदि। एक उम्मत का दावा करने वाले मुसलमान भी इससे अछूते नहीं रहे। इस्लाम के मानने वालों ने भी अपनी सोच और राय को बुनियाद बना कर इस्लाम के अंदर कई फिरकों को जन्म दे दिया। इसकी वजह इस बुनियाद पर है कि ये कतई जरुरी नहीं है कि हर शख्स किसी एक के राय को ही अंतिम मान ले। कुरआन की इस आयत का ये अर्थ है और फ्लां हदीस की ये ताबीर है, ऐसा मानना हर इंसान के बुनियादी हुकूक के ताबेअ है जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता।

मोटे तौर पर इस्लाम के मानने वालों के बारे में ये माना जाता है कि वो शिया और सुन्नी केवल दो फिरकों में बंटे हैं पर वास्तविकता में इस्लाम के अंदर बहुत सारे फिरकों ने जन्म ले लिया है जिनका एक-दूसरे के साथ कई मसलों पर जर्बदस्त इख्तलाफ है। नबी करीम (सल्ल0) की एक पेशीनगोई के मुताबिक इस्लाम के 73 फिरके आज वजूद में आ चुकें हैं। हर मस्लक का मानने वाला इस बात पर अडिग है कि केवल वो और उसका फिरका ही सही है बाकी सब गुमराह हैं। जिसके नतीजे में हर फिरके के इमामों ने दूसरे फिरके वालों के खिलाफ कुफ्र और कत्लो-गारत का फतवा दे रखा है। विभिन्न मजहबों के बीच जन्में दर्शन सिद्धांत या मस्लक इस बात की तस्दीक करती है कि ईश्वर पर किसी एक समुदाय का अधिकार नहीं हो सकता और उस तक पहुंचने का केवल एक रास्ता या तरीका नहीं हो सकता। अगर हो सकता होता तो एक अल्लाह और उसके रसूल का कलमा पढ़ने वालों के बीच इतने सारे विभेद न होते। गैर-मुस्लिमों के इबादत के तरीके, सोच और अकीदे की वजह से उन्हे गुमराह और जहन्नमी समझने वालो को चाहिये कि अपने मजहब के भीतर जन्मे मस्लक और फिरकों के बारे में भी विचार करे। मुसलमानों के लिये आज अन्य मजहबों के साथ धार्मिक संवाद के साथ-2 अपने तमाम फिरकों के बीच अंतरपांथिक संवाद की भी जरुरत है।

हर मनुष्य सिर्फ अपनी चिंता करे

पवित्र कुरआन की आयत है, "गुमराह कौन है इसका इल्म खुदा को है। निःसंदेह तुम्हारा रब उसे भली-भांति जानता है जो उसके मार्ग से भटक गया और वह मार्ग पाने वाले को भी भली-भांति जानता है। (सूरह नहल, आयत:125) यानि किसी इंसान को ये कतई हक नहीं है कि वह किसी के ईमान वाले होने या न होने का फैसला करे, किसी के ईमान वाले होने या न होने का इल्म केवल खुदा को है इसलिये कुरआन मनुष्यों को उसकी जिम्मेदारी बताते हुये कहता है, "हे ईमान लाने वालों। तुम्हें अपनी चिंता होनी चाहिये। यदि तुम रास्ते पर हो तो किसी के पथभ्रष्ट हो जाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता। अल्लाह की ओर तुम सबको लौट कर जाना है, फिर वह तुम्हें बता देगा जो कुछ तुम करते रहे हो।" (सूरह आराफ, आयत-105)

ईश्वर सबका: उस पर किसी एक का हक नहीं हो सकता

यह सोच बिल्कुल गलत है कि ईश्वर किसी खास मजहब के मानने वालों का है और बाकियों को उसपर अधिकार जताने का कोई हक नहीं है। इस तरह की संकुचित सोच के कारण ही मलेशिया में कुछ महीने पहले एक विवाद उठ खड़ा हुआ था। ये विवाद इस बात पर था कि रोमन कैथोलिक ईसाईयों ने मलय भाषा में छपने वाले एक अखबार हेराल्ड में ईश्वर के लिये अल्लाह शब्द का प्रयोग किया था। मलय मुसलमानों को इसी बात पर आपत्ति थी क्योंकि उनका मानना है कि अल्लाह शब्द का इस्तेमाल केवल मुसलमान कर सकतें हैं। 

इससे बड़ी जाहिलाना बात और कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अभिलेख बतातें हैं कि अरब में इस्लाम के आगमन से पूर्व अल्लाह शब्द चलन में था। लेबनान समेत कई अरब देशों के ईसाई अपने सारे क्रियाकलाप अरबी में संपादित करतें हैं। अगर ईश्वर को अल्लाह कहने का हक केवल मुसलमानों को ही है तो फिर क्यों मुसलमान इस बात को गर्व से कहते फिरते हैं कि बाईबिल और वेद में अल्लाह शब्द आया है और हजरत ईसा ने सूली पर चढ़ाये जाने पर कातर स्वर में अल्लाह का नाम पुकारा था?

कुरान में आया है कि तमाम अच्छे नाम ईश्वर के लिये है, उसे जिस नाम से भी पुकारा जाये वो सही है, यह जाहिलाना सोच है। मुसलमान तो अल्लाह के लिये खुदा शब्द का प्रयोग करतें हैं जो न तो अरबी भाषा का है और न ही कुरआन में है, तो क्या इस वजह से वो काफिर में शुमार कर लिये जायेंगें? अगर मुसलमान अल्लाह को खुदा कहकर पुकार सकतें हैं तो कोई गैर-मुस्लिम ईश्वर या गॉड को अल्लाह क्यों नहीं कह सकता?

आज भी दुनिया में जंगलों, कंदराओं और रेगिस्तानों में रहने वाले लाखों लोग ऐसे हैं जिनके पास न तो कभी  ईसाई मिशनरी पहँचे और न ही इस्लाम के प्रचारक। उन्होंनें खुद को उस परम शक्ति से जोड़ने के लिये इबादत का एक तरीका ईजाद कर लिया है, प्रार्थना और दुआ के कुछ बोल तैयार कर लिये हैं, इबादतगाहें बना ली हैं, तो क्या वो सब के सब काफिर हो गये वो भी महज इस वजह से कि उन्होंनें ईसाईयत या इस्लाम के तरीके से ईश्वर की इबादत नहीं की? क्या ऐसे लोगों की इबादत को खुदा कुबूल नहीं करेगा? इस प्रश्न का जबाब न में देने वाले विकृत सोच के ही हो सकतें हैं, इससे इतर नहीं?

गैर-मुस्लिमों के साथ नबी करीम (सल्ल0) का व्यवहार

नबी करीम (सल्ल0) अपने जमाने में गैर-मुस्लिमों के साथ नरमी और बराबरी का व्यवहार करते थे और उनके साथ कभी नाइंसाफी का व्यवहार नहीं करते थे। नबी करीम (सल्ल0) के पास जब भी कोई गैर-मुस्लिम मिलने आता तो नबी (सल्ल0) स्वयं उसकी आवभगत और मेजबानी करते थे। एक बार तो मुलाकात करने आये ईसाईयों के एक दल को उन्होंनें मस्जिदे नबबी में अपने तरीके से इबादत करने की अनुमति भी दी थी। नजरान से मिलने आये यहूदियों के बारे में आपने फर्माया था, "यह असहाब हमारे सहाबा के लिये अलग और बिशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की हैसियत रखतें हैं, इसलिये जैसे इनका सम्मान और आतिथ्य खुद करने का फैसला किया है।" (इब्ने कसीर, सीरतुल हलबिया, 2:31)

इमाम अबू युसूफ ने अपनी किताब 'किताबुल अखराज' में लिखा है कि नबी करीम (सल्ल0) तथा खुल्फाये-राशिदीन के जमाने में मुसलमान और गैर-मुसलमान दोनों के साथ कानून और सजा से संबंधित मामलों पर समान बर्ताब करते थे। एक बार एक मुसलमान ने एक गैर-मुसलमान को पैगंबर के जमाने में हत्या कर दी। कानून के मुताबिक नबी (सल्ल0) ने उस मुसलमान को मौत की सजा दी और फर्माया, "गैर-मुस्लिमो के अधिकारों की सुरक्षा मेरा पहला महत्वपूर्ण कर्तव्य है।" मुहम्मद (सल्ल0) के मदनी दौर में मदीने के अंदर यहूदी, नसारा, मूर्तिपूजक सभी रहते थे। उनमें से जिनके साथ भी नबी करीम (सल्ल0) का समझौता था, उनपर आप (सल्ल0) या आपके किसी सहाबी ने कभी ज्यादती नहीं की। उनके जीवन की कई धटनायें गैर-मुस्लिमों के प्रति उनके व्यवहार की पुष्टि करती है।

- एक बार किसी यहूदी और मुसलमान के बीच खेत में सिंचाई की बात को लेकर झगड़ा हो गया। यहूदी का खेत पहले पड़ता था और उस मुसलमान का बाद में पर वो मुसलमान चाहता था कि पानी यहूदी के खेत में न जाकर पहले उसके खेत में जाये। झगड़े का किसी तरह समाधान होता न देखकर दोनो ने तय किया कि इस मसले के फैसले के लिये हम एक मध्यस्त तय करतें हैं जिसके निर्णय को हम दोनों को मानना होगा। यहूदी ने कहा, मुहम्मद (सल्ल0) का मैं मुखालिफ हूँ लेकिन मुझे उनपर पूरा एतमाद है कि वो मुकदमें में हक का साथ देंगें इसलिये मैं हकम के रुप में उन्हें नियुक्त करना चाहता हूँ। यह सुनकर मुसलमान मन ही मन बेहद खुश हुआ क्योंकि उसे यकीन था कि मुहम्मद (सल्ल0) उसके मुसलमान होने के कारण उसके हक में ही फैसला सुनायेंगें। दोनों अपने मुकदमें को लेकर मुहम्मद (सल्ल0) के पास आये। आपने दोनों की बातों को सुना और फैसला यहूदी के हक में सुनाया। यह धटना नबी (सल्ल0) के इंसाफ पसंदी को दर्शाता है। उनके उम्मत का इकरार करने वाला हक पर नहीं था तो आपने उसके खिलाफ मुकदमे का फैसला सुनाने से भी गुरेज न किया।

- हजरत असमा बिन्त अबूबकर (रजि0) रिवायत करती हैं कि (फत्हे-मक्का) के दिन जब रसूल0 (सल्ल0) मक्का में दाखिल हुये और मस्जिदे हराम तशरीफ़ ले गये तो हजरत अबूबकर अपने वालिद अबू कहाफा का हाथ पकड़कर आपकी खिदमत में लाये। जब आपने उन्हें देखा तो इर्शाद फर्माया: "अबूबकर ! इन बडे मियां को घर में क्यों नहीं रहने दिया कि मै खुद इनके पास घर आ जाता ?" उन्होंनें अर्ज किया या रसूलल्लाह (सल्ल0) ! इन पर ज्यादा हक बनता है कि यह आपके पास आयें बजाये इसके कि आप इनके पास तशरीफ़ ले जातें। नबी (सल्ल0) ने उनको अपने पास बिठाया और उनके सीने पर हाथ मुबारक फेर कर इर्शाद फर्माया, "आप मुसलमान हो जायें। चुनांचे हजरत अबू कहाफा मुसलमान हो गये।" (मस्नदे-अहमद, तबरानी)

- ये 628 ईसवी की बात है। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के पास मिश्र के सिनाई पर्वत के पास मौजूद सेंट कैथेरिन के कुछ पादरी आये और उनसे अपने मजहब वालों के लिये सुरक्षा और शांति की जमानत मांगी। उनके अनुरोध पर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने उन्हें एक लिखित अहदनामा दिया। इस अहद नामे में लिखा था, "ये पैगाम है मुहम्मद (सल्ल0) इब्ने अब्दुल्लाह की तरह से जो एक अहदनामा की हैसियत रखता है। उनके लिये जिन्होंनें नजदीक और दूर दीने-नसारा बतौर दीन इख्तियार किया है कि हम उनके साथ हैं दरअसल मेरे खुद्दाम, मेरे सहयोगी, मेरे सहाबा और मेरे मानने वाले इनकी हिफाजत करेंगें क्योंकि ईसाई हमारी प्रजा है। अल्लाह कसम, मुझे हर वो चीज नापंसद है जो इन्हें नाखुश करे। इन पर कोई जर्बदस्ती न हो, न उनके जजों को उनके पदों से हटाया जाये, न उनके पादरियों को उनकी इबादतगाहों से हटाया जाये, कोई शख्स उनकी इबादतगाहों को तबाह न करे, न उन्हें नुकसान पहुँचायें और न ही उनकी इबादतगाहों से कोई चीज उठाकर अपने घरों में ले जाये। जो ऐसा करेगा वह अल्लाह और उसके रसूल से किये गये वादे की नाफरमानी करेगा। इन्हें न कोई हिजरत करने पर मजबूर करेगा और न जंग करने पर। मुसलमान उनकी हिफाजत के लिये जंग करेंगें। अगर कोई ईसाई औरत मुसलमान से शादी करना चाहे, तो ये शादी उस औरत की मर्जी और रजामंदी के बगैर नहीं हो सकती, ऐसी औरत को इबादत के लिये चर्च जाने से नहीं रोका जायेगा। चर्च का आदर करना मुसलमानों के लिये आवश्यक है, वो किसी को चर्च बनाने या उसकी मरम्मत करने से नहीं रोक सकते, न ही उसके सम्मान को नुकसान पहुँचा सकतें हैं। कोई भी मुस्लिम शख्स इन वादों की नाफरमानी नहीं कर सकता।"

हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने यह अहदनामा केवल उस समय के लिये ही नहीं बनाया था बल्कि हमेशा के लिये अपने उम्मतियों को इस अहदनामे के अनुपालन का आदेश दिया था। इस अहदनामे की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसमें नबी (सल्ल0) ने ईसाईयों से बदले में कुछ भी नहीं मांगा था और न ही उनसे जजिया या कुछ और देने को कहा था।

- हदीसों में एक धटना मौजूद है कि रसूल (सल्ल0) के जमाने में एक शख्स था जो हर वक्त मुहम्मद (सल्ल0) के बारे में अनाप-शनाप बोलता रहता था और उनके बारे में गलत अफवाहें फैलाया करता था। उस शख्स का बेटा मुसलमान था, वह अपने बाप की इस आदत से परेशान था। आजिज आकर एक दिन वो नबी (सल्ल0) की खिदमत में आया और आकर फर्माया कि मैं अपने बाप के इस आदत से बेजार हो चुका हूँ और उसे कत्ल करना चाहता हूँ। नबी (सल्ल0) ने न सिर्फ उसे ऐसा करने से मना बल्कि फरमाया कि "तुम अपने बाप की इज्जत करते रहो। मुसलमानों को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये जिससे किसी को इस्लाम को बदनाम करने का मौका मिल जाये।"

- एक बार एक जनाजा जाते देख कर नबी करीम (सल्ल0) उठ कर खड़े हो गयें, लोगों ने बताया कि या रसूल (सल्ल0) ये जनाजा तो एक यहूदी का है, आपने फर्माया तो क्या हुआ "वो भी तो एक इंसान था।"

गैर-मुस्लिमों के साथ इस्लामी हुकूमत में व्यवहार

इस्लामी तारीख से साबित है कि इस्लाम के आरंभिक जमाने में गैर-मुस्लिमों के साथ इंसाफ और बराबरी का व्यवहार किया जाता था। इसके कई उदाहरण है:-

-  मिश्र के एक गैर-मुस्लिम ने उस वक्त के खलीफा हजरत उमर फारुख (रजि0) से शिकायत की कि आपके गर्वनर के लड़के ने मेरे लड़के को नाहक कोड़े मारे है। खलीफा उमर (रजि0)ने तुरंत ही अपने गर्वनर और उसके लड़के को तलब किया और अपने स्तर से इस धटना की जांच करवाई। उस मिश्री की शिकायत सही साबित हुई। हजरत उमर (रजि0) ने उस मिश्री लड़के को हुक्म दिया कि तुम भी गर्वनर के लड़के को कोड़े मारो। उस लड़के ने उसे कोड़ा मारकर अपना बदला ले लिया। जब वो कोड़ा रखने लगा तो हजरत उमर(रजि0) ने उससे कहा, रुको, दो कोड़े इस लड़के के बाप को भी मारो क्योंकि उनके लड़के को अगर धमंड न होता कि उसका बाप गर्वनर है तो वह तुझे कदापि कोड़े न मारता।

- मिश्र की एक गैर-मुस्लिम बुढ़िया एक बार खलीफा उमर(रजि0) के पास आई और आकर फरमाया कि आपके गर्वनर अबुल आस ने मेरी मर्जी के खिलाफ मेरा घर गिराकर मस्जिद में शामिल कर लिया है। हजरत उमर(रजि0) ने फौरन अबुल आस को बुलबाया और उनसे पूछा, ये खातून जो कह रही है, क्या ये सही है? अबुल आस ने फर्माया, जी! ये बुढ़िया सच कहती है। मस्जिद तंग पड़ती है जिसके किसी तरफ बढ़ाये जाने की कोई गुंजाईश नहीं है सिवाये इसके मकान की तरफ बढ़ाये जाने के। इस बुढ़िया को इसके मकान की दो गुनी कीमत दी जा रही थी पर उसने इसे लेने से इंकार कर दिया। इसलिये हमने जबरन इसका मकान तुड़वा दिया। इस बुढ़िया के मकान की कीमत अभी भी बैतुल-माल में जमा है। यह सुनकर हजरत उमर(रजि0) सख्त नाराज हुये और फर्माया, इस बुढि़या का मकान वही बनाया जाये जहां पहले था।

अफसोस है कि नबी करीम की सीरत और खुल्फा-ए-राशिदीन के अमल से भी मुसलमान कोई सीख लेना नहीं चाहते। आज पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुस्लिम मुल्कों में गैर-मुसलमानों के साथ जो धटिट हो रहा है वह कहीं से नबी करीम (सल्ल0) के आदेशों और खलीफाओं के अमल के अनुरुप नहीं है। इन मुस्लिम मुल्कों में गैर-मुस्लिमों के साथ हर तरह के अत्याचार हो रहें हैं पर नबी करीम की सुन्नत का अनुपालक होने का दम भरने वालों में से कोई भी उनके हक में खड़ा होने को तैयार नहीं दिखता। गैर-मुस्लिमों के हुकूक संबंधित नबी करीम (सल्ल0) के आदेशों की अवज्ञा करने वालों के लिये कयामत का दिन बहुत भारी पडे़गा क्योंकि नबी करीम (सल्ल0) ने अपनी हदीसों में ये फरमा दिया था कि अगर किसी ने नाहक किसी गैर-मुस्लिम का दिल दुखाया तो मैं कियामत के रोज उस गैर-मुस्लिम की तरफ से उस मुसलमान के खिलाफ गवाही दूंगा।इसी तरह की एक और हदीस में आता है जो कोई किसी गैर-मुस्लिम का नाहक कत्ल करेगा वह जन्नत की खुश्बू भी न सूध पायेगा हालांकि जन्नत की खुश्बू 40 साल तक पहुचती है। (इब्ने रशद, बदीअतुल मुत्जहिद, 2:299)

(मुसलमानों को ये मुगालता भी दूर कर लेनी चाहिए की क़यामत के रोज़ गैर-मुस्लिमों को बिना किसी हिसाब-किताब के जहन्नम में धकेल दिया जायेगा और वो चाहे जो कुछ भी करते रहें उन्हें तो जन्नत मिलेगी ही, तो उन्हें यहाँ कुरान के सूरह अनकबूत की पहली आयत जेहन में रख लेनी चाहिए जहाँ कहा गया है क्या लोगों ने समझ रखा है कि वो बस इतना कहने से छोड़ दिए जायेंगे कि, हम ईमान लाये, और उन्हें आजमाया न जायेगा? ”)

किसी को मजहब तब्दील करने पर विवश नहीं किया जा सकता 

इंसान ईश्वर की बनाई कृति में अकेला है जिसे उसने अपने मन-मर्जी से चलने की अनुमति दे रखी है वरना उसकी तमाम मख्लूख ईश्वर के हुक्म के ताबेअ है। ईश्वर इंसानों को सही गलत के बीच के फर्क को समझाने के लिये हर दौर में अपना नबी भेजता रहा है परंतु तब भी उसने इंसानों को अधिकार दे रखा है कि वो अपने सोच-समझ के आधार पर अपने लिये राहे तय करें। नबियों को भी केवल हिदायत देने भर की अनुमति दी गई है, उन्हें भी अल्लाह ने ये हक नहीं दिया कि वो किसी गुमराह के साथ जोर-जर्बदस्ती करके उसे सही राह पर लानें की कोशिश करें। कुरान की आयत है -

- दीन के बारे में कोई जबरदस्ती नहीं। सही बात नासमझी की बात से अलग होकर बिल्कुल सामने आ गई है। (सूरह बकरह, आयत-256)

- "और यदि तेरा रब चाहता, तो धरती में जितने लोग हैं सब-के-सब ईमान ले आते, फिर क्या तू लोगों को विवश करेगा कि वे ईमान हो जायें?" (सूरह यूनुस, आयत-99) इस आयत में ईश्वर बता रहा है कि ईश्वर की मर्जी है कि इंसानों में से कुछ ईमान लाने वालें हैं और कुछ हक बात को ठुकराने वाले, इसलिये ये किसी का हक नहीं बनता कि वह किसी को जबरन ईमान लाने पर मजबूर करे।

- "जिन लोगों ने कुफ्र किया, उन्हें तुम डराओ या न डराओ वो मानने वाले नहीं है।" (सूरह बकरह:आयत: 6)

- "उन्हें राह पर लाना तुम्हारे जिम्मे नहीं है बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहता है राह दिखाता है। कुरआन की आयत मुसलमानों को उनके कर्तव्य के बारे में बताती है कि किसी को नेक राह पर लाना केवल अल्लाह के जिम्मे है।

-"वही तो है जिसने तुमको जमीन में खलीफा बनाया हैं। अब जो कोई इंकार करता है उसके इंकार का बबाल उसी पर है।" ( फातिर, आयत:39)

- "हम जानतें हैं जो कुछ ये लोग कहतें हैं और तुम उनके साथ जर्बदस्ती करने के लिये नहीं हो। तुम तो कुरआन के द्वारा उसे समझाते रहो जो मेरी यातना के वादे से डरे।" (सूरह काफ,आयत:45)

-"तुम उनपर कोई दारोगा नहीं हो।" (सूरह गाशियह, आयत: 22)

   उपरोक्त दोनों आयते नबी (सल्ल0) से मुखतिब हैं और उन्हें ये हुक्म देती है कि ईमान न लाने वालों तक आपकी जिम्मेदारी केवल संदेश पहुंचाने भर की है, उनके साथ जर्बदस्ती करना किसी लिहाज से जायज नहीं है।

फैसला सिर्फ खुदा का हक:-

अगर किसी ने अपनी समझ से ईश्वर तक पहुँचने की कोई राह तलाशी है तो फिर इंसान को ये हक नहीं होना चाहिये कि वह उसकी इस कोशिश को कुफ्र कहे या गलत ठहराये। किसी इंसान के ईमान की पुख्तगी और सच्चाई तय करने का अधिकार केवल और केवल खुदा का है जो पवित्र कुरआन से भी साबित है।

-"निःसंदेह जो लोग ईमान लाये और जो यहूदी हुये और साबिई और नसारा (ईसाई) और मजूस और जिन लोगों ने शिर्क किया इन सबके बीच अल्लाह कयामत के दिन फैसला कर देगा। निःसंदेह हर चीज अल्लाह की निगाह में है।" (सूरह अल-हज्ज, आयत-17) यही कुछ सूरह बकरह की बासठवीं आयत में भी आया है- "निःसंदेह जो ईमान लाये और यहूदी हुये और नसारा और साबिई हों, जो भी अल्लाह और अंतिम दिन पर ईमान लाया और अनुकूल कर्म किया ऐसे लोगों के लिये उनके रब के पास प्रतिदान है, तो उनके लिये न कोई भय होगा न वो दुःखी होंगें।"

-"हमने तो हर गिरोह के लिये उनके कर्म को शोभायमान बना दिया है। फिर उन्हें अपने रब की ओर लौट कर जाना है, फिर वह उन्हें जता देगा जो कुछ वो करते थे।" (सूरह अनआम, आयत-108)

-"अब जो इंकार करता है उसका इंकार तुम्हें शोकाकुल न करे, उन्हें पलटकर आना तो हमारी ही ओर है फिर हम उन्हें बता देंगें कि वो क्या कुछ करते आयें हैं।" (लुकमान, आयत-23)

-"अल्लाह उन लोगों को कैसे मार्ग दिखायेगा जिन्होनें ईमान के बाद कुफ्र किया। उन लोगों का बदला यह है कि उनपर अल्लाह, फरिश्ते और तमाम मनुष्यों की फिटकार होगी।" (सूरह आले-इमरान, 3:86,87)

-"जो व्यक्ति ईमान लाने के बाद इंकार करे। (वह अगर) मजबूर किया गया और दिल उसका ईमान पर संतुष्ट हो (तब तो ठीक है) मगर जिसने दिल की रजामंदी से कुफ्र को स्वीकार कर लिया उसपर अल्लाह का गजब है और ऐसे सब लोगों के लिये बड़ा अजाब है।" (सूरह नहल, आयत:106)

अगर कोई आदमी मजहब तब्दील कर लेता है तो यह उसके और परमात्मा के बीच का मामला है, उसे किस तरीके से इबादत करना है, ये कोई इंसान कैसे तय करता है? कुरान की आयत है,

-"अल्लाह कयामत के दिन उसकी फैसला कर देगा जिसमें तुम विभेद करते हो।" (सूरह अल-हज्ज, आयत:69)

-"प्रत्येक गिरोह के लिये इबादत की एक रीति ठहरा दी है जिसपर वो चलतें हैं तो (हे मुहम्मद!) वे इस मामलें में तुमसे न झगड़ें। तुम अपने रब की ओर बुलाबा दो, निःसंदेह तुम सीधे मार्ग पर हो।" (सूरह हज्ज: आयत: 67)

मुसलमान भी जहन्नम जायेंगे

कई मुसलमान इस मुगातले में रहते है कि मुसलमान होने के कारण केवल वे ही जन्नत के हकदार है तो ये उनकी बहुत बड़ी गलतफहमी है। कुरआन में कयामत के दिन को इंसाफ और फैसले का दिन कहा गया है। हर इंसान को उसके आमाल के अनुसार बदला दिया जायेगा। कुरान की आयत है, क्या लोगों ने यह समझ रखा है कि वो बस इतना कहने पर छोड़ दिये जायेंगें कि हम ईमान लाये, और उनको आजमाया न जायेगा? (सूरह अनकबूत,आयत-2) नबी करीम ने अपनी उम्मत के बारे में पेशीनगोई करते हुये फरमाया था कि आने वाले जमाने में उनकी उम्मत 73 फिरकों में बंट जायेगी और उनमें एक को छोड़कर तमाम फिरकों के मानने वाले जहन्न्म की आग में जलेंगें। नबी (सल्ल0) के मेराज के वाकिये मे कई ऐसे उदाहरण आये जो इस बात की पुष्टि करतें हैं कि एक मुसलमान भी जहन्न्मी और अजाब पाने वाला हो सकता है:-

- हजरत अनस बिन मालिक रिवायत करतें हैं कि रसूल0 (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया, "शबे-मराज में मेरा गुजर ऐसी जमाअत पर हुआ कि उनके होंठ जहन्नम की आग के कैंचियों से कुतरे जा रहे थे। मैनें जिब्रील से पूछा कि ये कौन लोग हैं? उन्होंनें बताया कि ये वो वाईज हैं जो दूसरों को नेकी करने के लिये कहते थे और खुद अपने को भूला देते थे, यानि खुद अमल नहीं करते थे, हालांकि वो अल्लाह की किताब पढ़ते थे, क्या वो समझदार नहीं थे।" (मस्नद-अहमद)

- हजरत उसामा बिन जैद से रिवायत है कि उन्होंनें रसूल (सल्ल0) को यह इर्शाद फरमाते हुये सुना, "कियामत के दिन एक शख्स को लाया जायेगा और उसको जहन्नम में फेंक दिया जायेगा जिससे उसकी अंतडि़या निकल जायेगी। वह अंतडि़यों के इर्द -गिर्द इस तरह धूमेगा जैसे कि चक्की का गधा चक्की के गिर्द धूमता है, उसी तरह यह शख्स अपनी अंतडि़यों के चारो तरफ धूमेगा। जहन्नम के लोग उसके चारों तरफ जमा हो जायेंगें और उससे पूछेंगें, फ्लांने तुम्हें क्या हुआ? क्या तुम अच्छी बातों का हुक्म नहीं करते थे और बुरी बातों से हमको नहीं रोकते थे? वह जबाब देगा, मैं तुम्हें अच्छी बातों का हुक्म देता था पर खुद उसपर अमल नहीं करता था तथा जिन बुरी बातों से तुमको राकता था , उन्हें खुद किया करता था।" (बुखारी)

- हजरत अबु हुरैरह से रिवायत है कि रसुल्लाह (सल्ल0) ने इर्शाद फर्माया, "तुमलोग जुब्बुल हजन से पनाह मांगा करो।" सहाबा ने पूछा, जुब्बुल हजन क्या चीज है? आप ने इर्शाद फर्माया, जहन्नम में एक वादी है कि खुद जहन्नम रोजाना सौ मर्तबा उससे मांगती है। अर्ज किया गया, "या रसूलुल्लाह ! उसमें कौन लोग जायंगे? आप ने फर्माया, वे कुरआन पढ़ने वाले जो दिखलावे के लिये आमाल करतें हैं।" (तिर्मिजी)

इंसान होना सबसे जरुरी

हर धर्म में अच्छे और बुरे लोग हो सकतें है। कोई केवल इस वजह से कि वो मुसलमान है नेक लोगों की श्रेणी में नहीं आ सकता इसी तरह किसी का गैर-मुस्लिम होना उसके बुरे होने का आधार नहीं है। नेक अमल करने वाला और शैतान हर मजहब में हो सकता है।

एक तरफ यजीद था जो मुसलमान था पर उसका दामन नबी (करीम) के प्यारे नवासे के खून से रंगा है। दूसरी तरफ कई ऐसे लोग भी हैं जो मुसलमान न होने के बाबजूद इस्लाम और नबी (सल्ल0) के मददगार साबित हुये। जब हुजूर (सल्ल0) मक्के से हिजरत करके मदीने जा रहे थे तो पथपदर्शक के रुप में उन्होंनें जिसे चुना था उसका नाम अब्दुल्ला बिन उरियत था जो एक गैर-मुस्लिम था। मक्का के काफिरों ने नबी करीम को पकड़ने वाले के लिये 100 ऊँटों का इनाम रखा था पर इतने बड़े ईनाम का लालच भी अब्दुल्ला को उसके कत्र्तव्य पथ से डिगा न सका और उसने हिफाजत के साथ नबी (करीम) को उनकी मंजिल तक पहुँचाया। नबी (सल्ल0) के चाचा अबू तालिब तो मुसलमान न थे पर ऐलाने-नुबूबत के बाद जब अधिकांश लोग और रिश्तेदार उनके मुखालिफ हो गये थे तब अबू तालिब ने ही रसूल (सल्ल0) को संरक्षण दिया था। हब्शा हिजरत करने वाले मुसलमानों को संरक्षण देने वाला वहां का बादशाह ईसाई था।

धार्मिक सहिष्णुता और पवित्र कुरआन

गैर-मुसलमानों के साथ मुसलमानों के व्यवहार ने इस्लाम और पवित्र कुरआन के बारे में यह धारणा स्थापित कर दी है कि इस्लाम धार्मिक असहिष्णुता की शिक्षा देता है परंतु कुरआन की तालीम ऐसी नहीं है। कुरआन हर इंसान को उसके अकीदे के आधार पर तस्लीम करने के साथ उसके प्रति सद्व्यवहार और सहिष्णुता की शिक्षा भी देता है। कुरआन की आयत है, जिसने किसी व्यक्ति को किसी के खून का बदला लेने या धरती में बिगाड़ फैलाने के सिवा किसी और कारण से मार डाला उसने मानो सारे मानव की हत्या कर दी और जिसने किसी के प्राण बचाये उसने मानो सारे मानव को जीवनदान दिया। (सूरह माइदह, आयत-32)

सूरह काफिरुन नाम की सूरह खुदा ने धार्मिक सहिष्णुता को समर्पित की है। इस सूरह की आयतें हैं:-

1. कह दो, हे काफिरों 2. मैं वैसी इबादत नहीं करता जैसी इबादत तुम करते हो 3. और न तुम वैसी इबादत करते हो जैसी इबादत मैं करता हूँ 4. और न मैं वैसी इबादत करने वाला जैसी इबादत तुम करते हो 5. और न तुम वैसी इबादत करने वाले हो जैसी इबादत मैं करता हूँ 6. तुम्हारे लिये तुम्हारा दिन है और मेरे लिये मेरा।

एक दूसरी आयत में खुदा न फरमाया, उन्हें राह पर लाना तुम्हारे जिम्मे नहीं है, बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहता है राह दिखाता है। (सूरह बकरह,आयत-272)

मजहब एकता का आधार नहीं हो सकता

केवल समान मजहब का होना ही अमन और एकता का आधार नहीं हो सकता। अगर हो सकता होता तो रसूल (सल्ल0) की वफात के तुरंत बाद ही हजरत अली और शाम के गर्वनर अमीर मुआविया के बीच जंग न होता, न ही नबी (सल्ल0) की पत्नी बीबी आएशा और हजरत अली के बीच हुये जंग में हजारों सहाबी शहीद होते। बनू उमैया और बनू अब्बास दोनों ही अरब के मुस्लिम कबीले थे पर उन्होंनें आपस में एक-दूसरे का सबसे अधिक खून बहाया। पूर्वी पाकिस्तान में मारे गये लाखों मुसलमान और ईरान और ईराक जंग में मरने वाले मुसलमानों को किसी हिंदू ने तो नहीं मारा था। आज भी पाकिस्तान के स्वात और करांची में मुसलमान ही मुसलमान को मार रहें हैं।

किसी से धृणा करने का आधार मजहब नहीं हो सकता। जो भी ऐसा करता है वह कुदरत के निजाम के खिलाफ जाता है।

मुसलमानों की जिम्मेदारी

इस दुनिया में इंसानों के बीच विधिधता और बहुलता होना अल्लाह की मर्जी से है। जब खुदा ने अपने सबसे महबूब नबी को केवल हिदायत पहुंचा देने भर का हुक्म दिया तो फिर बाकी किसी और को कैसे ये हक मिलता है कि वो इस्लाम से इतर मजहबी अकीदे रखने वालों को अपने तरीके पर चलाने के लिये विवश करे ? धार्मिक विभेदों के फैसले का हक केवल अल्लाह को है और अल्लाह ने मुसलमानों की जिम्मेदारी इतनी ही रखी है कि वो सही तरीके से लोगों तक अपनी बात पहुँचा दें। किसी को हिदायत देना या न देना तो अल्लाह के हवाले है। कुरान की आयत है, उस बात की तरफ आओ जो हमारे और तुम्हारे दरम्यान एक समान है। और वो यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी को अपना रब न बनायें, उसके साथ किसी को साझी न ठहराये, और हममें से कोई अल्लाह के सिवा किसी को अपना रब न बना ले। इस दावत को स्वीकार करने से अगर वो मुंह मोड़े तो साफ कह दो कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम हैं। (सूरह आले-इमरान, 3:64)

अन्य मजहब और उनके पूर्व पुरुषों को सम्मान देने की कुरआन की तालीम एक मुसलमान को हर मजहब के प्रति सम्मान करना और उनके पूर्व पुरुषों का आदर करना सिखलाती है। पवित्र कुरआन इस बारे में फरमाता है, कह दो, हम तो अल्लाह पर और उस चीज पर ईमान लाये जो हम पर उतारी गई और उस चीज पर जो इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक और याकूब और उसकी संतान पर उतारी गई, और उस चीज पर जो मूसा, ईसा और दूसरे नबियों को उनके रब की ओर से दी गई। हम उनमें से किसी के बीच अंतर नहीं करते, और हम उसी के मुस्लिम (आज्ञाकारी) है। (सूरह आले-इमरान, 84)

कुरआन मजीद की कई और आयतें मुसलमानों को उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराती है:-

- हे ईमान लाने वालों ! तुम्हें अपनी चिंता होनी चाहिये। यदि तुम रास्ते पर हो तो किसी के पथभष्ट्र हो जाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता। अल्लाह की ओर तुम सबको लौटकर जाना है, फिर वह तुम्हे बता देगा जो कुछ तुम करते रहे हो। (सूरह मादइह, 105)

- जिसने इंकार किया उसके इंकार का बबाल उसके इंकार का बबाल उसी पर है। (सूरह रुम, आयत-44)

- और अल्लाह के सिवा ये लोग जिन्हें पुकारतें हैं उन्हे गाली न दो, कहीं ऐसा न हो कि ये लोग हद से आगे बढ़कर अज्ञान के कारण अल्लाह को गाली देने लगें। (सूरह अनआम, आयत-108)

- हमारे लिये हमारे कर्म हैं और तुम्हारे लिये तुम्हारे कर्म। हमारे और तुम्हारे बीच कोई झगड़ा नहीं। अल्लाह हम सबको इकट्ठा करेगा और उसी की ओर सबको जाना है। (अश-शूरा, आयत-15)

गैर-मुस्लिमों को इस्लाम की तरह दावत देने की अनुमति है पर इसके लिये कुरान ने जोर-जबर करने का आदेश नहीं दियर बल्कि ये शर्त रख दी:-

- "अपने रब के मार्ग की ओर तत्त्वदर्शिता और सदुपदेश के साथ लोगों को बुलाओ और उनसे इस रीति से वाद-विवाद करो जो उत्तम हो। तुम्हारा रब उसे भली-भांति जानता है जो मार्ग से भटक गये हैं और उन्हें भी भली-भांति जानता है जो मार्ग पर है।" (सूरह नहल, आयत-125)

- "और किताब वालों से वाद-विवाद न करो किंतु ऐसी रीति से जो उत्तम हो।" (सूरह अनकबूत, 29:46)

-"अब अगर ये लोग मुँह मोड़तें हैं तो ऐ नबी! हमने तुमको इनपर निगहबान बनाकर तो नहीं भेजा है। तुम पर तो सिर्फ बात पहुँचा देने की जिम्मेदारी है।" (सूरह अस-शूरा, आयत-48)

प्रख्यात इस्लामी डॉक्टर ताहिरुल कादिरी का मुसलमानों को दिया ये संदेश इस्लाम के सर्वपंथ समादर भाव और गैर-मुस्लिमों के प्रति मुसलमानों के व्यवहार की स्पष्ट व्याख्या करता है जिसकी आज के विश्व को सर्वाधिक जरुरत हैं। डॉक्टर ताहिर का संदेश था:-

"इस्लाम वैश्विक भाईचारे, सहिष्णुता व शांति के साथ सहअस्तित्व का समर्थन करता है और अपने मानने वालों को आदेश देता है कि अपने आस-पास के लोगों के लिये शांति का जरिया हो। इस तरह इसका मकसद एक आदर्श राज्य और समाज की स्थापना करना है चाहे उसकी धार्मिक पहचान, जाति रंग कुछ भी हो, जहाँ सभी नागरिकों के समान अधिकार हों और कानून की नजर मे सब बराबर हों। कुरानी हुक्म "धर्म में कोई जबर नहीं है" धार्मिक मामलो में जर्बदस्ती और दबाब बनाने से इंकार करता है और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिये आधार बनाता है और एक स्थान पर कहता है, तुम्हारे लिये तुम्हारा दीन है और मेरे लिये मेरा।

अभिजीत मुज़फ्फरपुर (बिहार) में जन्मे और परवरिश पाये और स्थानीय लंगट सिंह महाविद्यालय से गणित विषय में स्नातक हैं। ज्योतिष-शास्त्र, ग़ज़ल, समाज-सेवा और विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों का अध्ययन, उनकी तुलना तथा उनके विशलेषण में रूचि रखते हैं! कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में ज्योतिष विषयों पर इनके आलेख प्रकाशित और कई ज्योतिष संस्थाओं के द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिशों के लिए कटिबद्ध हैं तथा ऐसे विषयों पर आलेख 'कांति' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इस्लामी समाज के अंदर के तथा भारत में हिन्दू- मुस्लिम रिश्तों के ज्वलंत सवालों का समाधान क़ुरान और हदीस की रौशनी में तलाशने में रूचि रखते हैं।

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