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Hindi Section ( 30 March 2012, NewAgeIslam.Com)

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Don’t Drag Islam into Every Debate Concerning Women औरतों के बारे में हर एक बहस में इस्लाम को न घसीटें


फराह नाज़ ज़ाहिदी मोअज़्ज़म

(अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

25 जनवरी, 2012

ऐसा क्यों है कि लगभग हर लेख, ब्लॉग, डाक्युमेंट्री (वृत्तचित्र), किताब या सूचना के किसी भी टुकड़े में जो एक औरत की बात करता है, जिस पर ज़ुल्म हुआ है,  इसमें इस्लाम को लाया जाता है लेकिन यह पूरी तरह बिना संदर्भ के हो तब भी?

एक पत्नी: न तो विरोधी,  न ही मातहत,  न तो आला, लेकिन साथी ज़रूर है- समान अधिकार रखती है, जिसका किरदार अलग हो सकता है, लेकिन वो बराबर है।

एक शादी: आपसी सम्मान,  साझेदारी,  प्रेम और खुशी पर आधारित एक ऐसा रिश्ता जिसकी इच्छा की जाती है।

इसे इस तरह होना चाहिए, इस्लाम इसे इस तरह तसव्वुर करता है। क्या वास्तव में अक्सर ऐसा होता है?

नहीं,  मामलों परेशान करने वाली संख्या के बावजूद, ऐसा नहीं है।

क्या इसके लिए इस्लाम या मिसाल के तौर पर किसी भी धर्म पर इल्ज़ाम लगाया जाना चाहिए?  नहीं। क्या पुरुष प्रधान सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ इसके लिए जिम्मेदार हैं?  जी हां,  अक्सर ऐसा होता है।

तो फिर ऐसा क्यों है कि लगभग हर लेख, ब्लॉग, डाक्युमेंट्री (वृत्तचित्र), किताब या सूचना के किसी भी टुकड़े में जो एक औरत की बात करता है, जिस पर ज़ुल्म हुआ है,  इसमें इस्लाम को लाया जाता है लेकिन यह पूरी तरह बिना संदर्भ के हो तब भी?

लेकिन ऐसा लगता है जैसे हम दकियानूसी वाले दौर में रह रहे हैं और जब मीडिया की बात आती है तो सावधान हो जाते हैं (किताबत, पत्रकारिता, संगीत या फिल्में बनाने)। हाल ही में फेसबुक पर एक बहुत ही उचित टिप्पणी में कहा गया:

"आजकल सूफी विचारधारा को समझने में कोई गलती नहीं कर सकता है।"

थोड़ा सा मुल्ला लोगों की आलोचना,  मानवाधिकार की पदावली,  विवादास्पद मुद्दों को कोठरी से बाहर लाएं और कामयाबी का नुस्खा तैय़्यार है।

मेरा एक पत्रकार और मानवाधिकार के सक्रिय कार्यकर्ता होने का मतलब ये नहीं है कि इसमें कुछ गलत है। लेकिन संदर्भ का होना आवश्यक है- किसी तरह का संबंध अवश्य होना चाहिए। मानवाधिकार के हर एक उल्लंघन में बिना किसी संबंध के धर्म को लाना काबिले बहस है। अगर ये संदर्भ के साथ है,  तो तमाम जराए के साथ आगे बढ़ना चाहिए और ऐसा करना चाहिए।

उदाहरण के लिए हाल ही में वैवाहिक बलात्कार पर लिखा एक दिलचस्प लेख। विषय उचित,  बहुत से लोगों के लिए उपयुक्त,  मानवाधिकार उल्लंघन और इस तरह इसे उठाया जाना चाहिए। लेकिन इस्लाम न तो इसकी हौसला अफज़ाई करता है और न ही इसे नज़रअंदाज़ करता है। लेखक से अधिक लेख पर आई टिप्पणियाँ परेशान करने वाली थीं। ऐसा लग रहा था जैसे लोग इस्लाम को नुक्सान पहुँचाने के लिए मौका तलाश रहे थे। जिन हदीसों का हवाला दिया गया वो बिना संदर्भ के थीं।

मेरा फैसला,  मैं लेखक के साथ सहमत हूँ कि वैवाहिक बलात्कार भी बलात्कार है। ये मानवाधिकार का उल्लंघन है जिसकी इस्लाम में इजाज़त नहीं है।

यहाँ मुझे एक कहानी बयान कर लेने दीजिए:

एक मुसलमान,  पाकिस्तानी,  पढ़ी लिखी औरत ने तथाकथित शिक्षित पति के साथ, उसने अपने तीसरे बच्चे को जन्म दिया। वो अपने बच्चे के साथ घर आती है। उसका अपीज़ीआटमी हुआ था। उसके टांके ठीक नहीं हुए थे। पहली रात उसके पति ने उसके साथ हम बिस्तरी की। उसे बहुत खून आया। वो रोई। वो उसे नहीं चाहती थी। उसी इसकी परवाह नहीं थी। लेकिन वह विरोध नहीं करती है। ये वैवाहिक बलात्कार का मामला है। इसमें कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है। इसके अलावा,  ये एक औरत के सम्मान के बुनियादी मानव अधिकार का उल्लंघन है। वो एक ही समय में घरेलू हिंसा, यातना और वैवाहिक बलात्कार का शिकार हुई है।

उपरोक्त कहानी में कई दकियानूसियत और कल्पनाएं हैं जो उसे तुरंत सफल बना सकती हैं और यदि एक फीचर या फिल्म के लिए एक बुनियादी कहानी के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाए तो इस कहानी में मानवाधिकार का चैंपियन बनने की क्षमता है। औरत,  मुसलमान,  वैवाहिक बलात्कार,  मानवाधिकार, शिकार,  घरेलू हिंसा,  उत्पीड़न: ये सभी शब्द इंटरनेट पर सर्च में और टैग के तौर पर इस्तेमान किये जाते हैं। इसमें कुछ हदीसों और क़ुरआन की आयतों के मिला दिया जाएं जो पुरुष प्रधान विचारों वाली हों और इस तरह कामयाबी का नुस्खा तैयार हो गया,  इस लेख पर कई टिप्पणियां आयेंगीं,  साथ ही उसकी तारीफ भी की जाएगी जिसके साहस और बहादुरी ने इसे सामने लाने की हिम्मत दिखाई।

मुझे यहाँ स्पष्ट कर लेने दीजिए कि ये सिर्फ इस्लाम के बारे में नहीं है,  बल्कि कोई भी धर्म या नैतिक नियम इसकी इजाज़त नहीं देगा कि मनुष्य पर अत्याचार किया जाए। इसलिए जहाँ इसकी कोई ज़रूरत नहीं है,  अनावश्यक रूप से धर्म को नहीं लाना चाहिए। जहां जरूरत हो उसे सामने लाया जाना जरूरी है। मौजूदा बहस और सम्मान के नाम पर हत्या के खिलाफ सिंध विधानसभा में एक प्रस्ताव का पारित किया जाना कसास और दियत नियमों से संबंधित है। कानूनों पर विचार किया गया और साथ ही उनकी कमियों पर भी विचार किया गया जो इन नियमों को सम्मान के नाम पर हत्या के सरल स्वभाव के पीड़ितों के खिलाफ दुरुपयोग की इजाज़त दे रहे हैं।

लेखकों,  पत्रकारों,  मीडिया से जुड़े और सक्रिय कार्यकर्ताओं के तौर पर,  हमारी जिम्मेदारी न सिर्फ दूसरों के प्रति है बल्कि खुद के लिए भी है कि- हम जो प्रकाशित करते हैं उसमें विश्वास करते हैं और उसकी पूरी जाँच की है,  और सुनिश्चित किया है कि यह संदर्भ के साथ हो। निष्पक्षता एक उद्देश्य है,  लेकिन जब विचार पेश करना होता है तो ईमानदारी के सम्बंध में ये मिथक बन जाता है। हमारे झुकाव को कम से कम उचित सीमा के भीतर रहने की ज़रूरत है,  यहाँ तक यदि निष्पक्षता नहीं हासिल हो पाती है।

ऑनलाइन उपस्थिति एक आकर्षक भंवर है और ऑनलाइन उपस्थिति के लिए हम अक्सर सबसे आकर्षक विचारों का इस्तेमाल करते हैं,  जो उचित है,  और इसके लिए ऐसे खयाल या कथन या संदर्भ प्रस्तुत करते हैं जो अर्थ पूर्ण होता है। इसके लिए समान रूप से पाठक या दर्शक लोग भी जिम्मेदार हैं। जब हम कम समझदार होते हैं,  तो हम कुछ विचारों को लोकप्रिय करते हैं,  उदाहरण के लिए इन दिनों इस्लाम की पुरुष प्रधान प्रणाली की और झुकाव या उग्रवाद है। मांग और आपूर्ति के नियम सामने आ जाते हैं और पत्रकार संभावित सफल मुद्दों को उठाना जारी रखते हैं, यहाँ तक कि ये बिना संदर्भ के हो तब भी।

मैं निष्पक्षता के लिए प्रार्थना नहीं कर सकती हूँ, क्योंकि ये लेख को उबाने वाला और अंततः उस उद्देश्य के लिए हानिकारक होता है जिनके लिए पैरोकारी की ज़रूरत होती है। मैं सिर्फ न्यापूर्ण दृष्टि के लिए कह सकती हूँ। मुझे विश्वास है कि ये मुमकिन है।

लेखिका के विचारों और पाठकों की टिप्पणियाँ जरूरी नहीं कि एक्सप्रेस ट्रिब्यून के विचारों और नीतियों का प्रतिनिधित्व करती हों।

स्रोत: एक्सप्रेस ट्रिब्यून, लाहौर

URL for English article: http://www.newageislam.com/islam,-women-and-feminism/don’t-drag-islam-into-every-debate-concerning-women/d/6615

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