अभिजीत, न्यु एज इस्लाम
26 मई, 2014
वतन से मोहब्बत का जज्बा केवल इंसानों में ही नहीं वरन् ईश्वर की बनाई तमाम मख्लूकों में पाई जाती है। अपने वतन से मोहब्बत की भावना स्वाभाविक है क्योंकि इंसान जहां जन्म लेता है, जहां चलना और बोलना सीखता है, जहां की मिट्टी से उपजे अन्न-जल को खाकर बड़ा होता है, जहां उसके सगे-संबंधी, नाते-रिश्तेदार, मित्र होतें हैं ,जहां की मिट्टी और आबो-हवा में उसके पूर्वजों की यादें बसी होती है, उस भूमि से उसे भावात्मक लगाव हो जाता है। वतन से उसकी मोहब्बत के दायरे में इंसान तो इंसान उस मुल्क के नदी-नाले, पहाड़, पर्वत, बाग-बगीचे, रेगिस्तान सब जुड़ जातें है। उसके वतन की ओर कोई आँख उठाये तो उन आँखों को नोंच लेने को उसका दिल करता है। ये मोहब्बत यहाँ तक पहुँच जाती है कि वतन के लिये कुर्बान होने वाले को सर-आँखों पर बिठा लिया जाता है। हर इंसान अपनी आने वाली पीढ़ी को देशभक्तों के किस्से सुनाकर उनसे प्रेरणा लेने की सीख देता है। देश के साथ दगा करने वाले गद्दारों को केवल नफरत और बद्दुआ से ही याद किया जाता है। इंसान अपनी रोजी-रोटी और रोजगार की फिक्र में कहीं भी चला जाये पर अपने वतन को नहीं भूलता। दिल्ली में रहनेवाले किसी हिंदुस्तानी को लंदन जाने पर चेन्नई का रहने वाला भी अपना बेहद करीबी लगता है क्योंकि वो उसका हमवतन है। वतन से मोहब्बत का ये पाक जज्बा इंसान तो इंसान परिंदों तक में पाया जाता है। कोई परिंदा बेशक किसी खास मौसम में आश्रय की तलाश में कहीं और चला जाता है पर कुछ वक्त बाद वो भी अपने वतन लौट जाता है।
वतन से हमारा ताअल्लुक का सबसे बड़ा सबूत है कि हमारी पहचान इससे जुड़ी हुई है, जिसका पता तब चलता है जब हम कहीं बाहर जातें हैं। वहां दुनिया हमें हिंदू, मुस्लिम, सिख इन नामों से नहीं पहचानती बल्कि हमारी पहचान का आधार वहां हिंदुस्तानी होना होता है। यहां तक कि हज और उमरा करने जाने वाले भारतीय मुसलमानों को वहां के अरब 'हिंदी' कहकर पुकारतें हैं। वतन की खुशहाली और तरक्की होती है तो वहां के निवासियों का जीवन स्तर भी बेहतर होता है, वतन के हालात खराब हो तो वहां के नागरिकों को मुश्किल परिथितियों का सामना करना पड़ता है। वतन पर संकट आये तो नागरिकों की जिदंगी, आबरु और सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। इसलिये इमाम अली ने वतनपरस्ती के जज्बे को मुल्क की कामयाबी का राज बताया था। (बहार-उल-अनवार) (Imam Ali (AS) said, 'Countries thrived as a result of patriotism.' [Bihar al-Anwar, v. 78, p-45, no. 50] )
वतनपरस्ती और इस्लाम
इस्लाम दीने-फितरत है। इस मजहब में इंसानी फितरतों को समझने और उसके तद्नुरुप अनुरुप कर्म करने की सुविधा दी गई है। वतन के प्रति वफादारी भी इंसान के स्वाभाविक फितरतों में से है, इसलिये इस्लाम और उसके लाने वाले ने इंसानों के इस प्राकृतिक जज्बे का सम्मान रखा है। इस्लाम की तालीमें अपने वतन और हमवतनों से मोहब्बत करने, उसकी तरक्की के लिये जी तोड़ मेहनत करने और अपने साहिबे-हुकूमत का अनुपालन करने की सीख देती है। इस्लामी मान्यताओं के अनुसार ईश्वर मानवों में सुधार करने के लिये हर कौम में नबी भेजता है। मान्यता ये भी है कि अल्लाह ने धरती पर 1 लाख 24 हजार नबी भेजे। हजरत मोहम्मद (सल्ल0) से पहले जितने भी नबी भेजे गये थे वो सबके सब अपनी कौम के लिये भेजे गये थे। यानि उनकी नुबूबत और तब्लीग का दायरा उनके अपने वतन तक सीमित था। यकीनन उन्होंनें अपने वतन और अपने हमवतनों की बेहतरी, सुरक्षा और खुशहाली के लिये हर संभव कोशिशें की होंगी और ये बात कुरान और हदीस से भी साबित है। खुद आखिरी पैगंबर नबी (सल्ल0) और उनके सहाबियों का अमल अपने वतन और हमवतनों से मोहब्बत की तालीम देती है।
वतनपरस्ती और वतन से मोहब्बत अंबिया की सुन्नत
वतनपरस्ती और अपने हमवतनों से मोहब्बत की पवित्र परंपरा हम इंसानों और परिंदों में ही नहीं वरन् ईश्वर के भेजे तमाम दूतों, नबियों और अवतारों की भी रही है। हर नबी या अवतार ने अपने वतन और हमवतनों से मोहब्बत को तरजीह दी। भारतीय परंपरा में श्रीराम और श्रीकृष्ण का दर्जा अवतार से अधिक राष्ट्रनायक है क्योंकि इन दोनों ने अपने वतन की एकात्मता को सुढृ़ढ़ किया। प्रभु श्रीराम ने भारतभूमि के उत्तर से दक्षिण तक की एकात्मता अक्षुण्ण की और श्रीकृष्ण ने पूर्व से पश्चिम तक की। लंका विजय के पश्चात् विभीषण के अनुरोध पर प्रभु राम को लंका में कुछ दिन रुकना पड़ा। लंका को विश्वकर्मा ने अपने हाथों से रचा था और पूरा देश स्वर्णनिर्मित था मगर श्रीराम का मन वहां नहीं रमा। हर पल उनका मन अपने वतन की याद में तड़पता था। अपने अनुज लक्ष्मण से अपनी वेदना प्रभु राम ने इन शब्दों में बताई,
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते, जननीतन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी।
अर्थात्, हे लक्ष्मण ! यह लंका बेशक स्वर्णनिर्मित है पर यह मेरे हृदय को जरा भी नहीं लुभाता, जननी जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। श्रीराम की यह उक्ति राष्ट्रप्रेम का उत्कृष्टतम भाव है।
हजरत मोहम्मद (सल्ल0) ने जब मक्का में अपने दीन की तब्लीग आरंभ की तब मक्का वासियों ने उनपर जुल्मों-सितम के पहाड़ तोड़ दिये। जब कष्ट असह्य हो गया तो नबी (सल्ल0) ने अपने सहाबी हजरत अबूबक्र (रजि0) के साथ मक्का से हिजरत का फैसला किया। नबी (सल्ल0) जब मक्के को छोड़कर जा रहे थे तब बार-2 मुड़कर अपने वतन की तरफ देखते थे। जब मक्का उनकी आंखों से ओझल होने को आया तो नबी (सल्ल0) ने कातर स्वर से अपने वतन से कहा, 'मेरी मक्का ! तू कितनी पवित्र धरती है, मेरी नजर में तू कितनी प्यारी है, अगर मेरी कौम मुझे न निकालती तो मैं कभी तुझे छोड़कर न जाता।'
अपने वतन और हमवतनों पर कोई संकट न आये इसकी चिंता अल्लाह के द्वारा भेजे गये तमाम नबियों की थी। हालांकि उनकी कौम ने उनको ठुकरा दिया था मगर बाबजूद इसके उन्होंनें अल्लाह से हर वक्त अपने वतन और अपने उम्मतियों की शांति और सलामती तलब की। ये बात पवित्र कुरान और हदीसों से मालूम होती है।
- हजरत ईसा (अलैहि0) को बनी इजराईल की तरफ नबी बनाकर भेजा गया था, उनकी कौम ने भी उनको ठुकरा दिया था और न केवल ठुकराया था बल्कि उन्हें सूली पर चढ़ाने पर भी आमादा हो गये थे मगर इसके बाबजूद हजरत ईसा (अलैहि0) अपनी कौम की बेहतरी ही चाहते रहें। कुरान-मजीद में आता है कि कयामत के रोज जब अल्लाह ईसा (अलैहि0) से ये पूछेगा कि क्या ये तुमने इनसे कहा था कि मुझे और मेरी माँ को माबूद बना लो? इसपर हजरत ईसा फरमायेंगें , 'मैनें उनसे इसके सिवा और कुछ नहीं कहा जिसका तूने मुझे हुक्म दिया था, यह कि अल्लाह की इबादत करो जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी। मैं जब तक उनके बीच रहा, उनकी खबर रखता रहा, जब तूने मुझे वापस लिया तो उनका निगहबान था। यदि तू उन्हें यातना में ग्रस्त करे तो वे तो तेरे बंदे ही हैं और यदि तू उन्हें क्षमा कर दे तो तू प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।' (कुरआन, सूरह माददह, 5:116)
- हजरत इब्राहीम (अलैहि0) का जन्म जहां हुआ था वो पूरी कौम बुतपरस्ती में मुब्तला थी। हजरत इब्राहीम (अलैहि0) ने जब अपनी कौम को इसके खिलाफ खबरदार किया तो पूरी कौम उनकी मुखालफत पर आमादा हो गई, यहां तक की हजरत इब्राहीम (अलैहि0) के वालिद भी उनके मुखालिफ हो गये। इब्राहीम (अलैहि0) से उनकी कौम की नफरत का ये आलम था कि उनलोगों ने उन्हें आग में जलाने की भी नाकाम कोशिश की पर हजरत इब्राहीम (अलैहि0) की जुबान से अपनी कौम के लिये बद्दुआ नहीं निकली वरन् उन्होंनें खुदा से यही दुआ कि "और याद करो जब इब्राहीम ने कहा, रब! इस नगर को शांति वाला बना दे।" (कुरआन, सूरह इब्राहीम, 14:35)
- हजरत मूसा (अलैहि0) की कौम भी खुदा की नाफरमान थी मगर फिर भी हजरत मूसा (अलैहि0) उनके लिये खुदा से मग्रिफत की दुआ तलब करते थे। अपनी कौम को उन्होंनें जालिम फिरऔन से छुड़ाया था मगर बाबजूद इसके उनकी कौम हजरत मूसा (अलैहि0) की नाफरमान थी। उनकी कौम के केवल चंद लोगों ने ही उनके ऊपर ईमान लाया था। (कुरान, 10:83) मगर तब भी हजरत मूसा (अलैहि0) खुदा से अपनी कौम की बेहतरी के लिये ही दुआ करते थे। पवित्र कुरान (सूरह आराफ, 7:155-56) इसकी तस्दीक करते हुये कहता है, 'और मूसा ने अपनी जाति के 70 आदमियों को हमारे नियत किये हुये समय पर लाने के लिये चुना, तो जब इनलोगों को एक भूकंप ने आ धेरा तो मूसा ने कहा, हे रब! यदि तू चाहता तो पहले ही इनको और मुझे बिनष्ट कर देता। जो कुछ हमारे नादानों ने किया क्या उसके लिये तू हमें बिनष्ट कर देगा ? यह तो तेरी ओर से एक आजमाईश है। तू जिसे चाहे भटका दे और जिसे चाहे मार्ग दिखा दे। तू हमारा संरक्षक मित्र है तो हमें क्षमा कर दे और हम पर दया कर और तू सबसे बढ़कर क्षमा करने वाला है। और हमारे तू इस दुनिया में भी भलाई लिख दे और आखिरत में भी।'
- हमने नूह को उसकी कौम की तरफ भेजा। उसने उसने कहा, हे मेरी कौम! अल्लाह की इबादत करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई इलाह नहीं। मैं तुम्हारे लिये एक भारी दिन की यातना से डरता हूँ ! (सूरह आराफ, आयात-59)
- हजरत हूद (अलैहि0) को कौमे आद की तरफ भेजा गया था। उन्होंनें भी अपने कौम वालों से कहा मैं तुम्हारा हितैषी और विश्वस्त हूँ। (सूरह आराफ, आयात-68)
- हजरत सालेह (अलैहि0) ने भी अपनी कौम से यही कहा, ऐ मेरी कौम! मैनें तुम्हारा हित चाहा। (सूरह आराफ, 7:79)
- हजरत शुएब (अलैहि0) को मदयन की तरफ भेजा गया था। उनकी कौम भी जालिम थी पर हजरत शुएब (अलैहि0) ने उनसे कहा, ऐ मेरी कौम! मैनें तुम्हारा हित चाहा। (सूरह आराफ, 7:93)
इन तमाम नबियों के लिये उनके कौम वालों ने तरह-तरह की मुश्किलें पैदा की और हर कदम पर उन्हें ठुकराया। उन्हें लांछित करने का कोई भी मौका खाली नहीं जाने दिया। पर इन सबके बाबजूद इन नबियों की जुबान पर कभी भी अपनी कौम के लिये बद्दुआ नहीं आई, और तो और वो ईश्वर से इनकी मग्रिफत की दुआयें ही करते रहे।
वतनपरस्ती और वतन से मोहब्बत सहाबा की सुन्नत
अपना वतन अपना होता है। इंसान की ये फितरत है कि उसे परदेश में मिलने वाली धी की रोटी से अपने वतन की सूखी रोटी ज्यादा अजीज होती है। अपने वतन में भले कितनी ही दुश्वारियां हो, जीवन-यापन के बेहतर साधन न हो तो भी इंसानों को वो अजीज होता है। अपने हमवतनों से उसे मोहब्बत होती है, उनके साथ अपनापन लगता है। हिंदी के एक कवि ने इसी भाव को अपनी कविता में इन शब्दों में ढ़ाला था- ‘वह हृदय नहीं है पथ्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।‘ इस्लाम की तारीख और नबी (सल्ल0) की सीरत वतन से मोहब्बत की जिंदा मिसाल है। इस्लाम के आरंभिक युग में यानि जब नबी (सल्ल0) ने अपनी रिसालत का ऐलान किया था तब मक्का के लोगों ने उनकी रिसालत को ठुकरा दिया और उनपर तथा उनके मानने वालों पर बेतहाशा जुल्म किये गये। जब जुल्म नाकाबिले बर्दाश्त हो गये तो नबी (सल्ल0) ने अपने उम्मतियों को वतन से हिजरत कर हब्शा जाने की अनुमति दे दी। हब्शा के लोग और वहां का नज्जाशी बादशाह ईसाई था, मगर नबी (सल्ल0) को भरोसा था कि एक ईसाई राजा के राज्य में उनके उम्मती ज्यादा सूकून से रह सकेंगें और वास्तव में ऐसा हुआ भी। मक्का से हिजरत करने वालों को वहां उनके तरीके के हिसाब से इबादत करने की तमाम सहूलियतें दी गईं और वो वहां अमन-चैन से रहने लगे। इसी बीच कहीं से ये उड़ती हुई ये खबर उनके बीच पहुँची कि मक्का के तमाम काफिर मुसलमान हो गयें हैं। ये खबर सुनते हीं वो वापस मक्का लौट आये पर वहां आने पर उन्हें पता चला कि ये खबर झूठी थी।
हब्शा हिजरत करने वालों वापस लौटे क्योंकि हजार दुश्वारियों के बाबजूद अपना वतन अपना होता है, बेशक वो हब्शा में अमन के साथ रह रहे थे मगर वतन से जुदाई का गम हर वक्त, हर धड़ी उनके दिल में था, इसलिये सिर्फ एक उड़ती खबर के आधार पर वो उस अमन और पनाह की जगह छोड़ वापस अपने वतन आने को व्यग्र हो गये। हब्शा हिजरत करने वालों के ईमान के मुकम्मल होने में शुब्हे की कोई गुंजाईश नहीं हैं क्योंकि उन्होंनें तब नबी (सल्ल0) का साथ उस वक्त दिया था जब कोई भी उनके साथ नहीं था और अपने भी साथ छोड़ चुके थे, तो फिर उनसे बढ़कर ईमान की पुख्तगी का दावेदार और कौन हो सकता है? वतनपरस्ती ईमान का हिस्सा है, ‘Patriotism is part of faith.’[Safinat al-Bihar, v. 8,p. 525], नबी (सल्ल0) का ये कथन हब्शा हिजरत करने वाले उन सहाबियों के अमल से साबित है।
मुहम्मद (सल्ल0) के सहाबियों में अरब और उसके आसपास के मुल्कों के भी वाशिंदे भी थे। वो जानतें थे कि नबी (सल्ल0) के द्वारा की गई दुआ कभी खाली नहीं जाती, इसलिये उनके सहाबियों ने इरादा किया कि हम अपने-2 मुल्कों की बेहतरी के लिये नबी (सल्ल0) से दुआ करवायें। यह हदीस अब्दुल्ला बिन उमर से रिवायत है। नबी (सल्ल0) एक बार अपने सहाबियों के साथ बैठे हुये थे। सबने नबी पाक (सल्ल0) से गुजारिश की कि वो उनके मुल्कों की खुशहाली और बरकत के लिये दुआ फरमायें। नबी (सल्ल0) ने दुआ कि ‘या अल्लाह! शाम (सीरिया) को बरकत दे, या अल्लाह! यमन को बरकत दे। (बुखारी शरीफ) वो तमाम सहाबी नबी (सल्ल0) ने बेइंतहा मोहब्बत करते थे। मगर इससे उनके दिल में अपने वतन के लिये मोहब्बत जरा भी कम नहीं हुई। जब उन्हें मौका मिला तो उन्होंनें नबी (सल्ल0) से अपने वतन की बेहतरी और बरकत के लिये दुआ तलब कर ली।
वतन व हमवतनों से मोहब्बत नबी (सल्ल0) की सुन्नत
‘हुब्बुल वतनी मिनल ईमान‘ यानि वतनपरस्ती ईमान का हिस्सा है। ये नबी (सल्ल0) की मशहूर हदीस है जो इस्लाम में वतनपरस्ती का मुकाम दर्शाती है। कुरान के अनुसार हजरत मोहम्मद (सल्ल0) को सारे आलम के लिये रहमत बना कर भेजा गया था। यानि उन्हें तमाम दुनिया के लिये भेजा गया था। नबी (सल्ल0) जानते थें कि उनकी रिसालत को मानने वाले दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में होंगें जहां ये मुम्किन है कि वहां की हुकुमत मुसलमानों की नहीं हो इसलिये उन्होंनें अपने उम्मतियों को अपने वतन से मोहब्बत करने की तालीम दी, वहां के हुक्मरानों के बनाए विधानों के मातहत काम करने का हुक्म दिया और अपनी मुबारक जुबान से फरमाया, ‘हुब्बुल वतनी मिनल ईमान‘ यानि वतनपरस्ती ईमान का हिस्सा है। कुरान मजीद मोमिनों को हक्म देता है कि वो अल्लाह, उसके रसूल और उनमें जो साहिबाने-हुकूमत हो उनकी बात माने। कुरान में आता है, ऐ ईमानवालों! इताअत करो अल्लाह की और रसूल की और जो तुममें से साहिबाने-हुकूमत हो उनकी। (सूरह निसा, 4: 59)
नबी (सल्ल0) की तालीम भी मुसलमानों को सही ताकीद करती है कि वो जिस किसी भी मुल्क के रहने वाले हों, वहां की सरकार या हुकूमत की इताअत करे, उसके खिलाफ न जाये। उनकी इस तालीम से मुतल्लिक दसियों हदीसें हैं-
- जो कौमें तुमसे पहले हलाक हो चुकीं हैं उनमें ऐसे समझदार लोग क्यों न हुये जो लोगों को मुल्क में फसाद फैलाने से मना करते अलबत्ता चंद आदमी ऐसे थे जो फसाद से रोकते थे जिन्हें हमने अजाब से बचा लिया था। (सूरह हूद, 116ः117)
- हजरत अनस बिन मालिक से रिवायत है कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया, अमीर की बात सुनते और मानते रहो, अगरचे तुम पर हब्शी गुलाम ही अमीर क्यों न बनाया गया हा, जिसका सर गोया (छेाटे होने में) किशमिश की तरह हो। (बुखारी शरीफ)
- हजरत वाइल हजरमी से रिवायत है, रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया, तुम अमीरों की बात सुनो और मानो क्योंकि उनकी जिम्मेदारियों (मसलन इंसाफ करना) के बारे में उनसे और तुम्हारी जिम्मेदारियों के बारे में तुमसे पूछा जाएगा (मसलन अमीर की बात मानना) (मुस्लिम शरीफ)
- हजरत अब्दुल्ला बिन उमर रिवायत करतें हैं कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया कि अमीर की बात मानना और सुनना मुसलमान पर बाजिब है। (मस्नदे अहमद)
- हजरत जैद बिन साबित से रिवायत है कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया तीन आदतें ऐसी हैं जिनकी वजह से मोमिनों का दिल कीना और खयानत (हर किस्म की बुराई) से पाक रहता है, उसमें से एक है हाकिमों की खैरख्वाही करना। (इब्ने हब्बान)
- हजरत अबू हुरैरा से रिवायत है कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया, बेशक दीन खुलूस और वफादारी का नाम है। (इस बात को तीन बार दुहराया)। सहाबियों ने अर्ज किया, या रसूल (सल्ल0) ! किसके साथ खुलूस और वफादारी? इर्शाद फरमाया, अल्लाह तआला, अल्लाह की किताब, अल्लाह के रसूल, मुसलमानों के साथ और उनके अवाम के साथ। (नसाई शरीफ)
नबी (सल्ल0) की सीरत अनेकों ऐसी मिसालों से भरी हुई है जो हुजूर-पाक (सल्ल0) की वतन और हमवतनों की मोहब्बत की तालीम से बाबस्ता हैं। मक्का वालों की दुश्मनी जब हद से बढ़ कई तो नबी (सल्ल0) को लगा कि फिलहाल मक्के वाले को छोड़कर उसके आस-पास के इलाकों में तब्लीग करनी चाहिये। इसी क्रम में उन्होंनें अपना रुख ताएफ की तरफ किया और अपने मुँहबोले बेटे जैद को लेकर तब्लीग करने ताएफ पहुँच गये। वहां पहुँच कर जब उन्होनें वहां के सरदारों को दीन की दावत दी तो वे बजाये उनकी बात सुनने के वो सब उनसे उलझ पड़े और ताएफ के बच्चों को जमा कर कहा कि इन दोनों को पथ्थर मारकर यहां से निकाल दो। सारा शहर इन दोनों पर टूट पर। इन पर तीर बरसाये गये, पथ्थरों की बारिश की गई। नबी (सल्ल0) और हजरत जैद लहूलूहान हो गये। उनके जूते खून से भर गये। वहां के बचकर नबी (सल्ल0) एक बगीचे में पहुँचे और निढ़ाल होकर एक पेड़ के किनारे बैठ गये। तभी अल्लाह ने जिब्रील (अलैहे0) को उनके पास भेजा। जिब्रील(अलैहे0) ने आकर उनसे कहा, नबी (सल्ल0) आपकी खिदमत में पहाड़ों का फरिश्ता हीबाल हाजिर है, ताकि वह आपके हुक्म की तामील करे। आप अगर कहें तो हीबाल अभी इन दोनों पहाड़ों को मिला देगा और ताएफ वालों को उसमें पिसल कर रख देगा। नबी (सल्ल0) ने जिब्रील से कहा, नहीं ! बल्कि मैं उम्मीद करता हूँ कि अल्लाह उनकी नस्लों में से ऐसे बंदों को पैदा फरमाएगा जो सिर्फ अल्लाह की इबादत करने वाली होगी।
इतनी तकलीफ और मुसीबतों को झेलने के बाद भी नबी (सल्ल0) की रहमत अपने कौम वालों के लिये बनी रही। नबी (सल्ल0) ने हमेशा अपने कौम वालों के लिए खुदा से यही दुआ कि "या अल्लाह! ये मेरी कौम है, इन्हें अजाब न दे बल्कि हिदायत दे।"
नबी (सल्ल0) की नजरों में वतन की हिफाजत करने वालों का मुकाम
किसी भी मुल्क का सुरक्षा उसकी हिफाजत के लिये मुस्तैद खड़े सैनिकों के कारण होती है। हम अपने धरों में चैन की नींद सिर्फ इसलिये सो पातें हैं क्योंकि कोई है जो सरहदों पर सारी रात जागकर पहरा दे रहा होता है। जिसकी जागरुकता के कारण दुश्मन हमारे मुल्क पर नजर टेढ़ी करने की जुर्रत नहीं करता। वतन की हिफाजत करने वालों का बेहद आला मुकाम है जिसकी कद्र इस्लाम में और नबी (सल्ल0) की नजरों में भी है। इससे मुतल्लिक नबी (सल्ल0) कई हदीसें हैं, जो सरहद की हिफाजत करने वालों को जन्नत की खुशखबरी देती है।
- हजरत अब्दुल्ला बिन अम्र रिवायत करतें हैं कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया, क्या तुम जानते हो कि अल्लाह तआला की कौन सी मख्लूक सबसे पहले जन्नत में दाखिल होगी? सहाबा ने अर्ज किया, अल्लाह और उसके रसूल ही बेहतर जानतें हैं। इर्शाद फरमाया, सबसे पहले वो लोग जन्नत में दाखिल में दाखिल होंगें जो फुकरा मुहाजिरीन हैं, जिनके जरिये सरहदों की हिफाजत की जाती है, मुश्किल कामों में उन्हें आगे रखकर उनके जरिये से बचाब हासिल किया जाता है। उनमें से जिसको मौत आती है उसकी हाजत उसके सीनों में ही रह जाती है, वह उन्हें पूरा नहीं कर पाता। अल्लाह कयामत के दिन फरिश्तों से फरमाएगा, इनके पास जाकर उन्हें सलाम करो। फरिश्ते (ताज्जुब से) अर्ज करेंगें, या रब! हम तो आपके आसमानों के रहने वालें हैं और आपकी बेहतरीन मख्लूक हैं (इसके बाबजूद) आप हमें हुक्म फरमा रहें हैं कि इनके पास जाकर सलाम करें (इसकी वजह क्या है)? अल्लाह फरमाएगा, इसकी वजह ये है कि ऐ ऐसे लोग हैं जिनके जरिये सरहदों की हिफाजत की जाती थी और मुश्किल कामों में उन्हें आगे रखकर उनके जरिये से बचाब हासिल किया जाता था तथा उनमें से जिसको मौत आती थी उसकी हाजत उसके सीनों में ही रह जाती थी, वह उन्हें पूरा नहीं कर पाता था। चुनांचे उस वक्त उसके पास हर दरवाजे से फरिश्ते यूं कहते हुये आयेंगें कि तुम्हारे सब्र करने की वजह से तुम पर सलामती हो। इस जहान में तुम्हारा अंजाम कितना ही अच्छा है।(इब्ने हब्बान)
- कयामत के दिन मेरी उम्मत के कुछ लोग इस हाल में आयेंगें कि उनका नूर सूरज की रौशनी की तरह होगा। हमने अर्ज किया, अल्लाह तआला! वो कौन लोग होंगे ? इर्शाद फरमाया, ये फुकरा मुहाजिरीन होंगें जिन्हें मुश्किल कामों में आगे रखकर उनके जरिये से बचाब हासिल किया जाता था। उन्हें जमीन के मुख्तलिफ हिस्सों से लाकर जमा किया जायेगा। (मस्नदे अहमद)
रसूल (सल्ल0) की ये हदीसें सरहद की हिफाजत करने वाले सैनिकों के कयामत के रोज आला दर्जे पर होने की बात कर रही र्है। इस हदीस में ये भी इर्शाद हुआ है कि ऐसे वतनपरस्त सैनिकों को अल्लाह दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों से लाकर जमा करेंगें। यानि मुसलमान चाहे दुनिया के किसी मुल्क में हो और उसने बतौर सैनिक अपने सरहद की हिफाजत करते हुये अपने हमवतनों को सुकून की नींद सोने का मौका दिया होगा तो कयामत के रोज वो फरिश्तों से भी आला मुकाम पर होगा और जन्नत में डाला जाएगा।
-इमाम अली का कौल है, "खुदा की कसम जिस अफरादे-कौम पर उनके धरों के हुदूद के अंदर ही हमला हो जाता है, वह जलीलो-ख्वार हो जातें है।"
ऐसे में लाजिमी है कि कौम पर हमले से बचाने के लिये सुरक्षारत सैनिकों का मुकाम बेहद आला है। जो भी सैनिक के रुप में अपने वतन की खिदमत करता है , अल्लाह उसे अपने करीबियों में शामिल करतें हैं।
वतनपरस्ती और हिन्दुस्तानी मुसलमान
मुसलमानों का इस मुल्क से मोहब्बत और इस मुल्क की हिफाजत के लिये जान की बाजी लगाने की परंपरा हजरत अमीर खुसरो से लेकर बाबर काल से होते हुये आजादी के बहुत बाद तक अनवरत चलता रहा। अमीर खुसरो का भारत भूमि से अगाध प्रेम, इब्राहीम लोदी का मध्य एशियाई बर्बर हमलावर बाबर के खिलाफ संधर्ष , इब्राहीम लोदी के बेटे महमूद लोदी और हसन खाँ मेवाती का मातृभूमि की स्वाधीनता के लिये किया गया संधर्ष, भारत की आजादी में बलिदान हुये हजारों मुस्लिम नौजवान और उलेमा, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओं की स्वाधीनता यज्ञ में आहुति ,वीर सैनिक अब्दुल हमीद की कुर्बान , ए0 पी0 जे0 अब्दुल कलाम का देश को परमाणु शक्ति संपन्न बनाना उसी पुनीत परंपरा की कड़ी है।
मगर अपने प्यारे वतन भारतबर्ष पर दुर्भाग्य की काली छाया तबसे पड़नी शुरु हो गई जब मजहब को अपनी राजनीति के रुप में इस्तेमाल करने वालों ने मुसलमानों के मन में ये बात डालनी शुरु कर दी कि 'मुसलमान किसी देश की सीमा से बंधे नहीं होते। सारा मुस्लिम विश्व उनका है, इसलिये उनकी निष्ठा अपने मुल्क के प्रति नहीं होनी चाहिये।' बाद में अल्लामा इकबाल ने इसी भाव को बढ़ाते हुये "मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा" का तराना लिखा और मौलाना मौदूदी जैसे कई विद्वानों ने आम मुस्लिम मानस में इस भाव को और पुष्ट कर दिया। इन सबके परिणामस्वरुप इस मुल्क के मुसलमानों के सोच की दिशा बदल गई। उसका भावात्मक लगाव भारत से न होकर मध्यपूर्व के और दूसरे इस्लामी देशो की तरफ हो गया। उसे फिलीस्तीन, चेचन्या और अफगानिस्तान में धटिट धटनायें तो उद्वेलित करने लगी पर अपने मुल्क में धटिट होने वाले धटनाओं पर वह परेशान नहीं होता था। इसी सोच की परिणति पाकिस्तान के रुप में हुई पर पाकिस्तान बनने के बाद भी उनकी सोच की दिशा को मोड़ने का प्रयास नहीं किया गया। भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच या हाॅकी मैच में पाकिस्तान की जीत पर खुशियां मनाना, अल-अक्स मस्जिद पर हमले के बाद भारत में प्रदर्शन, कश्मीर आदि मुद्दों पर पाकिस्तान के पक्ष में बयानबाजी इसी सोच के नतीजें हैं। आज भी भारत के मुसलमान भष्ट्राचार, मुल्क की सुरक्षित सीमा, सामरिक रुप से मजबूत और सशक्त भारत, गंगा या हिमालय प्रदूषण, बांग्लादेश से हो रहा अबाध धुसपैठ आदि बिषयो पर कभी मुखर होकर सामने आते दिखाई नहीं देते वरन् उल्टा इन कामों में भाग लेना उन्हें इस्लाम विरोधी कृत्य लगता है।
अफसोस की बात ये है कि ऐसा करते हुये वो इस्लाम का नाम लेतें हैं कि हमारे इस्लाम की नजर में हमारा ऐसा व्यवहार जाएज है! जबकि हकीकत ये है कि इस्लाम का आड़ लेकर अपने वतनपरस्ती को संदिग्ध करने वालो का अमल न तो कुरान से साबित है न नबी (सल्ल0) की तालीम से और न ही किसी सहाबा के अमल से। आज दुनिया में जितने भी इस्लामी मुल्क हैं, किसी के अंदर भी अपने वतन को कमतर कर देखने का जज्बा नहीं है। हर इस्लामी मुल्क के लिये उनकी पहली प्राथमिकता अपने वतन की हिफाजत उसकी तरक्की और अपने देशवावासियों का खुशहाली है। बदकिस्मती से हमारे मुल्क में राजनेताओं और गुमराह करने वाले मजहबी लीडरों की सियासत ने वतनपरस्ती के जज्बे को भ्रम का बिषय बना दिया है जिससे हमारे मुल्क की तरक्की और एकात्मता भाव अवरुद्ध हो गया है। जो भारतीय मुसलमान इस्लाम की तालीमों पर अमल करतें हैं उनके मन में अपने वतन के लिये सिर्फ मुहब्बत ही होगी। हमारे मुल्क की तारीख और वर्तमान ऐसे वतनपरस्त मुसलमानों पर गर्व करता है और अपने आने वाली पीढि़यों को प्रेरणा और पाथेय प्रदान करता है।
वतनपरस्त मुसलमान जिन पर हमें गर्व है।
हमारे मुल्क में इस देश और इसके निवासियों से मोहब्बत करने वाले , इसकी एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाले मुसलमानों की एक लंबी श्रृंखला है। इतिहास के पन्ने इस मुल्क के लिये अपने प्राणों की आहुति देने वाले वतनपरस्त मुसलमानों की गाथाओं से भरी पड़ी है। मगर अफसोस है कि इन हुतात्माओं के बलिदान, वतन से मोहब्बत और देशभक्ति के जज्बे की जानकारी देश के आम जनमानस को नहीं है। ये तमाम वतनपरस्त अकीदे के ऐतबार से मुस्लिम जरुर थे पर वतनपरस्ती की लिहाज से हिंदुस्तानी थे। इन हुतात्माओं में से सिर्फ कुछ का जिक्र स्पष्ट कर देगा कि वतनपरस्ती इस्लाम के लिये कभी खतरा नहीं बनती वरन् ये तो ईमान को और भी पुख्तगी प्रदान करती है जैसा रसूल (सल्ल0) की हदीस में आया है।
- अमीर खुसरो- अमीर खुसरो के बारे में कहा जाता है कि वो पहले राष्ट्रवादी मुसलमान थे जिनके मन में भारतभूमि के प्रति अपार श्रद्धा थी। 'नूहे-सिफर' नाम से उन्होनें एक महाकाव्य लिखा था जिसमें उन्होनें भारतबर्ष के प्रति अपनी भक्तिभावना दर्शाई है। उनकी रचनायें बताती हैं कि कम से कम उनके समय तक भारत दुनिया के देशों का सिरमौर था। अमीर खुसरो भी इस तथ्य की पुष्टि करतें हैं कि आदम और हव्वा जब जन्नत से निकाले गये थे तो वो इसी भारत भूमि पर उतारे गये थे। खुसरो ने खुरासान, तुर्की, बसरा, चीन, समरकंद, मिश्र, कंधार इन सबको भारत भूमि की तुलना में तुच्छ बताया है। फिर अपने काव्य में खुसरो में यह भी लिखा है कि कोई मुझसे ये पूछ सकता है कि तू मुसलमान होकर हिंदुस्तान की बड़ाई क्यों करता है ? तो मेरा जबाब होगा इसलिये क्योंकि हिंद मेरी जन्मभूमि है और मेरे रसूल (सल्ल0) की ये हुक्म है कि 'वतनपरस्ती ईमान का हिस्सा है।'
- इब्राहीम खाँ गार्दी- अफगानिस्तान के बर्बर आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली ने जब भारत पर हमला किया तब उसके मुकाबले में वीर मराठा सैनिक खड़े हो गये। 1761 में पानीपत के मैदान में दोनों पक्षों में धमासान युद्ध हुआ जिसमें मराठों के प्रधान सेनापति सदाशिव राव मारे गये और प्रधान तोपची इब्राहीम गार्दी गिरफ्तार कर लिये गये। उन्हें अब्दाली के पास लाया गया। अब्दाली को पता था कि ये मराठों का खास आदमी है , इसे मराठों के कई राज मालूम होंगें। अगर ये हमारे पक्ष में आ गया तो हम भारत को आसानी से जीत लेंगें। उसने इब्राहीम गार्दी को लालच देते हुये कहा, -तुम मुसलमान होकर भी मराठों का साथ क्यों दे रहे हो? तुम मेरा साथ दो, मैं तुम्हें मुक्त भी कर दूंगा और 20 हजार सिपाहियों का नायक भी बना दूंगा। इब्राहीम ने जबाब दिया, हिंदुस्तान मेरी जन्मभूमि है और यह मेरा प्यारा वतन है। मैं इसकी मिट्टी में पला-बढ़ा हूँ और इससे मुझे बेइंतहा मुहब्बत है। जो मेरे वतन पर बुरी नजर डालेगा मैं उसकी आँखें नोंच लूंगा। अहमदशाह अब्दाली ये सुनते ही आगबबूला हो गया और इब्राहीम गार्दी को सजाए-मौत दे दी। वतन के लिये शहीद होने वाला गार्दी मराठों की सेना में था, उसने न सिर्फ एक मुस्लिम शासक के खिलाफ जंग लड़ी बल्कि उसके सेनानायक के ओहदे का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। इन तमाम बातों के पीछे की वजह सिर्फ एक थी कि उसे अपने मादरे-वतन से बेइंतहा मोहब्बत थी। एक सच्चा मुसलमान कभी भी अपने ईमान का सौदा नहीं कर सकता तो फिर इब्राहीम गार्दी ऐसा कर सकते थे जबकि उसके प्यारे हबीब रसूल (सल्ल0) ने फरमा दिया था कि वतनपरस्ती ईमान का हिस्सा है?
- हसन खाँ मेवाती - बाबर के हिन्दुस्तान पर हुकुमत करने की राह में सबसे बड़ी बाधा हसन खां मेवाती बने थे, जो एक मुसलमान थे। राणा सांगा के साथ बाबर की जंग में मेवाती भी राणा के साथ अपनी मातृभमूमि को बचाने के संधर्ष में शामिल थे और शहीद हुये थे। उनका ये स्पष्ट मत था कि उनके जीते-जी कोई विदेशी उनके मुल्क पर कब्जा नहीं जमा सकता भले ही वह मुसलमान ही क्यों न हो।
-बहादुर शाह जफर- ये आखिरी मुगल बादशाह थे। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में इन्हीं के नेतृत्व में स्वाीधता की जंग लड़ी गई थी। इस युद्ध में तमाम क्रांतिकारियों और हिंदू राजाओं नें इन्हें अपना नेता माना था। युद्ध में हार के पश्चात् इन्हें बंदी बनाकर रंगून भेज दिया गया। अंग्रेजों ने इनके ऊपर बेहद जुल्म किये। एक बार भूख लगने पर जब उन्होंनें खाना मांगा तो अंग्रेजों ने उनके सामने थाली में उनके बेटों के सर काट कर पेश किया। इसे देख जफर ने उन अंग्रजों से कहा कि हमारे मुल्क के बहादुर बेटे मुल्क की खातिर अपने सर कटवाकर अपने बाप के सामने इसी तरह पेश करतें हैं। जफर बादशाह होने के साथ-2 उर्दू के भी मशहूर शायर थे। अंग्रेंजों को ललकारते हुये उन्होंनें कहा था,
गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते-लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।
जफर का निर्वासन का दिन बर्मा की राजधानी रंगून में बीता था। वहां हर वक्त उन्हें अपने प्यारे वतन की याद सताती रहती थी। वो चाहते थे कि उनका देहावसान हिंद की पवित्र जमीन पर हो और उन्हें वहीं दफनाया जाये। अपने पाक सरजमीं से उनकी मोहब्बत और जुदाई का दर्द उनके इस शेर से पता चलता है जो उन्होंनें रंगून की जेल में लिखा था-
है कितना बदनसीब जफर दफन के लिये, दो गज जमीन ना मिल सकी कूऐ-यार में।
-अशफाकउल्लाह खाँ- स्वाधीनता की जंग के दौरान जब आम-जनमानस में ये भाव पनपने लगा था की वतन के आम मुसलमान आजादी की जंग में शिरकत नहीं करते तब इस मिथ्या धारणा को तोड़ने के लिये अशफाकउल्लाह सामने आये। अशफाक का जन्म शाहजहाँपुर के एक रईस परिवार में हुआ था। प्रख्यात क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल इनके अभिन्न मित्र थे। इनके मन में हिंदू-मुस्लिम आदि संकीर्ण मजहबी भाव नहीं थे। एक बार हिंदू-मुस्लिम झगड़ों के वक्त इन्होंनें आर्य समाज मंदिर की रक्षा की थी। अशफाक क्रांतिकारी संगठन मातृवेदी के सक्रिय सदस्य थे। काकोरी कांड में इनकी प्रमुख भूमिका थी। अंग्रेज सरकार ने इनके ऊपर मुकदमा चलाया था और 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद में फांसी पर लटका दिया था। अशफाक के वतनपरस्ती के किस्से भावविभोर कर देतें हैं। काकोरी कांड का षड्यंत्रकारी होने के कारण उनपर मुकदमा किया गया था। मुकदमें के मजिस्ट्रेट मुसलमान थे जिनका नाम ऐनुद्दीन था। उन्होंनें अशफाक को सलाह दी कि वो किसी मुस्लिम को अपने मुकदमे के लिये नियुक्त करें पर अशफाक ने एक हिंदू कृपाशंकर हजेला को अपना वकील चुना। अशफाक जब जेल में थे तब एक सी0आई0डी0 अधिकारी खानबहादुर तसद्दुक हुसैन उनके पास आये और आकर उनसे कहा, देखो अशफाक! हमलोग मुस्लिम हैं और ये बिस्मिल वगैरह हिंदू राज्य कायम करना चाहतें हैं। तुम कहां से इन काफिरों के चक्कर में आ गये। हमारा साथ दो तो फायदे में रहोगे। अशफाक ने डांटते उसे उसे जबाब दिया, खबरदार! जबान संभालकर बात कीजिये। रामप्रसाद बिस्मिल को मैं आपसे ज्यादा बेहतर जानता हूँ। उनका हिंदू राज्य कायम करने का कमसद बिलकुल भी नहीं है और अगर अगर ऐसा है भी तो वो हिंदू राज्य अंग्रेजों की हुकूमत से बेहतर होगा। आपने राम को अगर काफिर कहा तो मैं आपसे यही अनुरोध करुँगा कि इसी वक्त यहां से निकल जायें अन्यथा मुझपर दफा 302 का एक और अभियोग लग जायेगा। अपनी आखिरी नज्म में अशफाक ने जो गजल लिखी थी उसमें उन्होंनें लिखा था कि मेरे मजहब में पुर्नजन्म तो नहीं है पर मैं खुदा से यही मांगूँगा कि मुझे जन्नत के बदले अपने प्यारे वतन में फिर से जन्म दे दो। ऐसी थी अशफाकउल्लाह की अपने प्यारे वतन से मोहब्बत।
- वीर अब्दुल हमीद- वीर अब्दुल हमीद उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में एक मुस्लिम परिवार में जन्में थे। 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ हुये जंग में वीर अब्दुल हमीद ने पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। इस युद्ध में वीर अब्दुल हमीद अकेले ही पाकिस्तानी खेमे में धुस गये और अमेरिका निर्मित तीन पैटन टैंको पर कब्जा कर लिया। वो गंभीर रुप से धायल थे मगर इसके बाबजूद भी वो जब तक नहीं रुके जब तक उन्होंनें दुश्मन खेमे के चैथे टैंक को भी नष्ट कर दिया। उस युद्ध में असाधारण वीरता दिखाने वाले अब्दुल हमीद वीरगति को प्राप्त हुये। उनकी वीरता के लिये भारत सरकार ने उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया। देश में कईयों को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया पर देश का बच्चा-2 केवल वीर अब्दुल हमीद को जानता है।
भारत की स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वालों की फेहरिस्त में बड़ी तादाद में मुस्लिम महिलायें भी थीं जिनकी बहादुरी और वतनपरस्ती का जज्बा कोई सानी नहीं रखता। इन महान वीरांगनों में से कुछ हैं-
- बेगम हजरत महल- ये 1857 के स्वाधीनता संग्राम की महान सेनानी और अवध के नबाब वाजिद अली शाह की पत्नी थीं। भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड डलहौजी की हड़प नीति के कारण इनके पति को पदच्युत कर दिया गया था और उन्हें नजरबंद करके कलकत्ता भेज दिया गया। बेगम हजरत महल ने कंपनी सरकार की इस मनमानी को स्वीकार नहीं किया और अपने 11 साल के बेटे को तख्त पर बिठाकर वो खुद 1857 की जंग में शरीक हो गईं। उन्होंनें अपने पति को छुड़ाने की कोशिश में लार्ड केनिंग के सुरक्षा धेरे में भी सेंध लगा दी थी। अपनी वीरता से उन्होंनें कंपनी सरकार के छक्के छुड़ा दिये थे। वो खुद हाथी पर सवार होकर जंग में अपने सैनिकों का नेतृत्व करतीं थाी। बाद में रानी विक्टोरिया ने भारत का शासन अपने हाथों में ले लिया और धोषणा की कि अब किसी के साथ अन्याय नहीं होगा। मगर देशप्रेमी और स्वाधीनता प्रेमी बेगम ने कहा कि गुलामी गुलामी होती है चाहे वो कंपनी सरकार की हो या रानी विक्टोरिया की और वो अपने वफादार सैनिकों के साथ अंग्रजों के साथ जंग लड़ती रहीं।
- जूही- ये रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने की कमांडर थी। झांसी के किले से रानी लख्मीबाई को बाहर निकलने में इन्होनें ही मदद की थी। कालपी और ग्वालियर में अंग्रजों के साथ हुये युद्ध में इन्होंनें रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर अंगे्रजों पर कहर बरसा दिया था। अंग्रेत सेनापति हृयूरोज इनकी बहादुरी और दिलेरी से इतना धबरा गया था कि उसने अपने तमाम सैनिकों को ये आदेश दे दिया था कि किसी भी तरह से जूही को पकड़ कर गिरफ्तार करो। ये अपनी आखिरी सांस तक अंग्रेजों से लड़ती रहीं और मातृभमि की बलिबेदी पर कुर्बान हो गईं।
- अजीजन बाई- 1857 के जंग का बिगुल अमर सेनानी मंगल पांडे ने फूंका था। क्रांति के उनके आह्वान पर कई लोग मुल्क की बलिबेदी पर खुद को बलिदान करने के लिये आगे आये। इनमें एक नर्तकी अजीजन भी थी। वो पेशे से भले नर्तकी थी पर देशभक्ति का भाव उसके अंतःकरण में कूट-कूट कर भरा था। 1857 की जंग में शरीक होने वालों में अजीनन का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रखर राष्ट्रभक्त वीर सावरकर ने अजीनन बाई के बारे में लिखा है, अजीनन एक नर्तकी थी, परंतु सिपाहियों से उसे बेहद स्नेह था। उसका प्यार साधारण बाजार मे धन के लिये नहीं बिकता था। अजीनन के सुंदर मुख की मुस्कुराहट युद्धरत् सिपाहियों को प्रेरणा से भर देती थी। उसके मुख के भुकृटि का तनाव रणक्षेत्र से भाग आये कायर सिपाहियों को पुनः युद्धक्षेत्र में भेज देती थी। अजीजन का कोठा क्रांतिकारियों के गुप्त बैठकों का अड्डा होता था जहां नाना साहेब, बाला साहेब, अजीमुल्ला खाँ साहब, सूबेदार टीका सिंह, शम्सुद्दीन खाँ जैसे देशभक्त योजनायें बनाते थे। इन्हीें क्रांतिकारियों के साथ बैठकर अजीनन ने अपनी भारत माता को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने की कसम थी। अजीनन के साथ कई महिलायें भी थीं जो जंग के पश्चात् धायल सैनिकों की मरहम पट्टी करती थीं। कानपुर पर जब अंग्रेजो का अधिकार हो गया तो वो पकड़ ली गईं। उनके अनुपम सौंदर्य पर अंग्रेज सैनिक हैवलाॅक मुग्ध हो गया और उसने अजीनन को प्रलोभन देते हुये कहा कि तुम अगर माफी मांग लो तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा। जाहिर था अजीजन जैसी वतनपरस्त कभी इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकती थी। अंग्रेजों ने उन्हें प्राणदंड दे दिया और वो हंसते-2 भारतमाता के कदमों में बलिदान हो गईं।
- रहीमी- ये बेगम हजरत महल की सहायिका थीं। बेगम के महिला टुकड़ी का नेतृत्व इन्हीं के हाथों में था। महिला सैनिकों को ये तोप और बंदूक का प्रशिक्षण देतीं थी। अपनी बहादुरी से इन्होंनें अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया था।
- हैदरीबाई- ये लखनऊ की तवायफ थीं और बेपनाह हुश्न की मलिका थीं। कई अंग्रेज अफसर इनके कोठे पर आते थे जिनसे वो किसी तरह उनकी योजनायें पूछ लेतीं थीं और फिर उसे क्रांतिकारियों तक पहुँचा देती थी। बाद में जब अंग्रेजों को इनपर शक हो गया तो वो ये बेगम हजरत महल की महिला कमांडर रहीमी के पास जाकर उनकी सेना में शामिल हो गईं।
इन सबके अलावा इस कड़ी में मौलाना फजल हक खैराबादी और अहमदुल्ला शाह का नाम भी है जिन्होंनें 1857 की जंग को जेहाद कहा था और मुसलमानों का आह्वान किया था कि वो इस संग्राम में भारतीय सैनिकों की मदद करें। मुजफ्फरनगर जिले के पास स्थित थाना नगर के मुसलमान ने हाजी इमामदुल्लाह को अपना अमीर मानकर अंग्रेजों के खिलाफ संग्राम में शामिल हुये थे और वतन के लिये खून बहाने वालों में अपना नाम दर्ज कराया था।
- जय हिंद का नारा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सहयोगी और आजाद हिंद फौज के कैप्टेन आबिद हसन ने दिया था।
- शिवाजी महाराज की नौकावाहिनी के कमांडर मुसलमान थे जिनका नाम दौलत खान था।
- झांसी की रानी की सेना में उनका दो सहयोगी जूही और मोती बाई थी। रानी के प्राणों की हिफाजत करते-2 अपने प्राणों की आहुति देने वाले गुलाम गौस खाँ और खुदादा खान भी मुसलमान ही थे।
- आगरे के किले से शिवाजी महाराज के बच निकलने में उनकी मदद करने वाले भी एक मुसलमान थे जिनका नाम मदारी मेहतर था।
- सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह के पक्ष में बाबा बदरुद्दीन ने जंग की थी। मुगल बादशाह के खिलाफ जंग को उन्होंनें जिहाद कहा और गुरु की रक्षा करते हुये अपने बेटे समेत 700 शिष्यों की कुर्बानी दी।
- 1857 मे अवध क्षेत्र में क्रांति की धुनी रमाने वाले एक मौलवी साहब थे जिनका नाम मुल्ला अजीमुल्लाह था।
- 1857 के जंग में हजारों मौलवियों को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। 1826 में स्थापित दारुल उलूम देबबंद अपने स्थापना काल से ही अंग्रेजों की मुखालफत करता रहा। तारीखों में दर्ज है कि देबबंद के 52 हजार उलेमाओं को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। सैकड़ों उलेमाओं को उम्रकैद की सजा देकर कालापानी भेज दिया गया था।
वतनपरस्त मुसलमानों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि इसके ऊपर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। इन सबका जिक्र इस मुल्क के तमाम वाशिंदों में प्रेरणा का संचार करता है और अपने वतन से मोहब्बत करने की तालीम देता है।
- महाराणा प्रताप का जंग एक मुस्लिम बादशाह से था मगर इसके बाबजूद एक मुसलमान हकीम खान सूरी उनके सेनापति थे क्योंकि उन्हें भी राणाप्रताप की तरह अपनी मातृभूमि से बेइंतहा मुहब्बत थी।
वतन के प्रति कर्तव्य: इस्लाम की नजर में
वतन से मोहब्बत का जज्बा केवल दुश्मन मुल्क से जंग के दौरान या हॉकी , क्रिकेट जैसे खेल के दौरान ही नहीं दिखनी चाहिये वरन् वतन से मोहब्बत का जज्बा हमारे व्यवहार में, आचरण में, चरित्र में सबमें परिलक्षित होनी चाहिये। सड़क पर दिन के वक्त बल्ब जला रहा है जो ये सोचकर कि ये हमारे देश का नुकसान है, उसे बुझा देना देशभक्ति है। देश की जीवनदायिनी नदियां और पर्वत को प्रदूषण मुक्त रखने का प्रयास करना देशभक्ति है। मुल्क के साथ दगाबाजी करने वालों का साथ न देना देशभक्ति है। वोट देने के अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग मुल्क की खिदमत करने वाले को चुनने में करना देशभक्ति है। भष्ट्राचार, रिश्वतखोरी, फितना फैलाने वालों का बहिष्कार करना वतनपरस्ती है। हमारी पूजा-पद्धति कोई भी हो, धर्मग्रंथ कोई भी हो पर हमारी निष्ठा का केंद्र मेरा वतन है, ऐसी सोच रखना वतनपरस्ती है। अपने मुल्क के सभी महापुरुष मेरे अपने है, मेरे पूर्वज है ऐसा भाव रखते हुये उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना देशभक्ति है।
भारत में आजादी के बाद शुरु हुये वोट बैंक राजनीति के कारण मुसलमानों के तुष्टिकरण का दौर चला उसने मुसलमानों की मानसिकता ऐसी बना दी कि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मुसलमान ये भूल गये कि इस वतन के प्रति उनके कर्तव्य क्या हैं, एक जिम्मेदार नागरिक होने के की हैसियत से इस मुल्क और इसके वाशिंदों के प्रति उनके कर्तव्य क्या हैं ?
मुसलमानों की ये मानसिकता बना दी गई कि वो इस मुल्क में केवल अपने अधिकार की बात करें और इसके प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जायें ! जबकि पवित्र कुरान और हदीसें एक मुसलमानों को न केवल वतन से मोहब्बत की सीख देती है वरन् उन्हें अपने वतन के प्रति कर्तव्यों की भी याद दिलाती है। स्वयम् नबी (सल्ल0) अपने प्यारे वतन में अमन की बहाली और अपने हमवतनों की खुशहाली व तरक्की के लिये हमेशा फिक्रमंद रहते थे। ये बात नबी (सल्ल0) के किरदार से साबित है।
एक वाकिया नबी (सल्ल0) के ऐलाने-नुबुबत से पहले का है जब अरब के कबीलों में हर वक्त तकरार और जंग छिड़ी रहती थी। रोज-रोज होने वाली लड़ाईयों और मारकाट से तंग आकर मक्का में कुछ समझदार लोगों (जिनमें नबी (सल्ल0) भी थे) ने एक मीटिंग की और एक तहरीक चलाने का फैसला किया। इस मीटिंग में एक मुआएदा किया गया, जिसकी मुख्य बातें निम्न थी।
1. अपने मुल्क से बेअमनी दूर करेंगें 2. मुसाफिरों की हिफाजत करेंगें 3. गरीबों की इमदाद करेंगें 4. मजदूरों की इमदाद करेंगें 5. किसी जालिम या गासिब को मक्का मुकर्रमा में रहने नहीं देंगें।
इस मुआएदे में तय की गई बातें नबी (सल्ल0) को इतनी अजीज थी कि वो ऐलाने-नुबुबत के बाद भी फरमातें थे कि इस मुआएदा से मुझे जितनी खुशी हुई उतनी खुशी मुझे किसी लाल सुर्ख ऊँटनी के मिलने से भी नहीं होती। (सीरते इब्ने हिश्शाम, जि0-1, सफा-134)
- उपद्रव या फितना न फैलाने की तालीम -
इंसान की ये कुदरती फितरह है कि उसे अमन और शांति प्यारी होती है। हम जिस मुल्क में रहतें है, उस मुल्क में अगर अमन-चैन हो तो हमारी जिदंगी आसान हो जाती है। इस्लाम शब्द का अर्थ है सलामती, अमन। पवित्र कुरान ने मुसलमानों को निर्देशित किया है कि वो जिस मुल्क में, समाज में रहतें हैं वहां शांति और अमन के साथ रहें, वहां फितना फैलाये। पवित्र कुरान के अनुसार फितना फैलाना कत्ल से भी बड़ा गुनाह है। (सूरह बकरह , 2:191) अल्लाह के भेजे हुये नबियों ने भी अपने उम्मत को यही आदेश दिया था। हजरत शुएब (अलैहे0) को मदयन की तरफ भेजा गया था। उनकी कौम जालिम थी जिन्हें हजरत शुएब (अलैहे0) ने निदेर्शित करते हुये उनसे कहा था, ऐ मेरी कौम धरती पर फसाद न फैलाना। हजरत इब्राहीम (अलैहे0) की पूरी कौम नाफरमान थी पर उन्होंनें भी अल्लाह से यही दुआ मांगी, ऐ अल्लाह! इस नगर को शांति वाला बना दे।
एक-दूसरे का धन न हड़पने और रिश्वतखोरी तथा भष्ट्राचार को बढ़ावा न देने की तालीम-
प्रजाजनों में इस तरह की मनोवृत्ति का होना देश में फूट, भष्ट्राचार और अराजकता फैलाता है। पवित्र कुरआन लोगो को इस प्रवृति से बचने के लिये भी आदेश देता है। कुरान की आयत है, 'और तुम लोग न तो एक दूसरे के माल को अवैध रुप से खाओ और न अधिकारी व्यक्तियों के आगे उनको इस गरज से पेश करो कि तुम्हें दूसरों के माल का कोई हिस्सा जान-बूझकर अन्यायपूर्ण तरीके से खाने को मिल जाये।' (सूरह बकरह , 2:188) पवित्र कुरान की ये आयत मुसलमानों को रिश्वतखोरी और भष्ट्राचार को बढ़ावा न देने की भी तालीम देती है।
शासक पर विश्वास-
कोई भी सरकार तब तक स्थिर नहीं हो सकती जबतक उसके प्रजाजनों का उसपर विश्वास न हो। प्रजा का अपने शासकगण पर विश्वास सबसे महत्वपूर्ण है। प्रजाजनों को चाहिये कि राजा (सरकार ) के द्वारा लागू किये गये विधानों को माने और उसका अनुपालन करने का तैयार रहे। इस उत्कृष्ट राज्यव्यवस्था का नाम बैअत है। (सूरह मुम्तहिना, 12) नबी (सल्ल0) की तालीमें भी यही बताती है-
सहीह मुस्लिम की एक हदीस में है, जो मेरा आज्ञाकारी है वह अल्लाह का आज्ञाकारी है और जिसने मेरी अवज्ञा की , उसने अल्लाह की अवज्ञा की। जिसने अपने साहिबाने हुकूमत की आज्ञा मानी, उसने मेरी आज्ञा मानी और जिसने अपने साहिबाने हुकूमत की अवज्ञा की उसने मेरी अवज्ञा की। (सहीह मुस्लिम, किताबुल इमरा)
- जोर-जर्बदस्ती करने की मनाही-
अगर कोई गलत काम कर रहा है या गलत रास्ते पर चल रहा है तो लोगों का काम केवल उसे हिदायत देने का होना चाहिये, उसके साथ जोर-जर्बदस्ती करने का नहीं। (सूरह युनूस, 10:99) इसके साथ ये भी हुकूमत से अगर अवाम की कोई मांग हो तो उसके लिये शांतिपूर्ण रास्ता अख्तियार करना चाहिये न कि हिंसक प्रदर्शन ,तोड़-फोड़ और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने का।
- नाहक कत्ल की मनाही-
पवित्र कुरान लोगों को नाहक एक दूसरे का कत्लेआम करने से भी तना करता है। कुरान की आयत स्पष्ट रुप से ये बताती है कि कत्लो-गारत का काम कहीं से जायज नहीं है। ऐसा करने वाला गुनाहकार है, खुदा की नजर में लानती है। पवित्र कुरान की आयत है- जिसने किसी इंसान को कत्ल करने के बदले या जमीन मे बिगाड़ फैलाने के सिवा किसी और वनज से कत्ल किया तो मानो उसने सारे ही इंसानों का कत्ल कर दिया। और जिसने किसी की जान बचाई समझो उसने सारे इंसानियत की जान बचाई। (कुरआन, 5:32,17:33)
- बुरा करने से एक दूसरे को रोकने की तालीम-
समाज में अगर सब एक-दूसरे के निगरां बन जायें और आपस में एक दूसरे को गलत करने से रोंकें तो सर्वत्र शांति फैल जायेगी। अगर ऐसा न हो तो फिर समाज में अशांति फैल जाती है। पवित्र कुरान इस बारे में कहता है- "इसरायल की संतान में से जिन लोगों ने इंकार की नीति अपनाई उनपर दाऊद और मर्यम के बेटे ईसा की जुबान से लानत पड़ी क्योंकि वे सरकश और उदंड हो गये थे और ज्यादतियाँ करने लगे थे। उन्होंनें एक दूसरे को बुरे काम करने से भी रोकना छोड़ दिया था।" (सूरह माइदह, 5:78-79)
- न्यायपूर्वक निर्णय करने की तालीम-
यह सामाजिक व्यवस्था के सुढृ़ढ़ संचालन का मूल मंत्र है। पवित्र कुरान की आयत है- जब लोगों के बीच फैसला करो तो हक के साथ करो। (सूरह निसा, 4:58) कई बार ये होता है लोग अपने निजी स्वार्थ, नाते-रिश्तेदारी के कारण न्याय के पथ से विचलित हो जातें हैं। पवित्र कुरान मुसलमानों को ताकीद करता है कि वो किसी भी हालत में न्याय का साथ न छोड़ें।
- प्रजाजनों में परस्पर फूट व विद्रोह न हो-
पवित्र कुरान की आयत है- "और उनलोगों की तरह न हो जाना जिनमें फूट पड़ गई और आपस में विभेद करने लगे।" (सूरह आलेइमरान, 3:105) जब हजरत मूसा(अलैहे0) तौरात की तख्तियां लाने जा रहे थे तो अपनी कौम को उन्होंनें अपने भाई हजरत हारुन के मातहती में छोड़ा। उन्होंनें हजरत हारुन को आदेश दिया कि मेरे पीछे तुम मेरे कौम वालों में मेरे जगह रहना और ठीक काम करते रहना और बिगाड़ पैदा करने वालों के मार्ग पर न चलना। (सूरह आराफ,7:142)
- प्रजाजनों में योग्य प्रतिनिधि हों-
मुल्क के सफल संचालन के लिये ये आवश्यक है कि सरकार में जनता के जो प्रतिनिधि हों वो योग्य हो ताकि वो आम जनता के तकलीफों को हुकूमत तक पहुँचा सके। अगर जनता अपने प्रतिनिधि के रुप में गलत लोगों को चुन लेती है तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। पवित्र कुरान इस बारे में कहता है, तुममें कुछ लोग तो ऐसे अवश्य ही रहने चाहियें जो नेकी की ओर बुलाये, भलाई का आदेश दें, और बुराईयों से रोकतें रहें। जो लोग ये काम करेंगें वही सफल होंगें। (सूरह आलेइमरान, 3:104)
- मुल्क की हिफाजत सबका कर्तव्य -
चाणक्य की एक प्रसिद्ध उक्ति है, "देश की सीमा माँ के वस्त्रों की तरह होती है जिसकी हिफाजत करना उसके प्रत्येक बेटे का कर्तव्य है।" हमारे पवित्र वेद में इस बारे में आदेश है "हम अपने वतन के जागृत पुरोहित बनें।" अगर देश का नागरिक सजग और सतर्क हो तो भी दुश्मन मुल्क की तरफ नजर टेढ़ी करने की जुर्रत नहीं करता। सीरत की किताबों में नबी (सल्ल0) के दादा से मुतल्लिक एक धटना है। ये वाकिया नबी (सल्ल0) की विलादत के 55 दिन पहले पेश आया था जब यमन का बादशाह 'अबरहा‘ अपनी सेना लेकर मक्का पर हमला करने आया था। वजह ये थी कि उसने अपने मुल्क में एक गिरिजा धर तामीर कराया था और चाहत था कि सारी दुनिया के लोग खाना-ए-काबा को छोड़कर उसके यहां हज करने के लिये आये। वो हाथियों का लश्कर लेकर मक्का पर हमला करने के लिये आ गया और उसने मक्का में कोहराम मचा दी। वहां के निवासियों का जीना हराम कर दिया। उनके माल-मवेशी, दौलत सब लूटने लगा। नबी (सल्ल0) के दादा अब्दुल मुत्तलिब के 400 से ज्यादा ऊँट लूट लिये गये। नबी (सल्ल0) के दादा खाना-ए-काबा में चले गये और जाकर अल्लाह से दुआ कि 'बेशक हर शख्स अपने-2 धर की हिफाजत करता है तो तू अपने धर की हिफाजत कर और हमें सलीबियों पर गलबा दे।' यह वाकिया यही साबित करती है कि अपने धर यानि अपने वतन की हिफाजत करना हर किसी की जिम्मेदारी है।
वतन पहले मजहब बाद में
ये स्वाभाविक है कि हर इंसान में अपने मजहब, अपनी उपासना पद्धति को लेकर स्वाभाविक लगाव होता है पर इस लगाव के कारण वतन के लिये उसकी निष्ठा में कमी नहीं आनी चाहिये। हमारा सर सजदे के लिये भले काबा या येरुशलम की लिये झुकेगा पर जब सर कटवाने की नौबत आयेगी तो ये सिर्फ अपने वतन के लिये कटनी चाहिये। जिस मुल्क की अवाम इस भावना को लेकर जीती है उस मुल्क पर कभी कोई संकट नहीं आ सकता। स्वामी रामतीर्थ जापान गये थे, वहां के एक बच्चे से उन्होंनें पूछा कि भगवान बुद्ध के लिये तुम्हारे मन में क्या भाव है? उस बच्चे ने जबाब दिया कि वो मेरे भगवान है, मैं सोते और जागते वक्त उनका नमन करता हूँ, उनकी दी गई शिक्षाओं पर जिंदगी गुजारने की कोशिश करता हूँ। इस पर स्वामी रामतीर्थ ने उससे पूछा, अगर वही बुद्ध एक आक्रमणकारी के रुप में तुम्हारे मुल्क पर हमला करने आ जायें तो? ये सुनते ही उस देशभक्त बच्चे की भृकुटि तन गई और उसने मुट्ठी बांधकर कहा, मैं बुद्ध की तमाम प्रतिमाओं को पिधलाकर उसकी गोली बनाऊँगा और बुद्ध के सीने में उतार दूंगा।
ये भी वतनपरस्ती का ही भाव है कि अरब को कोई मुसलमान किसी पाकिस्तानी को अपने वतन में आकर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे नहीं लगाने देगा और न ही कोई पाकिस्तानी किसी मिश्री या ईरानी को पाकिस्तान आकर मिश्र या ईरान जिंदाबाद के नारे लगाने देगा। अगर मुस्लिम मुल्कों के लिये इस्लाम ही सबकुछ होता तो आज खाड़ी देश बांग्लादेशी मुसलमानों को अपने से निकल जाने का हुक्म न देते। अगर वतन है तो हम है, वतन नहीं तो हम भी नहीं, ऐसा भाव रखने वाले मुसलमानों से इस मुल्क की तारीख रौशन है, जिनकी वतनपरस्ती उनके इस्लाम प्रेम में कभी बाधा नहीं बनी।
वंदेमातरम्: देशभक्ति का मंत्र
वंदे मातरम् वह गीत है जिसने हमारे स्वाधीनता संग्राम की आधारशीला रखी। पर मुसलमान हमेशा वंदे मातरम् गाने को लेकर विरोध करते रहतें हैं। उन्हें वंदे मातरम् गाना मजहब विरुद्ध कृत्य लगता है। हर देश की अपनी सभ्यता दृष्टि होती है, अपना सांस्कृतिक दृष्टिकोण होता है, जिस कारण उसके व्यवहार, दृष्टिकोण और प्रतीकों में वो चीज आ ही जाती है। वंदेमातरम् के संदर्भ में भी यही बात है। 30 दिसंबर 1939 की एक धटना है। महर्षि अरविंद अपने कुछ शिष्यों के साथ बैठे हुये थे, तभी उनके कुछ शिष्यों ने उनसे वंदेमातरम को लेकर उठने वाले विवाद की चर्चा कि और कहा कि इसके कुछ पद को निकालने की बात चल रही है क्योंकि इस गाने में हिंदू देवी की बात कही गई है जो मुसलमानों को अप्रिय है। महर्षि अरविंद ने इसपर टिप्पणी करते हुये कहा कि यह कोई धार्मिक गान नहीं है अपितु राष्ट्रीय गान है अतः राष्ट्रीयता के भारतीय स्वरुप में स्वभावतः इसमें हिंदू दृष्टि रहेगी। और ये बात केवल वंदेमातरम् के साथ नहीं हैं। दुनिया के हर इस्लामी मुल्क के राष्ट्रगीत में वहां की संस्कृति और दृष्टि स्पष्ट परिलक्षित होती है। माँ शब्द में अधिकतम श्रद्धा का भाव होता है, हमने अपने मुल्क को माँ कहकर इसके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित की। बांग्लादेश के राष्ट्रगान की शुरुआत इस तरह हुई है, 'मेरे प्यारे बांग्लादेश , मैं तुझसे प्यार करता हूँ। इस गीत में चार बार देश के लिये माँ शब्द का प्रयोग हुआ है। बांग्लाभूमि का इस गीत में मानवीय निरुपण हुआ है। बांग्लादेश मुस्लिम बहुल मुल्क है मगर आज तक किसी ने भी इस बात पर आपत्ति नहीं उठाई कि मुल्क के लिये माँ शब्द क्यों इस्तेमाल हो रहा है या हमारे राष्ट्रगान में मुल्क का मानवीय निरुपण क्यों हुआ है। अगर यही बात है फिर तो वंदेमातरम् न गाने वाले भारतीय मुसलमानों को बांग्लादेशियों पर भी कुफ्र का फतवा लगाना चाहिये, अरब, ओमान, कुवैत, जोर्डन आदि मुल्कों के मुसलमानों को भी काफिर धोषित कर देना चाहिये? मिश्र पर भी कुफ्र का फतवा लगाना चाहिये क्योंकि उन्होंनें भी अपने राष्ट्रगान में मिश्र को माँ कहकर पुकारा है। एक सच्चा वतनपरस्त अपने मुल्क की नदी, नाले, पर्वत सबसे मोहब्बत करता है और वंदे मातरम् इन तमाम भावों को खुद में समेटे हुये है। इस गाने परहेज करना मुल्क में आपसी वैमनस्यता को बढ़वा देगा और मुस्लिमों की राष्ट्रीय निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगायेगा।
मुसलमानों की जिम्मेदारी
अपने माँ-बाप को और अपने वतन को चुनने का अधिकार हमें नहीं होता, इन्हें ईश्वर हमारे लिये चुनता है और ईश्वर ने हमारे लिये हिंदस्तान को चुना। उस हिंदुस्तान को जहां मनुष्य तो मनुष्य देवता भी जन्म लेने के लिये लालायित रहतें हैं, जहां की पवित्र धरती के रजःकण अवतारों, नबियों, वलियों और युगपुरुषों की खुश्बू अपने अंदर समेटे हुये है, जो युगों तक सारी दुनिया का सिरमौर था, दुनिया जिसके चरणों में आकर तालीम हासिल करती थी। जिसने दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम का अभिनव मंत्र दिया था, दुनिया को शून्य और अंक दिये थे, व्याकरण की शिक्षा दी थी , विज्ञान सिखाये थे, जहां की संतति ने सारी दुनिया पर अपनी सांस्कृतिक विजय पताका फहराई था, जहां की पावन धरती पर श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे युगपुरुष हुये, थे, जहां दुनिया को शांति और सहअस्तित्व सिखाने वाले बुद्ध जन्में थे, जिसने दुनिया की तमाम लूटी, पिटी जातियों को अपने स्नेहमय आश्रय प्रदान किया था। मुसलमानों को ये जरुर सोचना चाहिये कि अल्लाह ने उस मुल्क को उनके लिये चुना है जहां हजरत आदम के चरण पड़े थे, जहां जलप्लावन के बाद हजरत नूह की नौका आकर ठहरी थी, जिस मुल्क के बारे में नबी ने फरमाया था कि हिंद से मुझे वलियों की खुश्बू आती है, जिसका नाम कर्बला के मैदान में जालिमों से धिरे नबी के नवासे की प्यासी जुबान पर आया था, जिस पाक जमीं से हज, रोजा, नमाज जैसे इस्लाम के बुनियादी अरकान शुरु हुये थे, जहां की पाक सरजमीं पर इस्लाम के सभी फिरकों के मानने वाले अमन और सुकून से रहते हैं , जहां अल्लाह का नाम लिये जाने वाले मस्जिदों और मजारों पर गोलियों नहीं बरसाई जाती।
1947 में मजहब के नाम पर पाकिस्तान बना पर लाखों मुसलमानों ने अपने वतन के रुप में एक इस्लामी मुल्क पाकिस्तान की बजाए हिंदूबहुल भारत को चुना। जाहिर था कि उन्हें अपने हिंदुस्तान से मुहब्बत थी पर इन्हीं मुसलमानों में कई ऐसे भी हुये जिन्होंनें भारत में रहते हुये भी पाकिस्तान के प्रति अपनी निष्ठा दिखाई और उनके इस कृत्य पर आम मुसलमान ,उलेमा और बुद्धिजीवी खामोश रहे। कईयों ने स्वाधीनता आंदोलन का मंत्र बने वंदे मातरम् को गाने से इंकार कर दिया। इन तमाम वजहों से भारत के बाकी नागरिकों की नजर में यहां के मुसलमानों की निष्ठा संदिग्ध हो गई। आज आम देशवासियों के मन में मुसलमानों को लेकर ये भाव है कि उन्होंने देश का विभाजन करवाया और विभाजन के बाद भी इस देश के प्रति पूर्ण रुप से वफादार नहीं हुये। मुसलमानों के बारे में ऐसी सोच तभी बदल सकती है कि जब मुसलमान अपने कृत्यों से और व्यवहार से ये साबित कर देगें कि वो इस मुल्क में किराएदार नहीं हैं, ये मुल्क उनका भी उतना ही हैं जितना यहां के हिंदुओं का, उनके मन में भी अपने महान पूर्वजों को लेकर वही सम्मान भाव है जो किसी आम हिंदू का है, वतन पर आया संकट उन्हें भी रातों को सोने नहीं देता, वो भी इस मुल्क की हिफाजत करते हुये अपनी गर्दन कटवा सकतें हैं, उन्हें भी इस मुल्क के निजाम और कानून पर उतना ही भरोसा है जितना किसी अन्य भारतीय को, वो भी ये कहने में गर्व महसूस करता है कि मैं भारतीय पहले हूँ, मुसलमान बाद में।
इस्लाम में वतनपरस्त के ऊँचे मुकाम की एक पक्की दलील-
हजरत अमीर खुसरो बाबा गरीब नवाज़ अजमेरी निजामुद्दीन औलिया (रह0) के शागिर्द थे ! अगर वतनपरस्ती की बात करें तो फिर आज तक हिंदुस्तान से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले मुसलमानों में अमीर खुसरो से बढ़ कर इस मुल्क से मुहब्बत करने वाला कोई नहीं हुआ ! इसलिए अगर वतनपरस्ती कुफ्र है तो फिर हजरत अमीर खुसरो से बड़ा काफ़िर कोई नहीं ! अब इस काफ़िर का क्या मक़ाम है, अगली बात इसे साबित कर देगा ! हजरत बाबा गरीब नवाज़ (रह0) ने एक बार कहा था कि ‘क़यामत के रोज़ खुदा ताला अगर मुझसे ये पूछेगा कि निजामुद्दीन तू तोहफे में मेरे लिए क्या लेकर आया है तो मैं अमीर खुसरो को पेश कर दूंगा !’
अगर वतनपरस्ती कुफ्र है तो क्या बाबा गरीब नवाज़ अल्लाह को बतौर तोहफा एक काफ़िर पेश करेंगे?? ये हो नहीं सकता , इसलिए ये दलील साबित कर देती है कि वतनपरस्ती ईमान को मुकम्मल बनाती है न कि कम करती है !
अंत में
अपने प्यारे वतन से हम सभी को वैसी ही मुहब्बत होनी चाहिये जैसी प्रख्यात शायर मुनव्वर राणा को है। अपनी पाकिस्तान यात्रा का संस्मरण बताते हुये मुनव्वर राणा ने अपनी किताब में जो लिखा उससे हिंदुस्तान के लिये उनकी बेइंतहा मोहब्बत के जज्बे का पता चलता है। राणा एक बार मुशायरे के सिलसिले में पाकिस्तान गये हुये थे। वहां जब कई दिन गुजर गये जो राणा अपने मुल्क की विरह में तड़पने लगे। अपनी इस तड़प को राणा ने जिन शब्दों में बयान किया है उसका सार ये है, पाकिस्तान में लंबा अरसा गुजारने के बाद अपने हिंदुस्तान की याद मेरे जेहन में ऐसी हो गई कि इंडियन एंबेसी की बिल्डिंग भी मुझे मस्जिद लगने लगा।
वतन की मोहब्बत की एक और अजीम मिसाल अजमेर शरीफ दरगाह के दीवान जैनुल आबिदीन की है जिन्होंनें पाकिस्तान द्वारा सीमा पर दो भारतीय सैनिकों का सर काटे जाने के विरोध में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ की यात्रा का विरोध किया। उन्होंनें दो टूक कहा कि अगर वो आतें भी हैं तो वो उनके स्वागत के लिये नहीं जायेंगें क्योंकि उनका वहां जाना उन वीर सैनिकों का अपमान होगा जिनके सर पाकिस्तानी सैनिकों ने काट लिये थे। उन्होंनें तो ये तक कहा कि सरकार को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को तभी जियारत की अनुमति देनी चाहिये जब वो भारत सरकार, हमारी सेना, शहीदों के परिजन और इस मुल्क के नागरिकों से माफी मांग ले।
हिंदुस्तान के प्रति भारतीय मुसलमानों का क्या कर्तव्य और अकीदा होना चाहिये ये बात पाकिस्तान के प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान डॉक्टर ताहिर उल कादरी ने बताई थी जब वो 2012 में मुंबई आये थे। डाॅक्टर ताहिर उल कादरी ने मुसलमानों को अपना संदेश देते हुये कहा था, "आका से मोहब्बत करो। अदब, अज्मत और शाने-रिसालत का अकीदा रखो और हुजूर के मोहब्बत के बाएस खुद मोहब्बत वाले बन जाओ। आप के जिस्मों से मोहब्बत टपके, प्यार टपके, अमन टपके। हिंद की सरजमीं पर , अपने मुल्क में कानून के वफादार बनकर रहो, किसी के गले न काटो, नफरत न फैलाओ, इंतहापसंदी न करो, दहशतगर्दी न करो। मुसलमान पूर मोहब्बत है, अमन है, प्यार करने वाला है, गरीबों की मदद करने वाला है, डुबने वाले को बचाने वाला है। आका के गुलाम बन कर पूरी इंसानियत के लिये सरापा रहमत , अमन और मोहब्बत का पैगाम बन जायें।"
नबी (सल्ल0) की हदीस है, यकीनन अल्लाह उस शख्स को नापसंद करता है जो अपने कौम पर हमला होने की सूरत में उनका प्रतिकार नहीं करता। [Uyun Akhbar al- Ridha (AS), v. 2, p. 28, no. 24]
इमाम अली ने भी फरमाया था-
‘The honour of a man lies in his crying over what happened in the past, his affection towards his homeland, and his protectiveness of his old brothers.’[Bihar al- Anwar, v. 74, p. 264, no. 3]
अभिजीत मुज़फ्फरपुर (बिहार) में जन्मे और परवरिश पाये और स्थानीय लंगट सिंह महाविद्यालय से गणित विषय में स्नातक हैं। ज्योतिष-शास्त्र, ग़ज़ल, समाज-सेवा और विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों का अध्ययन, उनकी तुलना तथा उनके विशलेषण में रूचि रखते हैं! कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में ज्योतिष विषयों पर इनके आलेख प्रकाशित और कई ज्योतिष संस्थाओं के द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिशों के लिए कटिबद्ध हैं तथा ऐसे विषयों पर आलेख 'कांति' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इस्लामी समाज के अंदर के तथा भारत में हिन्दू- मुस्लिम रिश्तों के ज्वलंत सवालों का समाधान क़ुरान और हदीस की रौशनी में तलाशने में रूचि रखते हैं।
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