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Hindi Section ( 21 Jun 2012, NewAgeIslam.Com)

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Fatwa and Women फतवा और औरत


सोनिका रहमान, न्यु एज इस्लाम

21 जून, 2012

 

जब कभी भी मैं औरतों की तरक़्क़ी, आज़ादी और उनके हक़ के बारे में सोचती हूँ तो एक ख़याल मेरे मन मैं आता है कि ऐसी कौन सी बात है जो उनकी इस तरक़्क़ी में रुकावट है शायद ये कोई फतवा तो नहीं क्योंकि जिस तरह से औरतों पर ज़ुल्मों सितम का सिसिला बढता जा रहा है उससे तो साफ़ ज़ाहिर होता है की ना तो हम कुरान की तालीम का सही इस्तेमाल कर रहे हैं ना ही उसमे लिखी बातों पर अमल कर रहे हैं। लेकिन हमें पता होना चाहिए कि क़ुरान एक ऐसा ज़रिया है जिसने औरतों के सम्मान और उसकी इज्ज़त का ज़िक्र  सबसे पहले किया है और औरतों को मर्दों के बराबर दर्जा दिया है और दुनिया को औरत की इज़्ज़त व एहतराम का सबक़ इस्लाम ने दिया है।

हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहे वसल्लम (स.ल.अ.) ने पहली बार इंसानियत को औरतों की अज़मत से वाकिफ कराया। दुनिया को सबक़ दिया कि लड़के और लड़कियों की परवरिश मे भेदभाव न करेंलड़कियों को तालीम देने का हुक्म दिया। माँ के कदमो के नीचे जन्नत करार दिया। इस्लाम औरत को कद्र और इज़्ज़त की निगाह से देखने के लिए कहता है। फिर क्यों बार बार एक नया फतवा जारी करके हम उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाते हैं और उनकी तरक्की में रुकावट बनते हैं?

मैं समझती हूं कि शायद इस्लाम में इतनी पाबंदियां नहीं बताई गईं होंगी, जितनी आज के मौलवी फतवे की शक्ल में इस्लाम का वास्ता देकर लगभग हर दिन जारी कर रहे है। कुछ मौलवी कहते हैं कि इस्लाम में फ़तवे का मतलब शरई हुक्म है, जबकि कुछ मजहबी रहनुमाओं का मानना है ये इंसानी राय है। यहां ये लिखना भी ज़रूरी है कि इंसान कई बार खुद भी गलत हो सकता है और इस सभ्य समाज में क्या किसी को मजहब के नाम पर अपनी राय के बोझ में दबाया जा सकता है?  देखा जा रहा है कि मुस्लिम समाज में पिछले कई बरसों से हर मामले में मज़हब की आड़ लेने का दस्तूर सा बन गया है, और इसके लिए बस  ज़रूरत होती है एक मौके की।

आए दिन दारुल उलूम, देवबन्द और मुल्क के दूसरे मुफ्ती और मौलाना हज़रात के ज़रिए मुस्लिम समाज के सामाजिक कामकाज को लेकर फतवे दिए जाते हैं। लेकिन ये फतवे खासतौर पर मज़हब का खौफ रखने वाले और अनपढ़ मुस्लिमों की तरक्की में न सिर्फ रुकावट पैदा करते हैं बल्कि आम मुसलमानों को मुल्क की मुख्यधारा में शामिल होने और सौहार्द कायम करने में बाधक साबित हुए हैं। जैसे महिलाओं के मॉडलिंग के खिलाफ फतवा, हकीम की इजाज़त से ही हो गर्भपात, औरतें मर्दों से दूरी रखें, फेसबुक के खिलाफ फतवा, सेक्स पर फतवा, केला छूने पर फतवा, गर्भ निरोधक के लिए फतवा, घर से बाहर काम करने वाली औरतें अपने साथ काम करने वाले मर्दों को दूध पिलाएं, बलात्कार की शिकार लड़की को 200 कोड़े मारने पर फतवा, क्या खाएं, कैसे खाएं, क्या पहनें, कैसे चलें? ये औरतों के अपने निजी फैसले होने चाहिए हैं।

जानवर भी अपने जीने का अधिकार रखता है, ये तो अल्लाह की बनाई नेमतों मैं से एक नेमत है जिस पर दुनिया कायम है। मुस्लिम समाज की सर्वोच्च नियामक संस्थानों का कहना है कि हज़ारों साल पहले ये नियम क़ायदे बने हैं, ऐसे में इन्हें थोपे गये बताना ग़लत है। हालांकि, अब समाज के बुद्धिजीवियों और कुछ धर्मगुरुओं के बीच इस बात पर बहस छिड़ गई है कि क्या फतवे औरतों की तरक़्क़ी में रुकावट बन रहे हैं? वैसे फ़तवे की परिभाषा भी खुद मुस्लिम समाज में बहस का विषय है। पर उपदेश कुशल बहुतेरेयहां भी चल रहा है। मसलन, दारुल उलूम देवबंद का एक फ़तवा है कि बैंक में खाता खुलवाना शरियत के खिलाफ़ है। लेकिन खुद देवबंद के कई बैंकों में खाते चल रहे हैं, जबकि इस्लाम में सूद लेना हराम बताया गया है। इन तमाम बातों पर स्थिति साफ़ होना ज़रूरी है।

कई मुस्लिम रहनुमाओं को इस बात पर ऐतराज़ है कि कई गंभीर विषयों, समाज की दुर्दशा, सामाजिक बुराईयों जैसे विषयों पर कोई मौलवी फ़तवा जारी क्यों नहीं करते हैं? अशिक्षा के दंश और आरोपों की गर्मी से झुलस रहे मुस्लिम समाज की औरतों के लिए तालीम हासिल करने का फ़तवा बहुत ज़रूरी है,   जिससे औरत अपने उन अधिकारों को पा सकती है जिसकी वो हक़दार है।

जो लोग फतवों के बारे में नहीं जानते, उन्हें लगेगा कि ये कैसा समुदाय है, जो ऐसे फतवों पर जीता है। फतवा अरबी का लफ्ज़ है। इसका मायने होता है- किसी मामले में आलिमे दीन की शरीअत के मुताबिक दी गयी राय। ये राय जिंदगी से जुड़े किसी भी मामले पर दी जा सकती है। फतवा यूँ ही नहीं दे दिया जाता है। फतवा कोई मांगता है तो दिया जाता हैफतवा जारी नहीं होता है। हर उलमा जो भी कहता है, वो भी फतवा नहीं हो सकता है। फतवे के साथ एक और बात ध्यान देने वाली है कि हिन्दुस्तान में फतवा मानने की कोई बाध्यतता नहीं है। फतवा महज़ एक राय है। मानना न मानना, फतवा मांगने वाले की नीयत पर निर्भर करता है। लेकिन हिन्दुस्तान में फतवा मुसलमानों के लिये हिन्दुस्तान के संविधान से भी ज्याद अहम है।

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