ए रहमान, न्यु एज इस्लाम
09 अप्रैल, 2017
तीन तलाक और दो अन्य शरई मसाइल पर कानूनी और संवैधानिक युद्ध ने भी तीसरा स्थान ग्रहण कर लिया है। इस त्रिकोण के तीन कोण हैं। सुप्रीम कोर्ट के ज़रिये स्वयं (suo motu) दर्ज किये गये जनहित की अर्ज़ दास्त सशीर्षक ''मुस्लिम महिलाएं बराबरी की तलाश में बनाम जमीअत उलेमा-ए-हिंद और अन्य ''जिसके साथ सायरा बानो और अन्य कई महिलाओं तथा भारतीय मुस्लिम महला आंदोलन की याचिकाएं शामिल हैं पहला पक्ष, यूनियन ऑफ इंडिया यानी केंद्र सरकार दूसरा पक्ष, जमीअत उलेमा-ए-हिंद और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ज्वाइंट रूप में तीसरा पक्ष की स्थिति में हैं। यह त्रिपक्षीय विवाद इसलिए हो गया है कि चर्चा के अंतर्गत मुद्दों पर केंद्र सरकार और इस्लामी संगठनों के स्टैंड न केवल विभिन्न बल्कि प्रतिस्पर्धात्मक हैं। इस संबंध में जो आम धारणा अधिकांश इस्लामी संगठनों और उलेमा ने विज्ञापित किया है,वह यह है कि वास्तव में पूरा मामला वर्तमान सरकार की एक गहरी और संगठित साजिश है, जिसके तहत भारतीय मुसलमानों के पारिवारिक इस्लामी महिलाएं जिन्हें संविधान की गारंटी और सुरक्षा प्राप्त है उनकी रद्दीकरण के इरादे से उनमें हस्तक्षेप की जा रही है। साथ ही यह साजिश अंत में यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने और उसके कार्यान्वयन पर समाप्त होगी।
यह धारणा वास्तविकता पर आधारित हो सकती है। लेकिन इस्लामी शरीअत से संबंधित चर्चाएँ,वार्ता और संघर्ष मौजूदा नेहज तक कैसे पहुंचे इसकी पृष्ठभूमि पता किए बिना युद्ध पर कोई राय और रणनीति तय करना कठिन भी है और विसंगत भी। सरल शब्दों में बयान किया जाए तो प्रथम पक्ष ने गुहार लगाई है कि भारत में मुस्लिम महिलाओं के साथ लिंग आधारित जो भेदभाव रखा जाता है जिसमें मुस्लिम पुरुषों को प्राप्त खुद मुखताराना और एकतरफा तरीके से तलाक (तलाक,तलाक,तलाक) देने का अधिकार भी शामिल है (विशेष रूप से) संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून की नजर में बराबर सुरक्षा का अधिकार)का इंकार करता है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन और कुछ अन्य संगठनों का यह भी कहना है कि भारत में प्रचलित इस्लाम के पारिवारिक नियम जो फिकह पर आधारित हैं वह दकियानूसी और पुराना है,इसलिए इसमें समकालीन आवश्यकताओं के अनुसार संशोधन किया जाना चाहिए। इस बिंदु पर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने राय देते हुए कहा 'हमारा सिद्धांत है कि मुस्लिम महिलाओं के साथ किए जा रहे भेदभाव वाले व्यवहार को अदालत के पिछले फैसलों के प्रकाश में चर्चा में लाया जाना चाहिए।"इस टिप्पणी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने अन्य पार्टियों सहित अटॉर्नी जनरल और नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी आदि को नोटिस जारी करके जवाब देने का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जो जवाबी हलफनामे और 30मार्च तय तिथि पर लिखित अनुरोध और तर्क अदालत में दाखिल किए गए उनका विश्लेषण करने से पहले आवश्यक है कि भारतीय महिला आंदोलन के स्टैंड और दावे पर नज़र डाली जाए,जो दरअसल सुप्रीम कोर्ट की जनहित वाली याचिका का उत्तेजक माना जाना चाहिए। (याद रहे कि चर्चा के तहत समस्याओं में निकाह हलाला और तक्सीरे अज़वाज (एक से अधिक पत्नी का होना) शामिल हैं हालांकि कानूनी लड़ाई और मीडिया में चर्चा जिस जोर शोर से तीन तलाक पर है इतना जोर शेष दो मुद्दों पर नहीं दिया जा रहा है और इसके कारण काफी दिलचस्प हैं, लेकिन वह चर्चा बाद में होगी। इस समय इतना कह देना पर्याप्त है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उन दो समस्याओं यानी हलाला और एक से अधिक पत्नियाँ रखनें पर बड़े अस्पष्ट और असंगत उत्तर दिए हैं।) भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का दावा है कि वह मुस्लिम महिलाओं का एक लोकतांत्रिक संगठन है जो मुस्लिम महिलाओं के 'कुरआनी अधिकार'को प्राप्त करनें की लड़ाई लड़ रही हैं। यानी कुरआन ने मुस्लिम महिलाओं को जो अधिकार दिए हैं उनका कानूनी कार्यान्वयन इस संगठन का मुख्य उद्देश्य समझा जाना चाहिए।
प्रथम दृष्टया में यह बात बहुत तार्किक और स्वीकार्य महसूस होती है क्योंकि उन्होंने अपने दावे का आधार कुरआन और कुरआनी आदेश को बनाया है। लेकिन इसमें कमियां यह हैं कि उन्होंने कुछ पश्चिमी विद्वानों की तर्ज पर कुरआन को एक कानूनी ज़ाबता या किसी विधायी के माध्यम से बनाया गया कानून समझ लिया है। कुरआन खुद कानून नहीं,बल्कि नियमों का स्रोत यानी (Source)है जिसकी व्याख्या और तफसीर के बाद नियम निकाले गए हैं। इस संगठन यानी भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने दो शोध सर्वेक्षण कराए जिनकी रिपोर्ट यूं तो परस्पर असंगत हैं लेकिन उन पर सरकार ने आँख बंद करके विश्वास कर लिया और मीडिया ने इतना बवाल मचाया कि बात यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की मांग तक पहुँच गई । पहले सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया कि भारतीय मुस्लिम महिलाओं की 88प्रतिशत तलाकें एक तरफा और सलासह (तलाक, तलाक, तलाक) पाई गईं, जबकि दूसरे सर्वेक्षण में यह अनुपात केवल 59 प्रतिशत बताया गया। पहले सर्वेक्षण में 117 मामलों का अध्ययन किया गया था हालांकि विवरण केवल 88 मामलों की दी गईं और वह भी केवल एक राज्य से। दूसरे सर्वेक्षण में चार हजार सात सौ दस मुस्लिम महिलाओं की समीक्षा और साक्षात्कार लेकर परिणाम प्रकाशित किए गए और बाद में यही परिणाम केंद्र सरकार के जवाबी हलफनामे में शामिल किए गए। जाहिर है कि इस तरह के परिणाम कानूनी और संवैधानिक मामलों के निपटारे के लिए ...खासकर जब प्राथमिक स्रोत कुरआन को समझा जाए ... अपर्याप्त हैं और भरोसे के लायक नहीं हैं।
दूसरा बिंदु जिस पर भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का दावा निराधार है कई ऐसे अधिकार की मांग है जिनका कुरआन में उल्लेख ही नहीं। उदाहरण के रूप में बेटियों के पक्ष में उपहार और वसीयत के वजूब (फरज़ियत)ताकि उन्हें विरासत में बराबर का अधिकार मिल सके। इसके अलावा तीन तलाक के मामले में भी आंदोलन का दावा इसी बुनियादी गलती पर आधारित है जो सायरा बानो की याचिका में किया गया है। दोनों मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा (शमीम आरा बनाम स्टेट ऑफ यूपी) एक बैठक में दी गई तीन तलाकों को महज एक तलाक माना गया है,इसके बावजूद तीन तलाक को असंवैधानिक करार देने की मांग की गई है। लेकिन दूसरी ओर जवाबी हलफनामा दाखिल करने वाली संस्थाओं यानी जमीअत और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका विरोध करते हुए इससे भी गंभीर गलती की है जिसका ज़िक्र आगे आएगा। महिला आंदोलन ने बड़े जोर-शोर से एक से अधिक पत्नी रखने पर रोक लगाने की वकालत की है और इस पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगाए जाने की मांग किया है। लेकिन किसी भी चीज पर कानूनी प्रतिबंध लगाने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं है। कोई अदालत किसी नए 'अपराध' का निर्माण नहीं कर सकती। यह विशेषाधिकार केवल संसद को है। सायरा बानो हालांकि बहुलवादी पत्नियों से प्रभावित नहीं है,लेकिन इस याचिका में भी बहुलवादी पत्नियों के अवरोध की मांग पहले ही पैरा में मौजूद है।
इस पूरे मनाकशे के कानूनी और संवैधानिक पहलुओं से नज़र हटा कर अगर एक व्यापक संदर्भ में फरियादों और अर्ज़दाशतों के पंक्तियों के बीच पढ़ा जाए तो वर्तमान काल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जारी सवाल (या आरोप) सामने आता है कि इस्लाम ने औरत को माध्यमिक दर्जा दिया है मुस्लिम महिला के अधिकार मुस्लिम मर्द के अधिकार के बराबर नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जिस लैंगिक भेद भाव की बात की है इसकी पृष्ठभूमि में यही सवाल मौजूद है। सभी फुकहा और उलेमा ए दीन की तरफ से दावा किया जा रहा है कि इस्लाम ने औरत को ज़िल्लत की ज़िन्दगी से निकाला और उसे वह अधिकार और सामाजिक दर्जा दिया जो किसी धर्म या समाज ने नहीं दिया। इसलिए इस प्रश्न या आरोप के जवाब में केवल यह साबित करना पर्याप्त था कि कुरआनी आदेश के आलोक में मर्द और औरत खुदा की दृष्टि में बराबर हैसियत रखते हैं और सामजिक मामलों में लैंगिक भेदभाव की अनुमति कुरआन में नहीं दी गई है। कुरआन की तफसीर और व्याख्या में आलिमाना दृष्टिकोण के मतभेद के आधार पर कुछ मामले ऐसे हो सकते हैं जिनकी वजह से अन्याय की संभावना हो सकती है या है,तो ऐसे मामलों को इज्माअ के माध्यम से एतेदाल के सुनहरे नियम के प्रकाश में समाधान करके भविष्य के विवादों का निराकरण किया जा सकता है।
लेकिन हुआ वही जो अब तक होता आया है। यानी मुस्लिम संगठनों ने संघर्ष और हट धरमी की विधि अपनाते हुए फिक्हे हनफ़िया के प्रकाश में हकमी तौर पर जवाब दिए जिनका संवैधानिक विश्लेषण होना इसलिए भी आवश्यक है कि मालिकी, शाफई और हम्बली मस्लकों तथा शिया के धार्मिक मान्यताओं को न कहीं गणना में लिया गया न उनके संबंध में कुछ स्पष्ट किया गया। इसकी एक मिसाल तो यह जवाब है (जो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा दोनों द्वारा दिया गया है) कि तीन तलाक कुरआन से साबित है। इसका सीधा अर्थ यह निकलता है (और इस बिंदु पर इमाम अहमद बुखारी लेखक से सहमत हैं)कि जो लोग ऐसी तलाक के लिए राजी नहीं वह नऊज़ोबिल्लाह कुरआन का इनकार करनें वाले हैं। जवाबी हलफनामों के बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पक्षों ने अपने तर्क और गुज़ारशात लिखित रूप में अदालत में दाखिल कर दिए हैं इस आधार पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के हलफनामे का अधिक विश्लेषण अनावश्यक हो जाता है,क्योंकि अभी लिखित गुज़ारशात को ही सही और खात दस्तावेज़ माना जाएगा। यह ध्यान में रहे कि लिखित गुज़ारशात की हिदायत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया था कि अदालत तीन तलाक, निकाह और तक्सीरे अज़वाज के केवल 'कानूनी' पहलुवों पर विचार करेगी और तलाक अदालतों के देखरेख में हों इस समस्या से बचेगी क्योंकि वह मामला कानून बनाने के अन्दर आता है। (जारी)
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