ए. फ़ैज़ुर्रहमान
13 जून, 2012
(अंग्रेज़ी से तर्जुमा- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)
लड़कियों के लिए शादी की उम्र को 18 साल करने पर मुस्लिम पर्सनल ला क़ुरान के मुताबिक़ होगा
"मोहम्मडन ला" की बुनियाद पर 15 साल की उम्र में शादी करने के एक मुस्लिम लड़की के हक़ पर हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला बहुत से लोगों को हैरान कर सकता है। लेकिन इसमें जजों की ग़लती निकालना ग़ैर मुंसिफ़ाना अमल होगा। अपने इस फ़ैसले पर पहुंचने के लिए वो मौजूदा क़वानीन से बालातर नहीं जा सकते थे, जो नाफ़िज़ क़ानून डीज़ोल्युशन आफ़ मुस्लिम मैरिज ऐक्ट, 1939 (डी.एम.एम.ए) की दफ़ा 2 (VII) पर मब्नी है। ये कहता है कि एक मुस्लिम लड़की की शादी मंसूख़ मानी जाएगी, जब इसके वालिद या दीगर वली ने इसकी शादी 15 साल की उम्र से पहले करा दी हो और 18 साल की उम्र हासिल करने से पहले ही तलाक़ हो गया हो, बशर्ते कि शादी कामिल ना हुई हो।"
दूसरे अल्फ़ाज़ में, ये फ़र्सूदा क़ानून फ़र्ज़ करता है कि 15 साल की उम्र तक पहुंचने पर मुस्लिम लड़कियां क़ानूनी तौर पर बाख़बर हो जाती हैं और अपने तौर पर शादी करने के काबिल हो जाती हैं। और इस तरह के नाक़ाबिले हिमायत मफ़रूज़ा को जायज़ ठहराने के लिए इस्लाम का नाम लिया जाता है और जिस तरह से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने मज़कूरा बाला फ़ैसले का ख़ैर मक़दम किया है, उससे इसको समझा जा सकता है। यहां तक कि दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले को तक़वियत देने के लिए इन फ़ैसलों का हवाला दिया जो मोहम्मडन ला और तैय्यब जी के मुस्लिम ला के मुल्ला उसूल पर इन्हेसार करते हैं। ये हमारे सामने बुनियादी सवाल पैदा करता है: क्या इस्लाम बच्चों की शादी की इजाज़त देता है?
फुक़हा के ज़रिए हवाला के तौर पर पेश की गई रवायात
ये अच्छी तरह मालूम है कि जहां तक इसके क़ानूनी हैसियत का ताल्लुक़ है तो इस्लाम में शादी दो अफ़राद के दरमियान तहरीरी मुआहेदा है और इसके लिए दोनों को बालिग़ होना चाहिए जो इस तरह के मुआहेदों की ज़िम्मेदारियों और पेचीदगियों को समझते हों। ये हुक्म जो बच्चों की शादी के तसव्वुर की बुनियाद पर चोट करती है उसे क़ुरान की आयत 4: 6 से हिमायत हासिल है और जो शादी की उम्र (बलग़ुन्निकाह) और ज़हनी पुख़्तगी की उम्र (रशद) को बराबर बताती है, ये एक मरहला है जो सने बलोग़त के बाद आता है। इसके बावजूद फुक़हा के ज़रिए बच्चों की शादी को जायज़ ठहराने के लिए रवायात का हवाला पेश किया जाता है, और वो ऐसे इशारे देती हैं जैसे नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने उनकी इजाज़त दी हो, जिसके बारे में क़ुरान ने वाज़ेह तौर पर हौसला अफ़्ज़ाई नहीं की है। मिसाल के तौर पर, सुन्नी क़ानून, किसी भी कुरानी या पैग़ंबर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की बताई बुनियाद के बगै़र वालिद को नाबालिग़ बच्चों के बेहतरीन मफ़ाद में उनके वली होने का हक़ देता है।
असल में डी.एम.एम.ए क़ानून की दफ़ा 2(VII) ख़ुद एक क़दीमी, फ़िरक़ावाराना क़ानून पर मब्नी लगता है, जो कहता है कि किसी नाबालिग़ की जानिब से वालिद और दादा के अलावा किसी और वली की तरफ़ से किया गया शादी के मुआहेदा को, नाबालिग़ बच्चा ख़ुद सने बलोग़त को हासिल करने के बाद मंसूख़ कर सकता है। ये नज़रिया, जिसका ज़िक्र दिल्ली हाईकोर्ट के हुक्म में भी मिल जाता है, उसे ख़ियार अलबलोग़ या बलोग़त के अख़्तियार के तौर पर जाना जाता है। ये अबु दाऊद के मजमूआ हदीस में एक रिपोर्ट पर मब्नी है, जिसमें बताया गया है कि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने एक नाबालिग़ लड़की को शादी को मंसूख़ करने का अख़्तियार दिया जब उसने आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को बताया कि उसके वालिद ने उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसकी शादी कर दी थी। लेकिन इस हदीस को पढ़ने से पता चलता है कि जिस लड़की का ज़िक्र है वो नाबालिग़ नहीं थी और इसकी वज़ाहत के लिए जो लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है वो बिकरन है जिसका मतलब नौजवान, कुंवारी से है। इसके अलावा, रिपोर्ट में बलोग़त का कोई ज़िक्र नहीं है और इसलिए नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम तलाक़ के हक़ को इस्तेमाल करने के लिए उसे तब तक इंतेज़ार करने का मश्विरा नहीं दे सकते थे, जब तक कि वो सने बलोग़त को ना पहुंच जाय।
यहां तक कि अगर ये क़यास कर लिया गया कि बिकरन से मुराद नाबालिग़ से है, अबु दाऊद हदीस के अलफ़ाज़ वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर करते हैं कि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने लड़की से ये जान कर कि निकाह में उसकी रजामंदी नहीं ली गई थी, इस पर फ़ौरी तौर पर शादी को फ़स्ख़ कर देते। सही बुख़ारी में इसी तरह की एक रिवायत का ज़िक्र है जब नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने ख़ंसा बिंत ख़ीज़ाम की शादी को फ़स्ख़ कर दिया था, जब उसने आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से शिकायत की कि उसके वालिद ने ऐसी शादी के लिए उसे मजबूर किया जो उसकी पसंद की नहीं थी। इन रिपोर्ट से सिर्फ ये नतीजा निकाला जा सकता है कि इस्लाम में बच्चों की शादी या जबरन शादी का कोई क़ानूनी जवाज़ नहीं है। इस नतीजे को एक और हदीस की हिमायत हासिल है, जो सही बुख़ारी और सही मुस्लिम दोनों में पाई जाती है, जिसमें नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने कहा है कि, "एक ए्यम (बेवा या मुतल्लक़ा) की शादी तब तक नहीं होगी जब तक कि वो उसकी इजाज़त ना दे और ना ही एक बिक्र (कुंवारी) की शादी हो जब तक कि उसकी रजामंदी ना ली जाय। इसलिए ख़ियार अलबलोग़ का तसव्वुर क़ानून में बुरा है, क्योंकि ये एक ग़लत बुनियाद पर मब्नी है।
इस्लाम में बच्चे की शादी का भी जवाज़ हदीस की बुनियाद पर दिया जाता है जो दावे करती है कि, नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने हज़रत आईशा रज़ियल्लाहू अन्हा से उस वक़्त शादी की जब वो सिर्फ़ छः साल की थीं और शादी को कामिल तब किया जब वो नौ साल की थीं। इस रिपोर्ट की सदाक़त कई वजूहात से मशकूक है। सबसे पहले, नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम जिस्मानी और ज़हनी तौर पर नादान बच्ची से शादी के लिए क़ुराने पाक के ख़िलाफ़ नहीं जा सकते थे। दूसरे, हज़रत आईशा रज़ियल्लाहू अन्हा की उम्र का हिसाब उनकी बहन हज़रत आस्मा रज़ियल्लाहू अन्हा की उम्र से आसानी से लगाया जा सकता है जो हज़रत आईशा रज़ियल्लाहू अन्हा से 10 साल बड़ी थीं। मजमूआ हदीस मिश्कात के मुसन्निफ़ ने रावियों की उनकी सवानेह उमरी (अस्मा उर्रिजाल) में लिखते हैं कि हज़रत आस्मा रज़ियल्लाहू अन्हा 100 साल की उम्र में हिज्री साल 73 में अपने बेटे अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की शहादत के 10 या 12 दिन के बाद इंतेक़ाल कीं थीं। ये आम तौर पर लोगों को मालूम है कि इस्लामी कैलेंडर हिजरत के साल या नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के मक्का से मदीना हिजरत से शुरू होता है।
हज़रत आस्मा रज़ियल्लाहू अन्हा के 100 साल में वफ़ात से 73 निकालने पर आप की उम्र निकल आती है और हम आसानी से इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि हिजरत के वक़्त आपकी उम्र 27 साल थी। इस तरह उस वक़्त हज़रत आईशा की उम्र 17 साल थी। नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के तमाम सवानेह निगार इस बात से इत्तिफ़ाक़ करते हैं कि आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने हज़रत आईशा के साथ निकाह को 2 हिज्री में कामिल किया और इस तरह कहा जा सकता है कि वो उस वक़्त उन की उम्र 19 बरस की थीं ना कि 9 साल की।
मज़कूरा बाला हदीस के सबूत से पता चलता है बच्चों की शादियों को नाजायज़ और मुस्लिम लड़कियों की शादी की उम्र को 18 करने की मज़बूत बुनियादें मौजूद हैं, और इस तरह मुस्लिम पर्सनल ला क़ुराने पाक और नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की तालिमात के मुताबिक़ होगा। और ये दाएं बाज़ू की जमातों को बार बार मुतनाज़े अदालत के फ़ैसलों का इस्तेमाल कर मुसलमानों को यूनिफार्म सिविल कोड की धमकी देने से भी रोकेगा।
ए. फ़ैज़ुर्रहमान, इस्लामिक फ़ोरम फ़ार दी प्रमोशन आफ़ माडेरेट थाट के जनरल सेक्रेटरी हैं।
सोर्सः http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/article3520569.ec
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