अब्दुर्रहमान हमज़ा, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
26 जून, 2016
इंटरनेट आज के युग में विशेष रूप से धर्म की दृष्टि से दोधारी तलवार साबित हो रहा है। इसके अलावा, कुरान की आयतों की परस्पर विरोधी व्याख्याएं युवा मन में भ्रम पैदा कर रही हैं। इंटरनेट पर चल रही बहस और इन बहसों पर सार्वजनिक टिप्पणियां इसका एक स्पष्ट प्रमाण हैं दूसरी ओर, कुछ सीधे-सादे मुसलमान इस्लाम के नाम पर अधूरी जानकारी के आधार पर लेख और किताबें लिख रहे हैं, जो इस्लाम का बचाव करते हुए प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में वे इस्लाम और मुसलमानों को अपूरणीय क्षति पहुँचा रहे हैं। ऐसी ही एक पुस्तक श्री सैयद हामिद मोहसिन साहिब, जो बैंगलोर में सलाम सेंटर के प्रभारी हैं, द्वारा "गलतफहमियाँ" के नाम से प्रकाशित की गई है, जिसकी उर्दू अखबारों में व्यापक रूप से चर्चा हुई है। यह पुस्तक पाठकों के लिए इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध है। इस किताब में जिहाद के बारे में किताब में एक लेख “कुरआन की मुन्तखब आयतों पर आपत्ति और उनका उत्तर” पढ़कर हैरान रह गया। मौसूफ़ ने कुछ आयतों की इस तरह व्याख्या की है कि उन्हें समझाना बहुत जरूरी है और अगर ऐसा नहीं किया गया तो बड़ी गलतफहमी होने की आशंका है।
अपने लेख में, सैयद हामिद मोहसिन ने कहा, "इस्लाम के अपने आलोचक भी हैं और दुश्मन भी। उनकी तोहमत साज़ियों में, इस्लाम पर हिंसा भड़काने का आरोप महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनके अनुसार, इस्लाम ने मुसलमानों को गैर-मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने की अनुमति दे रखी है," वह आगे लिखते हैं "यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि कुरआन की आयतों को उनकी विशिष्ट पृष्ठभूमि और संदर्भ से अलग पढ़ने का प्रयास आम तौर पर कुरआन की समझ और उससे सलाह लेने में बाधा डालता है। भारत और अन्य देशों में, कई प्रयास किए गए हैं जिससे आयतों को व्याख्याएं दी गई हैं और जनता के दिमाग को गुमराह किया गया है। यहाँ हम कुछ आयतें प्रस्तुत करते हैं जिन्हें कुछ लेखकों द्वारा पाठकों को गुमराह करने के लिए संदर्भ से बाहर कर दिया गया है।
इसके बाद उन्होंने जिन आयतों का ज़िक्र किया है वह निम्नलिखित हैं “सुरह बकरा की आयात 191 से 194। और सुरह बराअत की किताल से संबंधित कई आयतें ख़ास तौर पर आयत नंबर 5 जिसे आयते सैफ अर्थात तलवार वाली आयत भी खा जाता है और जिसके बारे में फुकहा का मौकफ़ यह है कि इसने अमन से संबंधित पिछली तमाम आयतों और मुआहेदों को मंसूख कर दिया है (के हवाले से अल मौसूअतुल फिकह, किताबुल जिहाद जिसका उर्दू में अनुवाद क़ाज़ी मुजाहिदुल इस्लाम साहब की निगरानी में अंजाम पज़ीर हुआ है)
सुरह बकरा की आयत नंबर 191/192 का मफहूम यह है, “और उन्हें क़त्ल करो जहां भी उनको पाओ और उनको निकाल बाहर करो वहाँ से जहां से उन्होंने तुम्हें निकलने पर मजबूर किया है और फितना क़त्ल से अधिक बुरा है।“
सुरह बकरा की आयत नंबर 193 का अनुवाद इस प्रकार है; “और तुम उनसे लड़ते रहो यहाँ तक कि फितना बाकी न रहे और दीन अल्लाह के लिए हो जाए फिर अगर वह बाज़ आ जाएं तो समझ लो कि जालिमों के सिवा किसी पर दस्त दराज़ी रवा नहीं।
इस आयत में लेख लिखने वाले शब्द फितना का अनुवाद ज़ुल्म से करते हुए लिखते हैं कि आयत नंबर 193 के शब्दों पर गौर कीजिये। और वह यह है कि “कुफ्फार से उस वक्त तक लड़ते रहो जब तक कि ‘ फितना’ अर्थात ज़ुल्म’ का खात्मा न हो जाए और दीन महज़ अल्लाह ही के लिए हो जाए। इस आयत का कोई संबंध इस्लाम के गलबे और गैर मुस्लिमों के खिलाफ ज़ुल्म से नहीं है।
उपर्युक्त बातों को सामने रखते हुए यह आवश्यक है कि अब हम देश और विदेश पिछले पंद्रह सौ साल में लिखी गई प्रमाणिक उलेमा की तफसीरों पर एक निगाह डालें कि उन्होंने शब्द ‘फितना’ से क्या समझा है और क्या वह भी इन आयतों की गलत व्याख्या कर के जाने अनजाने में इस्लाम के खिलाफ प्रोपेगेंडा करने वालों को ऊर्जा प्रदान करने के मुर्तकिब हो गए हैं।
तफसीर इब्ने कसीर में सुरह बकरा की आयत 191 और 193 जिनमें फिकह का शब्द अलग अलग आया है इस तरह बयान किया गया है, “ज़ुल्म ज़्यादती अल्लाह को पसंद नहीं है और ऐसे लोगों से अल्लाह नाराज़ रहता है। चूँकि जिहाद के अहकाम में बजाहिर क़त्ल व खून होता है इसलिए यह भी फरमाया कि इधर अगर क़त्ल व खून है तो उधर अल्लाह के साथ शिर्क और कुफ्र है और उस मालिक की राह से उसकी मखलूक को रोकना है और यह फितना क़त्ल से बहुत ज़्यादा सख्त है “यह तो आयत नंबर 192 की व्याख्या है। आयत नंबर 193 ई व्याख्या इस तरह बयान हुई है, “फिर हुक्म होता है कि उन मुशरिकीन से जिहाद जारी रखो ताकि यह शिर्क का फितना मिट जाए और अल्लाह पाक का दीन ग़ालिब आ जाए और बुलंद हो जाए और तमाम दुनिया पर ज़ाहिर हो जाए”।
तफहीमुल कुरआन में इन दोनों आयतों की व्यखा मौलाना अबुल आला मौदूदी साहब ने निम्नलिखित शब्दों में की है। आयत नंबर 191/192 जिसका मफहूम है “उनसे लड़ो जहां भी उनसे तुम्हारा मुकाबला हो और उन्हें निकालो जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला इसलिए कि क़त्ल हालांकि बुरा है मगर फितना इससे भी अधिक बुरा है। फिर अगर वह बाज़ आ जाए तो तुम समझ लो कि जालिमों के सिवा किसी पर हाथ उठाना रवा नहीं” इस पर अपने नोट नंबर 202 में मौलाना मौदूदी साहब लिखते हैं “यहाँ फितने का शब्द इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है जिसमें अंग्रेजी का शब्द persecution ज़ुल्म के अर्थ में इस्तेमाल होता है। आयत नंबर 193 जिसका मफहूम है (तुम उनसे लड़ते रहो यहाँ तक कि फितना बाकी न रहे और दीन अल्लाह के लिए हो जाए फिर अगर वह बाज़ आ जाएं तो तुम समझ लो कि जालिमों के सिवा किसी पर दस्त दराज़ी रवा नहीं) इस पर अपने नोट नंबर 204 और 205 में मौलाना मौदूदी साहब लिखते हैं “यहाँ फितना का शब्द उपर के अर्थ से ज़रा अलग अर्थ में इस्तेमाल हुआ है संदर्भ से साफ़ ज़ाहिर है कि इस स्थान पर ‘फितना’ से मुराद वह हालत है जिसमें दीन अल्लाह के बजाए किसी और के लिए हो, और लड़ाई का मकसद यह है कि फितना ख़त्म हो जाए और दीन केवल अल्लाह के लिए हो जाए। बाज़ आ जाने से मुराद है काफिरों का अपने कुफ्र व शिर्क से बाज़ आ जाना नहीं, बल्कि फितना से बाज़ आ जाना है। काफिर मुशरिक, दहरिये हर एक को इख्तियार है कि अपना जो अकीदा रखता है रखे और जिसकी चाहे इबादत करे या किसी की न करे। इस गुमराही से उसको निकालने के लिए हम उसे फहमाइश और नसीहत करेंगे मगर उससे लड़ेंगे नहीं। लेकिन उसे यह हक़ हरगिज़ नहीं है कि खुदा की ज़मीन पर ख्हुदा के कानून के बजाए अपने बातिल कवानीन जारी करे और खुदा के बन्दों को खुदा के गैर का बंदा बानाए। इस फितने के दूर करने के लिए मौके और इमकान के हिसाब से तबलीग और शमशीर दोनों से काम लिया जाएगा और मोमिन उस वक्त तक चैन से न बैठेगा जब तक कुफार अपने फितने से बाज़ न आजाएं।
मुफ़्ती शफीअ उस्मानी साहब अपनी तफसीर मआरिफुल कुरआन में उपर्युक्त आयतों के शब्द फितना के बारे में लिखते हैं, “यह बात अपनी जगह बिलकुल सहीह है कि किसी को क़त्ल करना सख्त बुरा काम है मगर कुफ्फार ए मक्का का अपने कुफ्र व शिर्क पर जमे रहना और मुसलमानों को हज और उमरा के इबादत को अदा करने से रोकना इससे ज़्यादा सख्त व शदीद है, इससे बचने के लिए उनको क़त्ल करने की इजाज़त देदी गई, आयत में शब्द फितना से कुफ्र व शिर्क और मुसलमानों को इबादत के अदा करने से रोकना ही मुराद है (जसास, कुर्तुबी आदि), अलबत्ता इस आयत के उमूम से जो यह समझा जा सकता था कि कुफ्फार जहां कहीं हों उनका क़त्ल करना जायज़ है इस उमूम की एक तख्सीस आयत के अगले जुमले में इस तरह कर दी गई वाला तक्तुलुहुम इंदल मस्जिदिल हराम हत्ता युकातिलुकुल फ़ीही अर्थात मस्जिदे हराम के आस पास जिस से मुराद पूरा हरम मक्का है उसमें तुम उन लोगों से उस वक्त तक किताल न करो जब तक वह खुद किताल की शुरुआत न करें। वह आगे लिखते हैं कि इस आयत से यह भी मालुम हुआ कि शुरूआती जिहाद व किताल (offensive jihad) (अर्थात इकदामी जिहाद जिसमें मुसलमान कुफ्र व शिर्क को मिटाने और अल्लाह के दीन को ग़ालिब करने के लिए खुद पहल करें) की मनाही केवल मस्जिदे हराम के आस पास हरम ए मक्का का घेरा विशेष है दुसरे जगहों में रक्षात्मक जिहाद आवश्यक है इसी तरह शुरूआती जिहाद व किताल (offensive jihad) भी सहीह है।“
यहाँ यह बात दिमाग में रहनी चाहिए कि जिहाद में पहल की कुछ शर्तें हैं जिन्हें पूरा करना आवश्यक है। पहला यह कि इस्लामी हुकूमत जहां शरीअत पुरी तरह नाफ़िज़ है वह अपने इलाके के गैर मुस्लिमों और पड़ोस की गैर मुस्लिम सरकार को एक बार इस्लाम की दावत देगी, उनके इस्लाम न कुबूल करने पर जिज्या का मुतालबा करेगी और जिज्या से इनकार पर उनसे जिहाद करेगी।
अब ज़रा सुरह तौबा की इन आयतों पर भी एक निगाह डाल लेते हैं ख़ास तौर पर आयत नंबर-5 (मफहूम: फिर जब हुरमत के महीने गुज़र जाएं तो उस वक्त उन मुशरिकीन को जहां पाओ मारो ‘पकड़ो’ बांधो और घाट में बैठो जब तक कि वह ईमान न ले आएं) इसके बारे में सैयद हामिद मोहसिन का कहना है कि “यह आयत केवल उन लोगों के लिए है जो बार बार मुआहेदों की खिलाफवर्जी कर के मुसलमानों की सलामती खतरे में डाल देते थे न कि आम मुशरिकीन के लिए जो जंगी उसूलों का पास व लिहाज़ रखते थे।“
सऊदी अरब से बटने वाली तफसीरे कुरआन जिसका अनुवाद मशहूर अहले हदीस आलिमे दीन मौलाना मोहम्मद साहब जुनागढ़ी और ह्वाशी मौलाना सलाहुद्दीन यूसुफ साहेबान के कलम से हैं इसमें सुरह बराअत की उन आयतों की तश्रीक इस तरह बयान हुई है। “यह एलाने बराअत (यानी तमाम पिछले मुआहेदे ख़त्म कर के चार महीने की मुद्दत मुशरिकीन को देकर फिर उन्हें इस्लाम कुबूल न करने की सूरत में क़त्ल करने की इजाज़त) उन मुशरिकीन के लिए था जिनसे गैर मुवक्कत से अहद की पासदारी का एहतिमाम नहीं था। उन सब को चार महीने मक्का में रहने की इजाज़त दे दी गई। जहां तक उन कबीलों का सवाल है जिन्होंने पुरी इमानदारी से मुआहेदों और जंगी उसूलों का एहतेराम किया था उनके साथ मुआहेदे की बची हुई मुद्दत (शायद 9 महीने) का लिहाज़ रखने का हुक्म मुसलमानों को दिया गया लेकिन उनकी मुद्दत खत्म हो जाने के बाद वह भी इस एलान बराअत के मुखातिब करार पाए जैसा कि आयत नंबर 4 जिसका मफहूम है “बजुज़ उन मुशरिकीन के जिनसे तुम्हारा मुआहेदा हो चूका है और उन्होंने तुम्हें ज़रा भी नुक्सान नहीं पहुंचाया न किसी की तुम्हारे खिलाफ मदद की है तो तुम उनके मुआहेदे की मुद्दत उनके साथ पुरी करो “ साफ़ ज़ाहिर करती है कि उनकी खत्म होने के बाद उनके सामने भी तीन सूरतें बचेंगी, या तो इस्लाम कुबूल करें या जज़ीरा ए अरब से बाहर निकल जाएं या मौत का सामना करने के लिए तैयार हो जाएं।
इस पुरी बहस से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि जम्हूर उलमा का इस बात पर हमेशा इत्तेफाक रहा है कि इस्लाम का मकसद रुए ज़मीन से कुफ्र व शिर्क और इसके बातिल निज़ाम व कवानीन को खत्म कर के अल्लाह की शरीअत को लागू करना है। अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और उनके सहाबा ने इसका अमली नमूना पेश कर दिया। यही इस्लाम का असली नजरिया है। अब यह बात मौलाना मौदूदी साहब के कौल के मुताबिक़ दुनिया को पसंद हो या न हो (बहवाला इल्हाद फिल इस्लाम) ज़ाहिर सी बात है कि अहले ईमान के लिए इसे बिना चूं व चरा कुबूल करना इस्लाम की बुनियादी शर्त है और अकीदतमंदों को इसमें कोई नाइंसाफी भी नज़र नहीं आएगी, लेकिन ज़रा सोच कर बताइये कि आज के दौर में किसी टीवी बहस में जहां बहस अकीदे की बुनियाद पर नहीं बल्कि अकली बुनियादों पर होती है क्या हम इस मौकफ़ का बचाव कर सकेंगे। शायद मज़हब और अकीदे की आज़ादी के मौजूदा तसव्वुर की रौशनी में गैर अकीदत मंदों और अकली सोच रखने वालों को इस मौकफ़ पर राज़ी करना बहुत मुश्किल होगा।
इसलिए मोहसिन साहब की यह तश्वीश बिलकुल जायज़ है कि इन व्याख्या से इस्लाम की शबीह खराब हो रही है और इंटरनेट पर इस विषय पर हज़ारों बहसें चल रही हैं, जिसमें इस्लाम का बचाव करने वाले और विरोधी दोनों अपनी अपनी बात साबित करने की अनथक कोशिश कर रहे हैं। इस्लाम का बचाव करने वालों में कुछ वह है जो इन आयतों की माज़रत ख्वाहाना व्याख्या और कभी कभी कुरआनी अलफ़ाज़ जैसे कुफ्र आदि के मुत्तफक अलैह अनुवादों को बिलकुल नए अर्थ पहना कर इस अंदाज़ में पेश कर रहे हैं जिससे वह इस्लाम को आज के मेयार के मुताबिक़ मज़हब और अकीदे की आज़ादी का अलमबरदार साबित कर सकें, कुछ दुसरे लोग हैं जैसे आइएसआइएस, बोकोहराम, अल शबाब आदि जो अपने नज़दीक इकदामी जिहाद की उपर्युक्त शर्तों को पूरा करते हुए और अपने उलमा की सरपरस्ती में अपने इस्लामी इलाकों में इस्लाम के गलबे के लिए अपनी और दूसरों की जान जोखिम में डाल रहे हैं। कुछ उलमा ने इस कशमकश के माहौल में जम्हूर के मोकफ से अलग एक मोकफ इख्तियार किया है; जिसे कि भारत में मौलाना वहीदुद्दीन खान साहब, पाकिस्तान में डॉक्टर जावेद अहमद गामदी साहब और सऊदी अरब के जैय्यद आलिम डॉक्टर सलमान बिन फहद बिन अब्दुल्लाह अल ओदा आदि ने यह मौकफ़ इख्तियार किया है कि इकदामी जिहाद केवल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सहाबा के दौर के साथ विशेष था जिसमें इस्लाम की सरबुलंदी के लिए तबलीग के साथ तलवार भी इस्तेमाल करने की इजाज़त थी लेकिन अब मुस्लिम उम्मत के कंधों पर यह जिम्मेदारी नहीं है इसके ज़िम्मे केवल रक्षात्मक जिहाद, दावत और तबलीग है।
Abdul Rahman Hamza is a
Delhi-based writer. With his expertise in Arabic language and literature, he
has spent decades studying the Holy Quran. He contributed this article to New
Age Islam.
English Article:
Offensive Jihad Requires A Clear And Unambiguous
Stand by the Ulema: Why have so many reputed Islamic Scholars supported it?
Urdu
Article: Ulema should take a clear stand on offensive Jihad اقدامی جہادپرواضح موقف اختیار
کرنے کی ضرورت
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