राजदीप सरदेसाई
24 फरवरी, 2012
क्या गुजरात वाकई वर्ष 2002 में हुई नृशंस हिंसा से आगे बढ़ चुका है? इसका जवाब इस पर निर्भर करेगा कि सवाल किससे पूछा गया है। उदाहरण के तौर पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि गुजरात इतना आगे बढ़ चुका है कि अब अतीत के सवालों का सामना करने की भी जरूरत नहीं। फरवरी 2002 तक नरेंद्र मोदी एक लो-प्रोफाइल संघ प्रचारक से मुख्यमंत्री बने ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें इससे पहले किसी तरह का कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं था।
दंगों ने उनकी छवि बदल दी। उन्हें हिंदुत्व के संरक्षक के रूप में देखा जाने लगा। उन्होंने एक ‘गुजरात गौरव यात्रा’ भी निकाली, हालांकि यह समझ पाना कठिन था कि दंगों में मारे गए एक हजार लोगों की रक्षा न कर पाने में कौन-सा गौरव था। आज एक दशक बाद मोदी ‘सद्भावना’ यात्रा का आयोजन कर रहे हैं, उन्हें अगले आम चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया जा रहा है और उन्होंने सुप्रशासन से एक मुख्यमंत्री के रूप में अपनी एक ठोस छवि बनाई है।
आज अगर गुजरात के उन इलाकों से गुजरें, जो 2002 में दंगाग्रस्त थे, तो फौरी तौर पर तो यही लगता है कि वह साल अब एक दूरस्थ स्मृति बन चुका है। पंचमहल जिले के हालोल में जहां दर्जनों मकान जला दिए गए थे और नरसंहार हुआ था, वहां आज जनरल मोटर्स का कारखाना खड़ा है, जो कि स्पेशल इकोनॉमिक जोन का एक हिस्सा है और साथ ही मोदी के ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का एक समर्थ प्रतीक भी। गोधरा, जहां एस-6 कंपार्टमेंट को फूंक दिया गया था, में आज हिंदू और मुस्लिम व्यापारी मिल-जुलकर काम कर रहे हैं और गुजरात की उद्यमशीलता की संस्कृति को प्रदर्शित कर रहे हैं। वडोदरा में एक क्रिकेट कैम्प चल रहा है। यह जगह बेस्ट बेकरी से ज्यादा दूर नहीं है, जहां कुख्यात हत्याकांड हुआ था। लेकिन यहां के युवा मुस्लिम आज अगला इरफान पठान बनने का सपना देखते हैं।
अहमदाबाद की हवाओं में आशावाद की निश्चित गंध है। हाल ही में हुए सर्वेक्षणों में अहमदाबाद को भारत की सर्वाधिक ‘लिवेबल सिटी’ बताया गया है। अहमदाबाद बस रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम शहरी परिवहन के लिए एक अनुकरणीय मानक स्थापित करता है, जबकि शहर का हवाई अड्डा नई सज्जा से दमक रहा है।
यह शहर इससे पहले कभी इतना साफ-सुथरा नजर नहीं आता था। साबरमती नदी के किनारे बसी झुग्गी-झोपड़ियों को इतनी सफाई से हटा दिया गया है, जैसा केवल चीन में ही संभव हो पाता। शॉपिंग मॉल्स लोगों से पटे पड़े हैं और होटलें खचाखच भरी हैं।
अमिताभ बच्चन के हाई प्रोफाइल गुजरात टूरिज्म प्रमोशन के कारण पर्यटन उद्योग में 40 फीसदी का बूम आया है और कॉपरेरेट घराने गुजरात के विकास रथ की सवारी करने को लालायित हैं। एक बिजनेस आउटसोर्सिग सेंटर पर युवा पेशेवर जोर देकर कहते हैं कि गुजरात में अब कभी 2002 जैसी घटना नहीं होगी। उनसे पूछो कि उनका रोल मॉडल कौन है और आपको पता चल जाएगा कि क्यों नरेंद्र मोदी को इसी साल होने वाले विधानसभा चुनावों में एक बार फिर स्पष्ट विजेता के रूप में देखा जा रहा है।
लेकिन इसके बावजूद, यदि चमक-दमक से जरा हटकर सोचें तो हम पाएंगे कि ‘क्या गुजरात वाकई आगे बढ़ा है?’ जैसे सवाल को एक नया आयाम मिल गया है। गोधरा की सिगनल फालिया बस्ती, जहां ट्रेन जलाए जाने की घटना के अधिकांश आरोपी रहते थे, के नौजवान मुझे बताते हैं कि वे बेरोजगार हैं, क्योंकि कोई भी सिगनल फालिया में रहने वाले मुस्लिम युवकों को नौकरी नहीं देना चाहता। अहमदाबाद के शाहपुर की भीड़भरी गलियों, जहां पिछले एक दशक से हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई की तरह रह रहे हैं, में इस भाईचारे के पीछे छिपे जेहनी भय को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आज भी यहां एक मामूली-सी वारदात के बाद छोटे-मोटे दंगे की स्थिति निर्मित हो सकती है। जो लोग सक्षम थे, वे यहां से पलायन कर गए। अहमदाबाद भीमकाय महानगर है, लेकिन इसके बावजूद यहां मिली-जुली बस्तियां कम ही हैं। मुस्लिमों का हिंदुओं और हिंदुओं का मुस्लिमों की बस्तियों में स्वागत नहीं किया जाता और इन दोनों समुदायों के बीच वैवाहिक संबंधों के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता।
अहमदाबाद के उपनगर नरोदा पटिया, जहां दंगों में 95 लोग मारे गए थे, में दंगा पीड़ित परिवार आज भी न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अभी तक हत्याओं के लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है और दंगों के कथित जिम्मेदार आज भी क्षेत्र में खुलेआम घूमते हैं। पक्षपात और पूर्वग्रहों के अंदेशे में न्याय की अवधारणा भ्रामक लगने लगती है।
‘फिर भी हम संघर्ष करेंगे’ बित्ते भर की एक महिला मुझसे कहती है। दंगों में इस महिला के परिवार के आठ सदस्य मारे गए थे और अब वह नरोदा केस की मुख्य गवाह है। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि संकट की घड़ी में किस तरह साधारण लोगों में असाधारण साहस आ जाता है।
सिटीजन नगर के रहवासी शहर के सबसे बड़े कूड़ेगाह के करीब बसे हैं। दंगापीड़ितों के पुनर्वास के लिए अहमदाबाद के सरहदी इलाकों में यह बस्ती बसाई गई थी। यहां गुजरात ‘वाइब्रेंट’ नहीं है। यहां की धूल-गंदगी की तुलना में मुंबई की झुग्गियां भी आलीशान मालूम होती हैं। लगता है जैसे इस इलाके की गुजरात के नक्शे पर कोई जगह नहीं। यहां कोई स्कूल नहीं हैं, अस्पताल नहीं हैं, साफ-सफाई नहीं है। एक महिला कहती है: ‘हम सिटीजन नगर में भले रह रहे हों, लेकिन हम सेकंड क्लास सिटीजन हैं।’
इन मायनों में समृद्ध गुजरात और वंचित गुजरात के बीच बढ़ती खाई वास्तव में चिंताजनक है। इस खाई को पाटने के लिए मोदी ने विकास मंत्र पर ध्यान केंद्रित किया है। दहाई के अंक वाली विकास दर को बीते वक्त के जख्मों का एकमात्र मरहम माना जा रहा है, लेकिन मानवीय दृष्टिकोण के बिना महज उच्च विकास दर से सामुदायिक सौहार्द नहीं अर्जित किया जा सकता। गुजरात के महानतम व्यक्ति महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में मेरी भेंट दारा और रूपा मोदी से हुई।
इस पारसी दंपती का बेटा गुलबर्ग सोसायटी नरसंहार में मारा गया था। उनके बेटे का शव कभी नहीं मिला। लेकिन पिछले एक दशक में कोई भी आला ओहदेदार इस दंपती के आंसू पोंछने नहीं पहुंचा। लगभग हर दंगा पीड़ित की यही कहानी है।
गांधीजी कहते थे सद्भावना का अर्थ है मजहबी दायरों से ऊपर उठते हुए मनुष्य के प्रति उदारता-करुणा की भावना। 2002 की नृशंसताओं को वास्तव में पीछे छोड़ देने के लिए गुजरात को इसी भावना की जरूरत है।
लेखक आईबीएन 18 नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ हैं।
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