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Hindi Section ( 19 March 2012, NewAgeIslam.Com)

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Those Who Do Not Attend Friday Prayers ‘Should Simply Be Killed. Slit Their Throats!: Deoband जो लोग नमाज़े जुमा में शिरकत नहीं करते हैं उन्हें मार दिया जाना चाहिए। उनका गला काट देना चाहिए!: देवबंद


ईमान की बात

सलमान तारिक़ कुरैशी (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

05 सितंबर, 2009

जनरल ज़िया उल हक़ ने दहशतनाक संस्थानों को बढ़ावा दिया और पीछे की ओर ले जाने वाली शिक्षा प्रणाली का निर्माण किया है जिसने देश के बौद्धिक वातावरण को दूषित किया है और जो आज के कट्टर, इल्म (ज्ञान) दुश्मनी वाली सियासी तहज़ीब को जन्म दिया है।

ये वो महीना है, जिसे दुनिया के इस हिस्से में हम 'रमज़ान शरीफ़ के तौर पर सदिंयों से जानते हैं, लेकिन जिसे अब ठीक कर के   रमज़ान करीम कर दिया गया है। मेरे घर के पास बड़ी मस्जिद में नमाज़ के वक्त जमा होने वाले लोगों में कराची के बुरजुआ वर्ग के लोग और आम आदमी शामिल हैं और ये मजमा सामान्य से अधिक बड़ा होता है।

मस्जिद के पेश इमाम साहब की बातचीत में अक्सर जन्नत की हूरों के बारे में होती है, और जिसकी तारीफ में वो बेखुद हो जाते हैं, और उनके हुस्न व जमाल की तारीफ करते हैं जो स्पष्ट रूप से शारीरिक होती है। उनके अन्य पसंदीदा विषयों में स्वात और वजीरिस्तान में बहादुर योद्धा हैं, जो बुराई की शक्तियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। (ये काबिले ग़ौर होना चाहिए कि वो हमारे इस्लामी गणतंत्र की सशस्त्र सेना का हवाला नहीं दे रहे हैं)। कभी पहाड़ों में एक विशेष "गाज़ी" की बात करते हैं, जिस पर वो अल्लाह की रहमत भेजते हैं।

इबादत की इस खास जगह पर बाक़ायदा जमात में शामिल होने वाले कुछ इस तक़रीर को हद से ज़्यादा बताते हैं। लेकिन जिस मस्जिद की बात कर रहे हैं उसे एक खास इस्लामी दोस्त देश के ज़रिए बनवाया गया है (जो पूर्व तानाशाहों का शाही स्वागत करने के लिए जाना जाता है) और जिसका इंतेज़ाम उनके कौंसिलर दफ्तर से किया जाता है। उसके मामलों में हस्तक्षेप सिर्फ एक जमात के सदस्य से परे है। या ये सिर्फ हमारे टैक्स चोरी और रिश्वत के लिए बातचीत करने वाले अशराफिया तब्के का अंदविश्वास के जुर्म है जो तमात की निष्क्रिय चुप्पी को सुनिश्चित करता है?

सभी महीनों में सबसे मोकद्दस (पवित्र) इस महीने से मेरे दिमाग में मेरे जानने वाले एक मुत्तक़ी (परहेज़गार) शख्स का खयाल आता है। मुत्तक़ी से ज़्यादा, उन्हें उनके दोस्त ईमान से संबंधित मामलों में अधिकार वाला इंसान मानते हैं। वो इल्म रखते है और खास तौर से वो बहुत पढ़े लिखे हैं और मौलाना रशीद गंगोही को बहुत पसंद करते हैं जो कि देवबंद मदरसे के संस्थापकों में से एक प्रमुख आलिम थे। जिन हज़रत का मैं हवाला दे रहा हूँ वो एक मुशफिक (दयालु) इंसान हैं जिन पर दूसरों की मदद के लिए निर्भर हुआ जा सकता है। लेकिन जब मैं उनसे बातचीत कर रहा था तब मैंने अनुभव किया कि दूसरों की तरफ से जो सबसे बुनियादी गुण है, उसमें विरोधाभास पाया। उन्होंने रहम दिली को "मुत्तक़ी औऱ बाअमल मुसलमानों "के लिए खास तौर से रखा था। दूसरों के लिए, उनके मुताबिक, उन्हें अपने तरीकों को ठीक करने का मौका दिया जाना चाहिए, जिसके बाद वो "वाजिबुल कत्ल" होंगे।

एक व्यक्ति से मुलाकात का मुझे मौका मिला जो पूंजीपति था उसका भी यही मानना ​​था कि जो लोग नमाज़े जुमा में शिरकत नहीं करते हैं "उन्हें मार दिया जाना चाहिए। उनका गला काट देना चाहिए!

अब,  इस तरह की खूंखार ज़बानी वहशीपन उस पारंपरिक परहेज़ गारी और शरीफाना तौर पर कुबूल करने से बिलकुल अलग है जिसमें ज़्यदातर मुसलमानों की परवरिश हुई है। मैं ये सलाह देने के किसी महारत का दावा नहीं करता हूँ जो ये बताता हो कि ये या दूसरे इस्लामी नजरिये की सही शक्ल है। लेकिन, निश्चित रूप से बहुत से उलमा हैं जिनका मानना ​​है कि जारेहाना (आक्रामक) शब्द  जो गलत तौर पर लोकप्रिय है, जिसे कट्टरपंथ कहा जाता है। ये  अपेक्षाकृत हाल ही में पैदा एक नजरियाती (वैचारिक) बिदअत (नयी रीति) है। ये लकीर का फकीर होने और बनावटी तार्किक सोच की पैदावार है जो हमारे हिंसक और असहिष्णुता ज़माने की विशेषता है। एक ज़माना जो उन्नीसवीं सदी में आधुनिक साम्राज्यवाद के पूरी तरह सामने आने और जिसके हानिकारक सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया की वजह से ज़िंदा रहा।

इस प्रकार की दानिशवराना विरासत की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान में किस तरह की राजनीतिक चर्चा संभव है?

जैसा कि मैंने उपरोक्त में कहा  है कि नये पाकिस्तानी राष्ट्र का पहला राजनीतिक बयान नई संसद के पहले सेशन से देश के संस्थापकों की ओर से संबोधित करते हुए आया, और ये बयान क़ानून और व्यवस्था के बारे में नीतिगत बयान और धार्मिक दृष्टिकोण के किसी भी प्रकार के हवाले के बिना काला बाज़ारी, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद पर था। अख़ीर में जिसका उल्लेख किया गया उसे कायदे आजम ने यह कहते हुए रद्द कर दिया कि "... हिंदू समुदाय और मुस्लिम समुदाय की ये सभी ज़ावियेदारी (कोण कारिता), धार्मिक अर्थ में नहीं, लेकिन राजनीतिक अर्थ में राज्य के नागरिकों के रूप में समाप्त हो जाएगी क्योंकि यह हर व्यक्ति निजी विश्वास है"।

कायदे आजम की मौत और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के तख्ता पलट और हत्या के तीन दशकों में राजनीतिक बहस में  दुनियावी समस्याओं जैसे भूमि सुधार, आर्थिक विकास, वयस्कों को वोट देने के अधिकार, संविधान के शासन, मानवाधिकार और संघ में शामिल होने वाली इकाईयों के अधिकार शामिल थे। चाहे नाज़िमुद्दीन या अय्यूब ख़ान या भुट्टो सत्ता में रहे हैं और चाहे इनका विरोध सोहरावर्दी या मुजीब या वली खान या भाशानी ने की हो, राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए कोई 'इस्लामी नुसख़े' की तज्वीज़ नहीं की गयी। अहम राजनीतिक लोगों में से सभी ने आधुनिकीकरण के वैकल्पिक रास्ते बताए और समकालीन विचारों को पेश किया।

ऐसा लगता है कि इस तरह की इस्लामी फिक्र एक सीमित अल्पसंख्यक के बीच के अलावा पाकिस्तानी हक़ाएक़ का हिस्सा नहीं था। अहम बात ये है कि कोई दूसरे पर ' बुरा' मुसलमान होने का आरोप नहीं लगाता था, या यहाँ तक कि किसी के वाजिबुल क़त्ल होने को बताने के बारे में सोचता नहीं था। इस्लामी फिक्र (जो आज मुसलमानों के ज़हनों पर हावी है) बहस का मुद्दा नहीं थी।.

लेकिन 5 जुलाई 1977 ई. को कुछ बदल गया था जब हमने पहले दिन गासिब जो मीडिया में एक इस्लामी व्यवस्था की अपनी प्राथमिकताओं के बारे में बड़बड़ा रहे थे। इन दहशतनाक अदारों (संस्थानों) को बढ़ावा दिया और पीछे की ओर ले जाने वाले शिक्षा व्यवस्था का उन्होंने निर्माण किया है जिसने देश के बौद्धिक वातावरण को दूषित किया है और जो आज के कट्टर, इल्म (ज्ञान) दुश्मनी वाली सियासी तहज़ीब को जन्म दिया है और हिंसक विद्रोह, आतंकवाद और बेरहमी से सामूहिक हत्या इसके ज़हरीले परिणाम हैं।

अब मैं, ये प्रस्ताव नहीं पेश कर रहा हूँ कि पेश इमाम साहब जिनका मैंने उल्लेख है या उनकी जमात में शामिल होने वाले धनी किसी भी तरह इस धरती पर जारी हिंसा और लगातार तबाही की होलनाक लहरों के लिए दूर दूर तक  पूरी तरह जिम्मेदार हैं। लेकिन क्या इसमें दार्शनिक संबंध, एक खामोश स्वीकृति नहीं है कि इस तरह के हिंसक कामों और उनके तत्वों के द्वारा पाकिस्तानी  राज्य के खिलाफ छेड़ी गई जंग निंदा के काबिल लेकिन किसी न किसी तरह समझे जाने लायक़ है?

हालांकि कोई तुलना नहीं किया जा रहा है और न ही कोई सुझाव दिया गया लेकिन मौलवी सूफी मोहम्मद की मलामत को लाल मस्जिद के ख़तीब से जोड़ना और इससे भी आगे इस मस्जिद के पेश इमाम से जिनका उल्लेख मैंने इस लेख में किया है, एक तरह की दार्शनिक बयानबाज़ी है, जो अविश्वसनीय है?  इससे भी अधिक परेशान करने वाली वो चुप्पी है जिसके साथ इन पेश इमाम साहब के खुत्बात को उनकी जमात के मोहज़्ज़ब मेम्बरों के द्वारा स्वागत किया जाता है। क्या उनकी/ हमारी खामोशी बेहिसी है या रज़ांदी? निश्चय ही ये आतंकवाद के माहौल को बनाने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

 1977 में जनरल ज़िया उल हक़ का सत्ता पर कब्जा करना हमारे इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इस कब्ज़े को को इस त्रासद ज़मीन की अदालतों ने भी सही 'बताया था। जो जज हज़रात उन्हें खुश करने को तैयार नहीं थे (और यहाँ तक कुछ जैसे मुख्य न्यायाधीश अनवारुल हक प्रतिष्ठा के सिद्धांत से लोकप्रिय, जो उनके पक्ष में अपने शपथ से भटक गए) उन्हें अंतरिम संवैधानिक अध्यादेश द्वारा हटा दिया गया था। शायद ये जाना हुआ लगता है? उनके बहुत ही खराब संवैधानिक संशोधनों और इंसानियत को तकलीफ पहुँचाने वाले कानूनों, जिनको इन लोगो ने बढ़ावा दिया, उसे हां में हां मिलाने वाली संसद से पास करा कर अस्तित्व में लाए ... और फिर खुद इनको रद्द कर दिया। उन्होंने आतंकवादी पैदा करने वाले मदरसों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया और वित्तीय सहायता प्रदान की। यहां तक ​​कि आम 'शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रम को ज़हरीली पाठ्य पुस्तकों और हमारी इस धरती का इतिहास दोबारा लिख कर  बिगाड़ दिया।

अंत में, दो बिंदुओं पर अपने पाठकों को ध्यान दिलाना चाहूंगा। पहला ये कि इस अवैध कब्जा करने वाले ने एक लोकप्रिय, संवैधानिक सशक्त प्रधानमंत्री और संसद के खिलाफ और हाल ही में लागू अनुच्छेद 6 के तहत सब कुछ किया है। कृप्या इस पर विचार करें कि उसे रोकने की कोशिश करने वाले सभी बेअसर साबित हुए।

दूसरी समस्या ये है कि तानाशाहों में सबसे पीछे की ओर ले जाने वाले ने ग्यारह साल से अधिक तक शासन किया और सत्ता को चुनौती सिर्फ भुट्टो परिवार और देश की महिलाओं ने पेश किया। ऐसा लग रहा था जैसे वो हमारी पूरी ज़िंदगानी पर शासन कर सकता है। उसकी मौत लोगों के लिए एक अप्रत्याशित और बगैर मेहनत की रिहाई थी।

लेखक कराची में मार्केटिंग सलाहकार हैं, साथ ही वो एक शायर भी हैं।

स्रोत: डेली टाइम्स, पाकिस्तान

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